जब स्वतंत्रता के लिए बिना राजा के ही लड़ती रहीं जातियां

भारतीय इतिहास अदभुत रोमांचों से भरा पड़ा है। यह सच है कि विदेशी इतिहासकारों ने उन रोमांचपूर्ण किस्से कहानियों के सच को इतिहास में स्थान नही दिया। इसके विपरीत हमें समझाया और पढ़ाया गया कि तुम्हारा अतीत कायरता का रहा। दूसरे, तुम सदा युद्घ में पराजित हुए हो, तीसरे, तुममें  कभी भी राष्ट्रवाद की भावना नही रही, चौथे-हिंदुओं की ये दुर्बलता रही है कि नायक (राजा) के युद्घ के क्षेत्र से भागते ही या अपने रथ, हाथी या घोड़े से नीचे गिरते ही सेना में भगदड़ मच गयी थी, जिससे पता चलता है कि राजा के बिना यहां जनता युद्घ नही कर सकती थी। यह सुखद बात है कि इतिहास में हमारे पास ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब विदेशी इतिहास कारों की उपरोक्त मान्यताओं को हमारे देश के लोगों ने झुठलाया और अपने वीरतापूर्ण कृत्यों का परिचय देकर मां भारती की अनुपम सेवा करते हुए राष्ट्र के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया। पूर्व पृष्ठों पर हमने एक सेल्यूक जाति का उल्लेख किया है कि किस प्रकार उसने महमूद गजनवी का सामना कर अपने राष्ट्रप्रेम का परिचय दिया था?

संस्कृति का निर्माण ऐसे हुआ

महमूद गजनवी का उद्देश्य भारत की संस्कृति का नाश कर इस्लाम का विस्तार करना था। भारत की संस्कृति का निर्माण युगों पूर्व हुआ था। जिसमें पग-पग पर त्याग के उच्च आदर्शों को मान्यता दी गयी है। हम यज्ञ पर आचमन करते हुए तीन मंत्रों से जल ग्रहण कर उसका पान करते हैं। यह यज्ञ पर होने वाली नित्य की एक क्रिया है। अविवेकी पुरूष के लिए यह क्रिया छोटी सी बात हो सकती है। विशेषत: उन विदेशियों के लिए जिन्होंने कभी भारतीय संस्कृति को समझा ही नही या समझकर भी समझने का प्रयास नही किया। परंतु इस क्रिया में पूरी भारतीय देव संस्कृति के दर्शन हो जाते हैं। इससे भी ज्ञात हो जाता है कि हमारे यहां राष्ट्रवाद की भावना  कितनी पवित्रता के साथ हमारे रोम रोम में समाहित रही है। यज्ञ का याज्ञिक आचमन क्रिया के माध्यम से अपने स्वामित्व के जल में से एक एक चम्मच जल लेकर उसे तीन बार में ग्रहण करता है, उसका पान करता है। शेष जल को वह ग्रहण नही करता, उसे वह तुलसी पर या पीपल पर चढ़ा देता है, अथवा गाय आदि पशुओं को पिला देता है। एक प्रकार से वह आचमन का जल उस समय याज्ञिक की धन संपदा का प्रतीक होता है। जिसे वह अपने पास रखता है। उसमें से वह अपनी जीविकोपार्जन हेतु प्रतीक के रूप में तीन चम्मच जल ग्रहण करता है, और स्वयं को तृप्त अनुभव करता है, शांत और निर्भ्रांत अनुभव करता है। शेष जल अर्थात धन को वह अन्य जीवों के लिए छोड़ देता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समूह निष्ठ (कम्युनिस्ट इसी शब्द का अपभ्रंश है, परंतु कम्युनिस्टों में हमारी समूहनिष्ठ भावना का शतांश भी नही है) होना हमारे स्वभाव में है, संस्कृति में है। समूह के प्रति निष्ठा की यह भावना ही हमारे भीतर देश धर्म, जाति और राष्ट्र के लिए कुछ करने की भावना को जन्म देती है। इस प्रकार की भावना से पवित्र अन्य कोई विचार या भावना राष्ट्र निर्माण के लिए हो ही नही सकती। ऐसी भावना से जो राष्ट्र बनेगा वह अत्यंत उच्च आदर्शों वाला राष्ट्र होगा।

जब राष्ट्र निर्माण के तत्वों का निरूपण आधुनिक राजनीति शास्त्री करते हैं तो उनमें से कोई भी राष्ट्र निर्माण के इस पवित्र तत्व का निरूपण आज तक नही कर पाया, जिसे हम आज भी नित्य प्रति यज्ञों पर दोहराते हैं। हम नित्य संकल्प लेते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है उसमें से बहुत थोड़ा हमारे लिए है शेष राष्ट्र के लिए है अन्य मतावलंबी समाज के लिए व्यक्ति से उसकी कमाई में से 10-5 प्रतिशत दान करने की बात कहते हैं परंतु हम तो 10-5 प्रतिशत अपने लिए और शेष समाज के लिए छोड़ने (इदन्नमम्) की संस्कृति में पले बढ़े हैं।

