डॉ. मधुसूदन
(एक)
मातृभूमि की भक्ति जगाने की शक्ति:
मातृभूमि के प्रति भक्ति-भाव जगाने की शक्ति,जिस गीत के शब्दों में कूट कूट कर भरी हुयी है, ऐसे ”वंदेमातरम” का सामुहिक गान जब सम्पन्न हुआ, तो एक ओर, पंक्तियाँ गायी जा रही थी, जिसके बोल थे –
-शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
तो दूसरी ओर, मन में विचार मँडरा रहे थे, सोच रहा था, कि, कैसे कैसे शब्दों को चुन चुन कर बंकिम ने इस गीत को रचा है?
”पुलकितयामिनीं, द्रुमदलशोभिनीं, सुहासिनीं, सुमधुरभाषिणीं” इसी भाँति, प्रत्येक पंक्ति में नीम् या णीम् से अंत होनेवाला प्रास आता है, और वातावरण में एक गूंज तैर जाती है।
(दो)
दृश्यों की परम्परा:
गीत या कविता में एक ऐसी परम्परा है, जो, दृश्यों पर दृश्यों को क्रमवार खडा करते हुए पूरा दृश्य चक्षुओं के सामने ला देती है। ऐसी परम्परा का अवलंबन करते हुए, इस कडी में बंकिम ने पहले भारत का एक दृश्य खडा करने के लिए,
—->शुभ्र (ज्योत्स्ना )चांदनी से रोमांच (पुलक) खडे करने वाली (यामिनीं) रात्रियाँ लायी। फिर खिले हुए (फुल्लकुसुमित) फूलों से लदे वृक्षों के (द्रुम-दल )वृंद से शोभित दृश्य लाए। हंसमुखी (सुहासिनीं) और मधुर भाषी (सुमधुरभाषिणीयाँ) महिलाओं का दृश्य लाया। और अंत में भारत माता का (सुखदां) सुखदेनेवाली,(वरदां) आशीष देनेवाली माँ, ऐसा वर्णन किया।
कुछ पुनरावृत्ति के दोष सहित, लेखक कहने को ललचाता है, कि सोचिए…….
शुभ्र चांदनी से युक्त रात्रियों के कारण हर्ष-भरे रोमांच खडे कर, पुलक जगानेवाली—–इतना सारा आशय, संदर्भ सहित व्यक्त करने के लिए, मात्र ”शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्।” शब्द पर्याप्त हैं।
और ”फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्” मात्र से, ”खिले हुए फूलों से युक्त वृक्षों के वृंद (झुंड ) जहाँ भूमि की, शोभा बढाते हैं।”–व्यक्त हो जाता है। ऐसी संक्षेप में अभिव्यक्ति की शक्ति को भाषा का महत्वपूर्ण गुण (शायद महत्तम गुण)येनिश ने भी माना है।
साथ में देववाणी की परम्परापूत आभा भी इस शब्द-गुच्छ को, भक्ति से ओतप्रोत कर देती है।
(तीन)
प्रास का चमत्कार:
”पुलकितयामिनीं, द्रुमदलशोभिनीं, सुहासिनीं, सुमधुरभाषिणीं” इसी भाँति, प्रत्येक पंक्ति में -नीम् या -णीम् से अंत होनेवाला प्रास आता है, और वातावरण गूंज उठता है।
यह प्रास का चमत्कार है ही, यह अवश्य बंकिम का योगदान है, पर ऐसे प्रास की उपलब्धि संस्कृत प्रत्ययों के कारण ही संभव है। तो यह पाणिनि का भी योगदान है। देववाणी का योगदान है।
ऐसी सरस पंक्तियाँ, एक गूढ-सी कूक जगा देती है। यह शक्ति देववाणी की नहीं, तो और किसकी है?
