सन 1200 के लगभग भारत में कन्नौज में गहरवाड़ या राठौड, दिल्ली-अजमेर में चौहान, चित्तौड़ में शिशोदिया और गुजरात में सोलंकी-ये चार राजपूत वंश शासन कर रहे थे। इन राजपूत वंशों में परस्पर बड़ी ईर्ष्या बनी रहती थी। उसी ईर्ष्या भाव के कारण विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को यहां शासन करने का अवसर मिला।एक बार की बात है कि गुजरात के सोलंकी राज परिवार के कुछ सदस्य रूष्ट होकर गुजरात से अजमेर आ गये। पृथ्वीराज चौहान उस समय अजमेर ओर दिल्ली के शासक नही बने थे। उनके पिता सोमेश्वर सिंह ने सोलंकी परिवार के अतिथियों का पूर्ण स्वागत सत्कार किया। अतिथि भी प्रसन्नवदन होकर रहने लगे। पृथ्वीराज चौहान व राजा तो अतिथियों के प्रति सदा विनम्र रहे और वह इन राजकीय परिवार के अतिथियों के महत्व को जानते भी थे, परंतु यह आवश्यक नही कि परिवार का हर सदस्य ही आपकी भावनाओं से सहमत हो और उसी के अनुरूप कार्य करना अपना दायित्व समझता हो। पृथ्वीराज व राजा सोमेश्वर के साथ भी यही हो रहा था, वह अतिथियों के प्रति जितने विनम्र थे पृथ्वीराज के चाचा कान्ह कुंवर उतने ही उनके प्रति असहज थे।

एक दिन की बात है कि राजा की अनुपस्थिति में दरबार में एक सोलंकी सरदार ने अपनी मूंछों पर ताव देना आरंभ कर दिया। कान्ह कुंवर ने राजा सोमेश्वर व पृथ्वीराज चौहान की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए मूंछों पर ताव देते सरदार की यह कहकर दरबार में ही हत्या कर दी कि चौहानों के रहते और कोई मूंछों पर ताव नही दे सकता। कान्ह कुंवर ने मानो आगत के लिए आफत के बीज बो दिये थे।
जब पृथ्वीराज चौहान दरबार में आए और उन्हें घटना की जानकारी मिली तो वह स्तब्ध रह गये। राजकीय परिवार के लोगों के साथ हुई यह घटना उनको भीतर तक साल गयी। उन्हें कान्ह कुंवर का यह व्यवहार अनुचित ही नही अपितु सोलंकियों से शत्रुता बढ़ाने वाला भी लगा। इसलिए उन्होंने आज्ञा दी कि कान्ह कुंवर की आंखों पर पट्टी बांध दी जाए और सिवाय युद्घ के वह कभी खोली न जाए।
उधर शेष सोलंकी अतिथि इस घटना के पश्चात स्वदेश लौट गये। गुजरात के सोलंकी राजपरिवार को यह घटना अपने सम्मान पर की गयी चोट के समान लगी। राजा मूलचंद सोलंकी ने अजमेर पर चढ़ाई कर दी। सोमवती युद्घ क्षेत्र में जमकर संघर्ष हुआ। मूलराज सोलंकी ने दांव बैठते ही राजा सोमेश्वर की गर्दन धड़ से अलग कर दी। मूंछों की लड़ाई की पहली भेंट राजा सोमेश्वर चढ़ गये।
आफत अभी और भी थी। इस घटना के बाद से चौहान और सोलंकी परस्पर एक दूसरे के घोर शत्रु बन गये। कालांतर में जब संयोगिता के स्वयंवर का अवसर आया तो सोलंकी राजा ने जयचंद का साथ दिया। पृथ्वीराज चौहान ने संयोगिता हरण के समय अपनी सुरक्षा में बताया जाता है कि अपने पक्ष के 108 राजाओं की सेना को कन्नौज से लेकर दिल्ली के रास्ते में थोड़ी थोड़ी दूर पर तैनात कर दिया था। उधर जयचंद की सेना भी अपने राजाओं की सेना को मिलाकर बहुत बड़ी बन गयी थी। कहा जाता है कि दोनों महान शक्तियों में घोर संग्राम कन्नौज से दिल्ली तक होता चला था। सयोगिता के डोले को सुरक्षा सहित दिल्ली पहुंचाने की व्यवस्था कर पृथ्वीराज चौहान स्वयं भी लड़ा। युद्घ तो जीत गया पर भारत माता के कितने ही वीर इस व्यर्थ की लड़ाई में नष्ट हो गये। मौहम्मद गोरी से लड़ने की शक्ति भी पृथ्वीराज की क्षीण हुई। पृथ्वीराज के 108 साथी राजाओं में से 64 राजा मारे गये। फलस्वरूप जब मोहम्मद गोरी आया तो उसने दोनों पक्षों को अलग अलग सहज रूप से पराजित कर दिया। इस प्रकार एक कान्ह कुंवर की मूर्खता और दम्भी स्वभाव के कारण देश घोर अनर्थ में फंस गया। व्यर्थ की लड़ाई ने भारी अनर्थ करा दिया।
आज तक लोग इस व्यर्थ के अनर्थ को ‘मूंछों की लड़ाई’ के नाम से जानते हैं। इसीलिए हिंदी में यह मुहावरा ही बन गया है मूंछों की लड़ाई का। आज भी लोग जब किसी व्यर्थ की बात को अपने अहम के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मेरी मूंछों की बात है तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि अहम की लड़ाई से अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हाथ नही आता है। इसलिए विवेक और धैर्य के साथ आगे बढें और अहम भी बातों को पीछे छोड़ें।

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