इतिहास ऐसी पवित्र भावनाओं और उच्च विचारों को पोषित करने वाली एक सरिता का नाम है। इतिहास संस्कृति का रक्षक इसीलिए  माना जाता है कि वह अपने पवित्र पृष्ठों पर संस्कृति रक्षकों को स्थान देता है। और उनके पवित्र विचारों को अपनी धरोहर और स्वामित्व की वस्तु मानकर अगली पीढ़ियों को एक विरासत के रूप में सौंपता है।

यहां संस्कृति नाशक पूजे गये

दुर्भाग्य रहा इस देश का कि यहां संस्कृति रक्षकों को इतिहास से विलुप्त कर संस्कृति नाशकों को उनके स्थान पर बैठाया गया हमें बताया गया कि अब सब कटिबद्घ होकर इन्हीं काले  देवताओं की पूजा करो। जो लोग राष्ट्र के और राष्ट्रीय भावना के शत्रु थे, उनके कार्यों से हमारे राष्ट्र का निर्माण होने की मिथ्या धारणा को यहां जन्म दिया गया। इसीलिए पूरे इतिहास में कहीं भी भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव दिखायी नही देता। इतिहास की जुबान पर ताले डालकर चाबी शत्रु लेखकों ने अपने पास रख ली।  इसीलिए आज तक हमें अपने बारे में ही जब कुछ जानने की इच्छा होती है तो इतिहास की चाबी शत्रु लेखकों से मांगनी पड़ती है। हम पर अपने ही घर में (इतिहास में) अधिक देर तक रूकने का निषेधात्मक आदेश होता है। बस, इसी भावना से हमें इतिहास पढ़ाया जाता है।

अपनी ही मृत्यु के वारण्टों पर हस्ताक्षर करने की परंपरा

हम पर आरोप लगाया जाता है अथवा कहिए कि हमारे पूर्वजों को अपयश का भागी बनाया जाता है कि वे तो इतने कायर थे कि बड़ी सहजता से उन्होंने विदेशियों के सामने हथियार फेंक दिये और मृत्यु को स्वीकार कर लिया। हम इसे स्वीकार करते हुए विदेशी इतिहास लेखकों की हां में हां मिला देते हैं।

अब तनिक बुद्घिपूर्वक विचार करें कि क्या हमारा विदेशी इतिहास लेखकों की हां में हां मिलाना न्याय संगत है? मैं कहूंगा कि कदापि नही। क्योंकि हम मुस्लिम आक्रांता ने ’मौत और इस्लाम’ में से किसी एक को स्वीकार करने का विकल्प हमें बार बार दिया, इतिहास साक्षी है कि हमने हर बार मृत्यु के विकल्प को ही गले  लगाया। दूसरे शब्दों में अपने मौत के वारण्ट पर स्वयं हस्ताक्षर किये। इसे आप गौरव कहेंगे या कायरता, इसे आप साहस कहेंगे या दुर्बलता? संसार के कितने देश हैं जिन्होंने या जिनके लोगों ने सदियों तक अपनी ही मौत के वारण्टों पर अपने आप हस्ताक्षर किये? निश्चित रूप से कोई नही। कितना रोमांच है इस भावना में, सचमुच विश्व इतिहास में ढूंढ़े नही मिलेगा। वह केवल और केवल भारत है जिसने अपनी माता (भारत माता) के प्रति हमें बलिदान देना सिखाया। इसे विदेशी हमारी कायरता कहकर अपमानित करें तो बात समझ में आ सकती है परंतु हम स्वयं भी इसे अपनी कायरता मानें तो आश्चर्य पूर्ण दुख होता है।

हमने नेता की प्रतीक्षा नही की

जब जब विदेशी आततायियों ने हम पर आक्रमण किये और हमें मतांतरण या मृत्यु में से किसी एक विकल्प को चुनने का अवसर दिया तो हमने किसी नेता की प्रतीक्षा नही की कि पहले नेता को देखें कि वह क्या करता है, तब स्वयं उसका अनुकरण कर लेंगे? हमने अपना नेतृत्व अपनी आत्मा को सौंपा और अंतरात्मा की आवाज पर मतांतरण नही अपितु मृत्यु की  इच्छा व्यक्त की। बहुत बड़ा साहस, बहुत बड़ा निर्णय, एक का निर्णय नहीं हजारों बार का निर्णय, एक बार का जौहर नही हजारों बार का (जय-हर) जौहर कितना रोमांचकारी इतिहास है, अपनी वीर हिंदू जाति का।