अंग्रेज़ी में ऐसे प्रास इतनी सरलता से ही क्यों, उपलब्ध है ही नहीं। सोचिए।
(चार)
पहली कडी के शब्द:
वैसे गीत की पहली कडी में प्रयुक्त शब्द हैं।
सुजलाम = निर्मल जल (नदियों) वाली (भूमि)।
सुफलाम् = सुंदर फलों से (लदे हुए वृक्षों वाली भूमि)।
मलयज शीतलाम् = मलय पर्वत के चंदन से सुगंधित पवन युक्त भूमि।
शस्यश्यामलाम् = फसल से श्यामल रंग प्राप्त भूमि।
इस मालिका में, निर्मल जल वाली नदियों का दृश्य है। फिर सुंदर फलों से लदे हुए वृक्ष आते हैं। और मलयगिरि से चंदन सुगंधित पवन बह रहा है। अंत में, फसल से श्यामल रंग प्राप्त शस्य श्यामलाम् भूमि; ऐसे दृश्यों से बंकिम रचना प्रारंभ करता है।
और बार बार ध्रुपद, गाया जाता है, वंदे मातरम।
(पाँच)
प्रेरणा का कारण:
एक कारण मुझे लगता है, कि, गीत के स्वर, जो शास्त्रीय राग ”देश” में डूबे हैं, वह है। अनेक गायकों ने, इस गीत को अन्य रागो में भी गाया है। हेमंत कुमार, एम एस सुब्बा लक्ष्मी, लता मंगेशकर आदि ने, अलग अलग रागों में इस गीत को गाया है। किसी ने ’राग ’काफी’ में, किसी ने, ’मिश्र खंभावती’ में, किसी ने ’बिलावल’ में, किसी ने, बागेश्वरी में, किसी ने ’झिंझौटी’ में ,और अन्य कुछ गायको नें इस गीत को, कर्नाटक शैली के रागों में भी गाया हुआ है। शास्त्रीय रागो में विशिष्ट भाव जगाने की शक्ति सर्व-विदित है।
(छः)
निःशब्द में डूबा देना:
रागदारी की भी एक और विशेषता होती है। बिना शब्दों की रागदारी आप को निःशब्द में डूबा देती है। और निःशब्द अवस्था के पार जा कर ही समाधि में जाया जाता है। जब तक आप शब्द में लिपटे होते हैं, तब तक आप इस संसार में लिप्त होते हैं। इस संसार से ऊपर उठने के लिए आप को संसार से, अपना संबंध काटना पडता है। आपका संबंध इस जगत से मन द्वारा, और मन का शब्द द्वारा जुडा होता है। जब बिना शब्द ही स्वर ताना जाता है, खींचा जाता है, तो कुछ क्षणों के लिए, आँखे बंद होकर, ध्यान समाधि लग जाती है।
सुना होगा ही आपने, कि, जब गान सम्राज्ञी लता जी, मुखड़े के अंत में- माऽऽऽऽऽऽऽको खींचती और लम्बा कर लहराते हुए अंत में ऽऽ तरम् पर अंत करती है, तो एक अलौकिक, रोमांचकारी पुलक की अनुभूति होती है।
(सात)
एक और कारण:
और एक कारण यह प्रतीत होता है, कि, आध्यात्मिक वाणी, संस्कृत शब्दों की , पंक्ति पंक्ति में जो गूंज होती है, उस गूंज से ही व्यक्ति ध्यान में चली जाती है। यही है संस्कृत शब्दों का चमत्कार। वैसे कुछ पहलू विश्लेषण से परे ही होंगे, पर इस गूंज से, मस्तिष्क के दोनो गोलार्ध, चमकना प्रारंभ हो जाते हैं। ऐसा साम्प्रत पढे हुए, शोधपत्रों से पता चलता है। जिनमें प्रयोग द्वारा इस सच्चाई को प्रमाणित करने का विववरण मिलता है।यह चमत्कार मेरी प्रामाणिक जानकारी के अनुसार, किसी अन्य भाषा के शब्दों में नहीं है। और होगी तो भी, इतनी मात्रा में तो निश्चित नहीं है।
(आँठ)
प्रत्यय के और उदाहरण
अनायास एक प्रत्यय के काफी उदाहरण इस कविता में आ गये हैं।
पुलकितयामिनीं, द्रुमदलशोभिनीं, सुहासिनीं, सुमधुरभाषिणीं, विहारिणीम्, बाहुबल धारिणीं, रिपुदल वारिणीं, तारिणीं, धरणीं, भरणीं इत्यादि इसी गीत के प्र्त्ययसहित शब्दों के उदाहरण होंगे।,
इन्हीं की भाँति और विशेषण, और अन्य शब्द भी बनाए जा सकते हैं। जिसकी सूची अगले परिच्छेद में, प्रस्तुत है, बिना कोई विश्लेषण।
(नौ)
सूची:
यह सूची आप को हमारी शब्द शक्ति के प्रति आश्वस्त करने में सहायक होंगी।
(क) धारिणी, अंजनी, रागिणी, मोहिनी, मालिनी, हिमानी, शिवानी, कमलिनी, नलिनी, यामिनीं, शोभिनीं, भवानी, गंधिनी, पद्मिनी, जननी
(ख) मर्दिनी से जोड कर, असुरमर्दिनी, रिपुमर्दिनी, महिषासुरमर्दिनी, ऐसे शब्द बना सकते हैं।
(ग ) अंगिनी से जोड कर –>कनकांगिनी, रत्नांगिनी , हेमांगिनी, सुगंधांगिनी,
(घ) दायिनी से जोडकर —> वरदायिनी, जयदायिनी, विजयदायिनी, शुभदायिनी, सुखदायिनी,
(ङ) इसीका अर्थ का अलग रूप सुखदा, शुभदा, वरदा,
(च) भाषिणी से जोडकर , सुभाषिणी, मधुभाषिणी, मंजुभाषिणी,
(छ) वासिनी से जोडकर , विंध्यवासिनी, गिरिवासिनी, ग्रामवासिनी, नगरवासिनी,
(छ) सिंहवाहिनी, हंसवाहिनी, मयूरवाहिनी
(ज) निर्झरिणी शैवलिनी, तरङ्गिणी विहारिणी, सुहासिनीं, , तटिनी, धरणीं, भरणीं, दामिनी, मंदाकिनी, सौदामिनी, संवादिनी, सुशोभिनी, पुष्करिणी, तपस्विनी, पयस्विनी,
(झ) तट विहारिणी, पवनपावनी, योगिनी, धर्मचारिणी, चित-स्वरूपिणी, अंतर्यामिनी, स्फुल्लिंगिनी,
सारे शब्द स्त्रीलिंगी होने के कारण बालाओं के नामों मे प्रयोजे जाते हैं।