मृत्यु के भय से कभी,
लक्ष्य न छोड़ै धीर।
सतत रहे गतिशील वो,
ज्यों चट्टान में नीर ।। 244।।
सोने के पर्वत खड़े,
जिन पर भूखे गांव।
इससे तो चंदन भला,
हरले नीम स्वभाव ।। 245।।
मन में हो प्रसन्नता,
वाणी में होय मिठास।
सहयोगी पुण्यात्मा,
सबका करें विकास ।। 246।।
सच बोलै लोभी नहीं,
आए का करै मान।
दीनों पर करता दया,
है कोई संत महान ।। 247।।
बुरे कर्म से रोकता,
हितकारी में लगाय।
गुण की नित श्लाघा करे,
सच्चा मीत कहलाए ।। 248।।
चांद खिलावै कमलनि,
रवि से खिलै सरोज।
बरसावै घनश्याम जल,
हित करै साधु रोज ।। 249।।
कान की शोभा प्रवचन,
हाथ की शोभा दान।
परहित शोभा संत की,
भूलो मत पहचान ।। 250।।
फलों से लदा हुआ पेड़ हो,
जल से भरा पयोद।
नर होवै गुणवान जो,
मिलै नम्रता मोद ।। 251।।
सच्चे मित्र और पुत्र हों,
और पतिव्रर्ता नार।
पुण्यभागियों को मिलै,
सुखी रहे परिवार ।। 252।।
दान करे और चुप रहे,
पुण्य को नही जताय।
प्रभुता पाकै नम्र हो,
संत का यही स्वभाव ।। 253।।
सुख में होय उदार मन,
दुख में हो चट्टान।
करूणा का सागर बहै,
महापुरूष उसे मान ।। 254।।
सत्य अहिंसा प्रेम की,
जिसके उर में धार।
आप तरै और तार दे,
याद करै संसार ।। 255।।
मन का भूखण पवित्रता,
वाणी हितोपदेश।
संत की सज्जाशलता,
पुजता देश-विदेश ।। 256।।
शस्त्र शास्त्र में निपुण हो,
धैर्य-तर्क आधार।
यशस्वी और क्षमाशील हों,
सत्पुरूष करें उपकार ।। 257।।
भरी सभा में बोलकर,
करे जो भावविभोर।
ज्ञान में हो गंभीरता,
वह सज्जन चितचोर ।। 258।।
घुलै मिलै नित संत से,
जिज्ञासु प्रभु भाव।
जितेन्द्रिय श्रद्घावान को,
स्वत: शीश झुक जाए ।। 259।।
मृग, मीन और संतजन,
हानि नही पहुंचाय।
फिर भी या संसार में,
बैरी इनके पाय ।। 260।।
शुरूआत के मित्रता,
खल की मोटी होय।
स्वास्थ्य सिद्घि तक रहै,
दिन दिन छोटी होय।। 261।।
सज्जन से करै मित्रता,
शुरू में छोटी होय।
ज्यों-ज्यों दिन ढलता चले,
त्यों-त्यों मोटी होय ।। 262।।
कुकर्म में वृद्घि करे,
श्रेष्ठों से करे द्वेष।
ऐसे नर के संग में,
सुकून रहे नही शेष ।। 263।।
ढली जवानी में नारियां,
दिन में फीका चांद।
सन सूना बिन सरोज के,
बिना शेर की मांद ।। 264।।