आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को मदरसों को अपनाना ही होगा
अनिल अनूप
दरअसल महाकुंभ और मदरसों की तुलना नहीं की जा सकती। महाकुंभ हमारी प्राचीन, सनातन संस्कृति, आस्था और श्रद्धा के प्रतीक हैं। ये आयोजन सिर्फ हिंदुओं तक ही सीमित नहीं हैं। महाकुंभ में तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भी पधार चुके हैं और वहां ‘बुद्ध विहार’ की स्थापना में उनका विशेष योगदान रहा है। महाकुंभ में दलित व्यक्ति को भी ‘महामंडलेश्वर’ के पद पर विभूषित किया जा चुका है और पुजारी भी नियुक्त किए गए हैं। कुंभ जाति, धर्म, वर्ण और वर्ग से काफी ऊपर के आयोजन हैं। 2019 के कुंभ में करीब 10.5 लाख विदेशियों ने भी शिरकत कर गंगा मैया में डुबकी लगाई थी। जाहिर है कि वे सभी सैलानी ‘हिंदू’ नहीं थे। महाकुंभ की कई मायनों में मदरसों के साथ तुलना नहीं की जा सकती। सिद्धांत है कि दो बराबर के विषयों, व्यक्तियों, संस्थाओं आदि में ही तुलना की जा सकती है। मदरसे विद्यालय का मुखौटा पहन कर इस्लामी और जेहादी शिक्षा के केंद्र हैं। देश में करदाताओं का पैसा सिर्फ कुरान पढ़ाने पर खर्च नहीं किया जा सकता। यदि यही व्यवस्था जारी रही, तो प्रत्येक संप्रदाय, धर्म, मत के नागरिक मांग करेंगे कि उनके पावन, धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा और शिक्षण के लिए भी सरकार आर्थिक मदद दें। क्या ऐसे सरकारी आर्थिक अनुदान बांटना संभव होगा? हमारी गंभीर आपत्ति मदरसों पर नहीं है। वे देश की आजादी से पहले भी थे और सरकारें उन्हें आर्थिक संसाधन मुहैया कराती आई हैं।
यदि वे सिर्फ आतंकवाद के अड्डे ही हैं, तो कमोबेश भारत सरकार ने मदरसों की समूची व्यवस्था बंद क्यों नहीं की? क्या वे महज वोट बैंक की खातिर ही चलते रहे? मौजू सवाल यह है कि मदरसे एक सामान्य, नियमित और मान्यता प्राप्त स्कूल का स्वरूप धारण क्यों नहीं करते? उनमें एनसीईआरटी की किताबें क्यों नहीं पढ़ाई जातीं? सभी मदरसों में कुरान के साथ-साथ अंग्रेजी, हिंदी, स्थानीय भाषा, गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी आदि विषय क्यों नहीं पढ़ाए जाते? कुछ मदरसे अपवाद हो सकते हैं। मदरसे आधुनिकीकरण को स्वीकार करें और एक मॉडल, मॉडर्न स्कूल बनने दें। सरकार से आर्थिक मदद हासिल करें, क्योंकि शिक्षा नीति के तहत वह भी आपका अधिकार है। ध्यान रहे कि प्राथमिक और बुनियादी शिक्षा 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों का मौलिक, संवैधानिक अधिकार है। देश के प्रधानमंत्री मोदी भी कई मौकों पर यह इच्छा जाहिर कर चुके हैं कि प्रत्येक बच्चे के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में लैपटॉप देखना चाहता हूं। यह कथन ही धर्मनिरपेक्षता की संपूर्ण परिभाषा है और प्रौद्योगिकी के प्रति जागृति का आह्वान भी है। मदरसों पर ऐसे आरोप क्यों लगें कि वे जेहादी और आतंकी पैदा करने के ही अड्डे हैं? इन सवालों का बुनियादी कारण है कि जब भी आतंकी पकड़े जाते हैं, तो उनकी पृष्ठभूमि मदरसों से जुड़ी मिलती है। बीते दिनों 13 संदिग्ध आतंकी पकड़े गए। सभी मदरसों में पढ़ रहे थे या पढ़ चुके थे।
बहरहाल सामान्य विद्यालय और मदरसे के बीच की असमानताएं और विसंगतियां दूर क्यों नहीं की जा सकतीं? दरअसल यह मुद्दा असम से उछला है, जहां राज्य सरकार ने फैसला किया है कि सरकारी मदद प्राप्त मदरसों को बंद किया जाएगा, क्योंकि सरकारी पैसे पर धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। राज्य सरकार संस्कृत संस्थानों का भी आकलन कर रही है। मदरसों पर अधिसूचना नवंबर माह में जारी हो जाएगी। मदरसों को सामान्य, मॉडल स्कूल बनाया जाएगा। अध्यापकों और छात्रों को उसी के मुताबिक शिफ्ट किया जाएगा। देश में असम, उप्र और पश्चिम बंगाल ही ऐसे तीन राज्य हैं, जहां मदरसों को सरकारें आर्थिक सहायता देती हैं। निजी मदरसे इस दायरे के बाहर हैं। असम के शिक्षा मंत्री हिमंत बिस्व सरमा के बयान की प्रतिक्रिया में दलित नेता उदित राज ने सवाल उठाया-तो फिर कुंभ जैसे धार्मिक कर्मकांड के आयोजन भी सरकारी पैसे से क्यों आयोजित किए जाते रहे हैं? वह आजकल कांग्रेस में हैं, लेकिन यह उनका निजी बयान था, जो बाद में ट्विटर से हटा दिया गया। अब इस विषय पर बहस छिड़ गई है कि मुसलमानों को हज के लिए सरकार करोड़ों रुपए देती है, तो महाकुंभ पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? कुंभ के दौरान करोड़ों लोग जुटते हैं, गंगा मैया के दर्शन करते हैं, उसमें डुबकी लगाते हैं। इतने जन समुदाय के लिए सुरक्षा, बिजली, पेयजल, यातायात और स्थान आदि का बंदोबस्त सरकार का ही दायित्व है। हम देशवासी नई शिक्षा नीति के दौर में हैं, लिहाजा उसी के दृष्टिकोण से सोचना चाहिए कि शिक्षा कैसे दी जा सकती है और हमारे नए स्कूलों का प्रारूप और स्तर भी कैसा होना चाहिए।