20 अक्तूबर/बलिदान-दिवस
गाय का भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान है। सभी भारतीय मत-पंथ इसे पूज्य मानते हैं। इस्लाम में भी गोहत्या या गोमांस खाने का आदेश नहीं है; पर हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए मुस्लिम शासकों द्वारा चालू की गयी कुप्रथा आज भी जारी है। इस बारे में कानून भी स्पष्ट और कठोर नहीं है।
लेकिन अनेक समझदार एवं देशभक्त मुसलमान गाय को हितकारी पशु मानकर उसकी सेवा एवं रक्षा का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयास से ऐसे मुसलमानों को संगठित करने का प्रयास भी हो रहा है। इसके लिए ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ तथा ‘माई हिन्दुस्तान’ जैसे संगठन सक्रिय हैं।
डा. राशिद अली ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उनका जन्म ग्राम नगला झंडा (जिला सहारनपुर, उ.प्र.) के एक पठान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हफीजुर्रहमान था। चिकित्सा का प्रशिक्षण (बी.आई.एम.एस.) प्राप्त कर वे अपने गांव में ही चिकित्सा कार्य करने लगे।
डा. राशिद अली के मन में सम्पूर्ण मानवमात्र के लिए प्रेम और करुणा की भावना थी। अतः मांसाहारी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने शाकाहार को अपनाया। उनका मत था कि हिन्दू और मुसलमानों की एकता से ही भारत की उन्नति होगी, और इसके लिए गोहत्या बंद होनी बहुत आवश्यक है।
गोप्रेमी होने के कारण उन्होंने इससे सम्बन्धित कानूनों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लगा कि एक ट्रक में छह से अधिक गायों को नहीं ले जाया जा सकता; पर पशुओं के व्यापारी एक साथ 20-25 गायों को ठूंसकर काटने के लिए उन्हें पशु मंडी में ले जाते थे। पुलिस और प्रशासन भी घूस खाकर अपनी आंख बंद कर लेता है। इससे उनका मन बहुत दुखी होता था।
पश्चिमी उ.प्र. में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत अधिक है। उसकी सीमाएं हरियाणा से भी लगती हैं। सहारनपुर जिले में ही ऐसे कई गांव हैं, जहां खुलेआम गोहत्या होती थी। मुसलमान वोटों के लालच में राजनेता भी इस ओर ध्यान नहीं देते थे। ऐसे में डा. राशिद अली ने इसके विरुद्ध कमर कस ली तथा 1998 में अपना चिकित्सालय बंद कर पूरा समय गोरक्षा को समर्पित कर दिया।
जब भी उन्हें यह सूचना मिलती कि गायों को हत्या के लिए ले जाया जा रहा है, वे अपनी मोटर साइकिल लेकर निकल पड़ते। इस प्रकार उन्होंने हजारों गोवंश की प्राणरक्षा की; पर यह काम इतना सरल नहीं था। एक ओर कट्टरपंथी मुल्ला, तो दूसरी ओर गोहत्यारे उनके पीछे पड़ गये। उन्हें धमकियां मिलने लगीं; पर उन्होंने अपने संकल्प से पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।
वर्ष 2002 में घर जाते समय कुछ लोगों ने उन्हें घेर कर चाकुओं से हमला कर दिया। पेट में गहरे घाव होने से वे बेहोश हो गये; पर गोमाता के आशीर्वाद तथा समय पर सहायता मिलने से वे शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। कुछ दिन बाद हुए एक समारोह में उन्होंने कहा कि ‘‘ये घाव तो कुछ भी नहीं हैं। गोमाता की रक्षा के लिए यदि मुझे प्राण भी देने पड़ें, तो मैं पीछे नहीं हटूंगा।’’
20 अक्तूबर, 2003 को उन्हें दूरभाष से किसी ने सूचना दी कि ग्राम खुजनापुर में कहीं से एक ट्रक भर कर गाय लाई गयी हैं, जिन्हें अगले दिन काटा जाएगा। यह सुनते ही उन्होंने अपने भाई आसिफ अली को मोटर साइकिल पर बिठाया और वहां पहुंच कर सभी 25 गायों को छुड़ा लिया।
पर इससे गोहत्यारे बहुत नाराज हो गये। जब डा. राशिद घर वापस जा रहे थे, तो चार लोगों ने उनका पीछा किया और अपने गांव नगला झंडा पहुंचने से कुछ पहले ही उनके सीने में गोली दाग दी। गोली लगते ही वे गिर गये। जब तक लोग सहायता के लिए आये, तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ गये।
इस प्रकार एक मुसलमान गोरक्षक ने अपने संकल्प को पूरा करते हुए प्राणों की आहुति दे दी।
(संदर्भ : पैगाम ए मादरे वतन, अपै्रल 2008)
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