तब कहलाते गांधीजी वास्तविक नायक
जब देश को तोड़कर पाकिस्तान बनाने की सहमति गांधी जी और उनकी कांग्रेस ने दी तो समय कांग्रेस के भीतर किसी प्रकार का शोक व्याप्त नहीं था । इसके विपरीत सभी कांग्रेसी किसी न किसी प्रकार सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की युक्तियां बढ़ा रहे थे । जिनकी पहुंच गांधीजी तक थी वे गांधीजी के पास आकर और जिनकी गांधीजी से सीधी पकड़ नहीं थी वे गांधीजी के किसी अन्य भक्त का सहारा लेकर अपनी देश सेवा का ‘पुरस्कार’ पाने की चाह में दिन रात एक किए हुए थे ।
भारत के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य एन. वी. गाडगिल ने इस सम्बन्ध में बड़ा स्पष्ट लिखा है :– “3 जून की घोषणा होते ही दिल्ली के समाचार पत्रों में अटकलें लगने लगीं । गपशप के अडडों पर भविष्यवाणी की जाने लगी कि स्वाधीन भारत के प्रथम मंत्रिमण्डल में कौन विराजमान होगा और कौन नहीं ? – प्रतिदिन गांधी जी से जो लोग मिलने आते थे , उनके मापदण्ड से आंका जाने लगा कि भावी मंत्रीमण्डल की रूपरेखा क्या होगी ? उस समय जिन दर्जनों इंजीनियरों ने इस मापदण्ड का प्रयोग किया वे दिल्ली में आकाश पर चढ़ गए । कांग्रेस के प्रकोष्ठ ( लॉबी ) में भी चर्चा का मुख्य विषय यही था । अनेक कांग्रेसी अपना भविष्य संवारने के उद्यम में जुटे हुए थे । अनेक सदस्य जो कांग्रेस राजनीति में बुड्ढा गए थे प्रतिदिन गांधी जी , पटेल ,नेहरू और यदा-कदा मौलाना के घरों के चक्कर काटने लगे । ”
इसका अभिप्राय था कि जिन लोगों पर उस समय देश की जिम्मेदारी आने वाली थी , उन्हें उस समय देश का विभाजन हो या न हो या विभाजन के फलितार्थ क्या होंगे या देश की हिन्दू – मुस्लिम आबादी का शान्तिपूर्ण विस्थापन कैसे हो ? – इस विषय पर विचार करने का समय ही नहीं था । 3 जून की घोषणा के पश्चात सभी को अपनी – अपनी देशभक्ति का पुरस्कार पाने की इच्छा हो रही थी । चरखा कातकर और देश को विभाजन की ओर धकेलकर जितनी देशभक्ति या देश सेवा इन्होंने की थी , उसकी कीमत वसूलने के लिए अब यह लालायित थे।
गांधीवादियों की पद पाने की आपाधापी
इनकी इस प्रकार की चेष्टाओं को देखकर ऐसे कितने ही बलिदानों की आत्माएं कष्ट अनुभव कर रही होंगी , जिन्होंने अपनी गर्दन का मोल लिए बिना ही स्वतन्त्रता के लिए अपने बलिदान दे दिए थे ।
एक वह लोग थे जो गर्दन का मोल लिए बिना ही फांसी के फंदे पर झूल गए थे और एक यह कांग्रेसी थे जो स्वतन्त्रता सैनानी के झूठे प्रमाण पत्र तक लेकर सत्ता सुख भोगने की पंक्ति में खड़े होते जा रहे थे।
गांधी जी व गांधीवाद के नाम पर सत्ता की ऐसी चाह कांग्रेसियों के भीतर देखने को मिलेगी ? – यह सोचा भी नहीं जा सकता था। विशेषकर तब जबकि भारत दधीचि जैसे महात्माओं का देश रहा है । जहाँ प्राणीमात्र के कल्याण के लिए अस्थियों का दान देना भी सहर्ष स्वीकार किया जाता रहा है। यदि इतिहास इस देश को दधीचि महात्मा का देश कहे तो गर्व होता है और यदि इतिहास इस देश को उन गांधीवादियों का देश कहे जो सत्ता के लिए भूखे गिद्धों की तरह लड़ रहे थे और जिन्हें देश के बंटवारे की तनिक भी चिंता न होकर पद पाने की चिंता थी तो शर्म आती है।
कांग्रेसियों की सत्ता में हिस्सा प्राप्त करने की इस आपाधापी को हमारे पतन की निकृष्ट अवस्था ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि इस देश की यह परम्परा रही है कि यहाँ देशभक्ति का मूल्य न तो मांगा गया और न ही आंका गया । कहना न होगा कि इस देश का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बिना गर्दन का मूल्य लिये फांसी पर चढ़ना सिखाता है और गांधीवाद छोटी सी सेवा का भी बड़ा पुरस्कार लेना सिखाता है।
भारत की बलिदानी परम्परा
राजा दाहिर , पृथ्वीराज चौहान , छत्रसाल , महाराणा प्रताप , अयोध्या के राजा भीटी मेहताब सिंह और राम मन्दिर के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देने वाले दीनदयाल जैसे अनेकों युवक , शिवाजी महाराज , वीर बंदा बैरागी , कोतवाल धनसिंह , मंगल पांडे , रानी लक्ष्मीबाई और उसके पश्चात सुभाषचन्द्र बोस , राम प्रसाद बिस्मिल , सावरकर इन जैसे लाखों क्रान्तिकारियों ने कभी जाकर किसी के सामने इस बात के लिए कटोरा नहीं फैलाया , ना इस बात के लिए आपाधापी मचाई कि अब हमारी देशभक्ति का उचित पुरस्कार या मूल्य हमें प्रदान कर दो । इसके उपरान्त भी मूल्य न मांगने वाले ये बलिदानी या क्रान्तिकारी इतिहास से विलुप्त कर दिए गए और अपने किए गए शान्तिपूर्ण तथाकथित प्रदर्शन के आधार पर स्वतन्त्रता प्राप्त करने वाले कांग्रेसी इस देश के नायक हो गए ? शोक ! महाशोक !!