हो सकता है कोई नेता युद्घ क्षेत्र से भाग गया हो, पर भारत अपने धर्म क्षेत्र से नही भागा। इसीलिए उसकी हस्ती नही मिटी। मौहम्मद इकबाल ने पहली बार प्रश्न किया था कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी, यदि हम अपने अतीत का पूरी ईमानदारी से अब तक प्रक्षालन कर चुके होते तो इकबाल को अपने प्रश्न का उत्तर अब तक मिल गया होता।

पूर्व पृष्ठों पर सेल्यूक जाति का और मुल्तान के जाटों का हमने उदाहरण दिया। जब राजा युद्घ क्षेत्र में हार रहे थे तब जनता अपना नेता अपने आप बन रही थी और विदेशी आततायी को मुंहतोड़ उत्तर दे रही थी। परिणाम चाहे मृत्यु ही रहा परंतु विदेशी को ये तो बताया कि हमारा नेता राजा ही नही है, अपितु यहां हर व्यक्ति अपने आप में एक नेता हैं और समय आने पर वह उचित निर्णय लेना जानता है।

हर स्थान पर चुनौती मिली

महमूद गजनवी भारत में 1000 ई. में पहली बार आया तो वह यह भारत की तत्कालीन पश्चिमी सीमा से घुसा और समय समय पर जब  देश के भीतरी भागों में जहां जहां तक भी गया वहां वहां ही उसे चुनौती मिली। यह कम आश्चर्य की बात नही कि गजनवी जब भी भारत आया तभी यहां हजारों लाखों लोगों ने सेना में भर्ती होकर भारत माता के ऋण से उऋण होने के अपने  राष्ट्रीय कर्त्तव्यों के निर्वाह में तनिक भी चूक नही की। कभी भी ऐसा अवसर नही आया कि जब यहां के यौवन ने भयभीत होकर देश की सेना में भरती होने से ही मना कर दिया हो। विदेशी इतिहासकारों ने भी किसी एक भी ऐसे अवसर का संकेत नही दिया है। हां, यह अवश्य बताया है कि अमुक आक्रमण के समय इतने (दर्जनों में) राजाओं ने अमुक राजा को सहायता दी और विदेशी आक्रांता का विरोध किया।

इसी प्रकार की राष्ट्रीय भावना के वशीभूत होकर देश की जनता ने आज के अफगानिस्तान से लेकर ग्वालियर कालिंजर, मथुरा बुलंदशहर या उन अन्य अन्य स्थानों पर जहां जहां महमूद गया अपनी देशभक्ति और धर्म के प्रति असीम श्रद्घा का परिचय दिया। सशस्त्र विरोध भी किया गया और शस्त्र न होने पर मौन विरोध करते हुए बलिदानियों की पंक्ति में खड़े होकर अपना शीश मां के श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया। यह निरी देशभक्ति थी जिसे हमारी कायरता कहकर अपयश का भागी बनाया गया है।

सोमनाथ की लूट के साथ भी पराक्रम दिखाया गया

सोमनाथ मंदिर की लूट को गजनवी के पक्ष में इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे उसके जाते ही पाला उसी के पक्ष में हो गया था। वास्तव में ऐसा नही था। वह अपने उद्देश्य -लूट में अवश्य सफल हुआ था परंतु भारतीयों से बहुत बड़े संघर्ष के पश्चात उसे यह सफलता मिली थी। उसकी सफलता से गीत गाने से पूर्व इतिहास की उस मौन किंतु रोमांचकारी साक्षी पर विचार करना चाहिए जो केवल भारतीयों के बलिदान और देशभक्ति का परचम लहरा रही है। यद्यपि उस समय कुछ ’जयचंद’ भी सामने आए परंतु यहां उल्लेख ’जयचंद’ के कुकृत्यों पर दुख व्यक्त करने का या अपने भीतर आयी किसी अकर्मण्यता पर पश्चात्ताप करने का नही है, यहां बलिदान और देशभक्ति के भावों को श्रद्घांजलि देने का है। संपूर्ण इतिहास को ही भारत के बलिदानों का और लोगों की देशभक्ति का स्मारक बनाकर प्रस्तुत करने का है।

इतिहास का प्रमाण है कि 12 अक्टूबर 1025 को महमूद सोमनाथ की  लूट के लिए स्वदेश से निकला था और 1026 की जनवरी के दूसरे सप्ताह में वह सोमनाथ शहर में पहुंचा था। उसका उद्देश्य पूरे देशवासियों ने समझ लिया था। इसलिए उसने जैसे ही भारत की सीमाओं में प्रवेश किया लोगों ने उसका प्रतिरोध और विरोध प्रारंभ कर दिया। जिस यात्रा को वह अधिकतम 15 दिन में पूर्ण कर सकता था उसे पूर्ण करने में उसे तीन माह लगे। यह देरी भारतीयों के प्रतिरोध और विरोध के कारण ही हुई थी। प्रतिरोध और विरोध की यह भावना बता रही थी कि भारत की आत्मा कितनी सजग थी, कितनी सावधान थी और उसका धर्म कितनी सजगता से देश की अस्मिता का रक्षक बना खड़ा था?