ध्यान रहे किसी भी महात्मा का जीवन सभी सांसारिक ऐषणाओं से मुक्त होता है । उसके सच्चे अनुयायी भी वही होते हैं जो ऐसी ऐषणाओं से मुक्त होते हैं और ‘नेकी कर दरिया में डाल’ – की भावना से काम करते हैं । ऐसे में क्या गांधी जी वास्तव में महात्मा थे ? – यदि वह महात्मा थे तो उनके अनुयायी महात्मा क्यों नहीं बन पाए ? इतिहास को इस प्रश्न का उत्तर देना ही चाहिए ?
राम मनोहर लोहिया लिखते हैं :– ” ऐसी स्थिति में जब हिन्दू मुस्लिम सम्बन्ध बनने की लगभग कोई सम्भावना नहीं रह गई थी , पुराने कांग्रेसियों का कुर्सी का लालच किसी उच्च प्रयोजन की आड़ में उभरकर सामने आने लगा था । हो सकता है कि उनमें से कुछ को अपने तुच्छ उद्देश्य का भान न रहा हो । वास्तव में उन्हें इसमें औचित्य का ही आभास हुआ होगा । क्योंकि जब वे देश का अंग – भंग कर रहे थे और कुर्सी पर बैठने की तैयारी में लगे थे तो उन्हें लगा होगा कि वे असाध्य हिन्दू मुस्लिम समस्या को ठिकाने लगा रहे हैं । ”
तब गांधीजी बन जाते वास्तविक नायक
जिस गांधी की 150 वी जयंती को देश ने पिछले दिनों में बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया था उसके कांग्रेसियों की देशभक्ति देखिए कि जब देश का विभाजन होना अवश्यंभावी हो गया तो किसी भी कांग्रेसी ने ” भारत छोड़ो आंदोलन ” चलाने का निर्णय नहीं लिया । यहां तक कि हर बात पर अनशन करने वाले गांधीजी भी इस विषय पर मौन साध गए । यदि वह 3 जून की घोषणा के पश्चात देश में ‘ भारत जोड़ो आंदोलन ‘ के नाम पर निकल पड़ते तो सारा देश अपने इस ‘महात्मा नेता’ को सिर आंखों पर बिठा लेता । गांधीजी को अपने महात्मापन का परिचय देने के लिए 3 जून की घटना का सदुपयोग करना चाहिए था । अच्छा होता कि वह कांग्रेस से मोहभंग कर डंके की चोट कहते कि देश का विभाजन वह हरगिज स्वीकार नहीं करेंगे । इसलिए अब ‘भारत को जोड़ने के लिए’ वह पूरे देश का भ्रमण करेंगे । इतिहास को गांधीजी से ऐसी अपेक्षा करनी ही चाहिए। पर गांधी जी ने न तो आंदोलन चलाने का विचार किया और न ही जेल जाने की घोषणा की । इसके विपरीत उन्होंने 3 जून 1947 की उस घोषणा को अपनी सहमति प्रदान कर दी ।
राम मनोहर लोहिया लिखते हैं : — ” आज मुझे इस बात से गहरा क्लेश हो रहा है कि जब इस महान देश का विभाजन हुआ तो न किसी व्यक्ति ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया और न ही कोई कारागार में गया । मुझे इस बात पर गहरा खेद है कि भारत के विभाजन पर कारागार जाने के लिए मैंने रंचमात्र भी चेष्टा नहीं की । हिंदू मुस्लिम बलवे की भयावह और झूठी आशंका ने मुझे इतना अंधा कर दिया कि मैं अपने जीवन की और देश के वर्तमान इतिहास की निर्णायक घड़ी में अपनी आस्था का साक्षी भी नहीं बन सका । दूसरों का भी यही हाल हुआ नेताओं की तो और भी अधिक अधोगति हुई वे लालच के फंदे में फंस गए ।”
यह लोहिया जी की महानता थी कि उन्होंने अपनी आत्मा में उठने वाले विचारों को बाहर प्रकट किया। पर गांधीजी तो किसी ऐसी महानता का प्रदर्शन भी नहीं कर पाए ।