मुल्तान हो चाहे अजमेर हो और चाहे अन्हिलवाड़ पाटन (गुजरात की राजधानी अन्हिल वाडा) या फिर बीच के ग्रामीण क्षेत्र, सभी ने राष्ट्रवेदी पर अपनी ओर से कहीं सशस्त्र तो कहीं मौन आहुति देने का साज सजाया।

अजमेर का राजा महमूद की सेना के डर से भाग गया तो प्रजा ने अपनी मौन आहुति के लिए स्वयं को आगे कर दिया। यज्ञ में मौन आहुति का बड़ा महत्व होता है। यज्ञ का ब्रहमा हमें बताता है कि मौन आहुति के समय अपने इष्ट देव प्रजापति ईश्वर का ध्यान अपने हृदय में करो। भारत में जब जब राष्ट्रदेव के लिए मौन आहुति देने का समय आया तो लोगों ने अपने  इष्ट देव -राष्ट्रदेव का ध्यान किया और अपनी आहुति दे दी। इतिहास का यह रोमांच केवल और केवल भारत में ही देखने को मिलता है।

संग्राम के वो चार दिन

1026ई. की जनवरी के दूसरे सप्ताह के बृहस्पतिवार को महमूद सोमनाथ शहर में प्रविष्ट हुआ। इसके पश्चात मंदिर के भक्तों ने बिना किसी राजा या नायक की प्रतीक्षा किये तीन दिन और तीन रात तक महमूद की सेना का सफलता पूर्वक सामना किया और उसके विशाल सैन्य दल को मंदिर में भीतर नही घुसने दिया। यदि उन मुट्ठी भर लोगों को किसी राजा की सेना की सहायता मिल गयी होती तो परिणाम दूसरा ही आता। किंतु धन्य है मां भारती का वैभव और उसकी कोख कि क्षेत्रीय जनता ने फिर बिना किसी नेता या नायक की प्रतीक्षा किये अपनी आत्मोसर्गी सेना का निर्माण किया और चल दी मंदिर की सुरक्षा के लिए।

रविवार के दिन महमूद को जब इस हिंदू सेना का पता चला कि पीछे से कोई और सेना भी आ रही है तो उसके होश उड़ गये थे। उसने आनन फानन में निर्णय लिया और अपने कुछ सैनिकों को मंदिर पर जारी युद्घ के लिए छोड़ बाहरी सेना के प्रतिरोध के लिए वह अपनी सेना के बड़े भाग के साथ शहर के बाहर आ गया। दोनों सेनाओं में जमकर संघर्ष हुआ।

महमूद के पांव उखाड़ दिये थे बिना नेता की भारतीय राष्ट्रीय सेना ने। तब उसने करो या मरो का आह्वान अपने सैनिकों से किया। राष्ट्रीय सेना ने अपना संपूर्ण बलिदान दिया। जीत महमूद की हुई। लेकिन हमारे पचास हजार बलिदानों के पश्चात। उन बलिदानों का स्मारक सोमनाथ के मंदिर के जीर्णोद्घार के बाद कहीं नही बना। आखिर क्यों?

हमने क्या किया? हमने बिना नेता के युद्घ करने के अपनी जनता के अदभुत शौर्य को शासकों के चाटुकार इतिहासकारों की दृष्टि से देखा और उनके शौर्य पर मात्र ’कुछ उपद्रवकारी’ होने का ठप्पा लगाकर आगे बढ़ गये। हमने स्मारकों को न तो पूछा कि बताओ तुम्हारी कहानी क्या है, और ना उन्हें पूजा।

शौर्य को भी हमने उपेक्षित कर दिया इससे अधिक कृतघ्नता और क्या हो सकती है? संग्राम के उन चार दिनों को हमने इतना उपेक्षित किया कि आज का हर इतिहासकार सोमनाथ के मंदिर की लूट को और महमूद की उस पर विजय को बस चुटकियों का खेल बता देता है। जबकि ढाई माह का संघर्ष था वह और उसमें भी अंतिम चार दिन तो अत्यंत रोमांचकारी थे। हमने अपने ही रोमांच के स्मारक पर न तो फूल चढ़ाए और ना ही दीप जलाए।

यह राष्ट्र के साथ छल नही तो और क्या है? वैसे वास्तव में भारत के इतिहास को स्वतंत्रता और परतंत्रता के दीये और अंधकार के संघर्ष का काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी?

क्रमश:

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