गांधी जी को उस समय उन लोगों का साथ देना चाहिए था जो देश विभाजन के विरोधी थे। इससे उनका वह संकल्प पूर्ण होता कि ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’। सत्ता के भूखे भेड़ियों का सत्ता स्वार्थ न बढ़ाकर गांधीजी को उन्हें सत्ता से दूर रहकर दंगों में मर रहे उन हिंदुओं को बचाने की प्रेरणा देनी चाहिए थी जो विभाजन की भयानक विभीषिका ओं के शिकार हो रहे थे। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ते लोग आग में कीट पतंगों की भांति झोंके जा रहे थे, और गांधीजी ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ – गा रहे थे। दंगों में झुलसते व जलते हिन्दुओं को देखकर उन्हें तनिक भी दया नहीं आयी । इसके विपरीत उन्होंने ऐसा आचरण किया जिससे वह लोगों की दृष्टि में हिन्दू विरोधी बन गए । दुर्भाग्य देखिए कि जिन मुसलमानों को बचाने की हरसंभव चेष्टा गांधी जी भारत में रहते हुए कर रहे थे , उन्ही मुसलमानों के नाम पर बना अलग देश पाकिस्तान गांधीजी को उस समय एक ‘हिन्दू नेता’ कहकर गाली दे रहा था।
गांधीजी का दोगलापन
मोहम्मद अली जिन्नाह भारत विभाजन कब वास्तविक दोषी था । गांधीजी यह जानते हुए भी इस तथ्य से अनजान बने रहे और भारत विभाजन के दोषी जिन्नाह को ‘कायदे आजम’ कहकर पुकारते रहे । 1931 में कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया । यदि ऐसा होता तो निश्चय ही भगवा रंग भारत के लिए बहुत ही शुभ होता। पर तुष्टीकरण के लिए विख्यात हो चुके गांधी जी ने झण्डा समिति के इस निर्णय को मानने से इनकार कर दिया और जिद कर बैठे कि भारत का झण्डा तिरंगा हो । अन्त में कांग्रेस कार्यसमिति ने झण्डा समिति की मांग को निरस्त कर गांधीजी की जिद के समक्ष समर्पण कर दिया । गांधीजी का दोगलापन हर मोड़ पर हिंदू विरोधी भावना से भरा हुआ था।
इतिहास का यह भी एक रोचक तथ्य है कि 14-15 जून, 1947को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने की स्थिति में पहुँच चुका था, किन्तु गान्धीजी ने ने मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी नीति का परिचय देते हुए वहाँ पहुँचकर कांग्रेसियों से प्रस्ताव का समर्थन करवाया। इस तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस कार्य समिति भी विभाजन की विरोधी थी और गांधीजी ही अकेले वह व्यक्ति थे जो कॉन्ग्रेस कार्य समिति को भी विभाजन के लिए तैयार करवाने में सक्रिय रहे थे । यद्यपि कहने के लिए वह यह कहते रहे थे कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा ।
गांधीजी के समकालीन नेता डॉक्टर अम्बेडकर बहुत ही व्यवहारिक दृष्टिकोण के राष्ट्रवादी नेता थे। वह किसी भी प्रकार के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोधी थे । उन्होंने विभाजन के समय हिन्दू – मुस्लिम जनसंख्या की पूर्ण अदला – बदली का प्रस्ताव रखा था । उनका कहना था कि यदि साम्प्रदायिक आधार पर देश का विभाजन हो रहा है तो भारत में रह रहे सभी मुसलमानों को पाकिस्तान भेज दिया जाए और पाकिस्तान के सभी हिन्दुओं को वहाँ से भारत बुला लिया जाए , ऐसा ही दृष्टिकोण मोहम्मद अली जिन्नाह का भी था । जब जिन्नाह भी इस बात का समर्थक था तो गांधी जी को इस प्रस्ताव को मानने में किसी प्रकार की आनाकानी नहीं करनी चाहिए थी , परंतु उन्होंने इस प्रकार के प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया और अपनी जिद कांग्रेस पर थोपकर बड़ी संख्या में देश में मुसलमानों को रख लिया और जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत के लिए चल दिए थे , उन्हें वहीं रुक जाने की सलाह देने लगे ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत