मानवतावादी और पंचशील सिद्धांत को मान्यता देने वाली रही है भारत की विदेश नीति

 

भारत सात्विक चिन्तन का देश है । सात्विकता उसकी अंतश्चेतना का वह मौलिक तत्व है जो उसे व्यष्टि से समष्टि तक के प्रति समर्पित रहने के लिए प्रेरित करती है। इस सात्विकता से उद्भूत सहिष्णुता भारत का वह गुण है जो उसे सम्पूर्ण संसार का सिरमौर बनाने की क्षमता रखता है । संसार में केवल एक भारतवर्ष ही ऐसा देश है जो अपनी विदेश नीति को भी सात्विकता और सहिष्णुता के पानी से बार बार रोता है। ध्यान रहे कि भारत की सहिष्णुता किसी प्रकार की कायरता को जन्म नहीं देती । इसके विपरीत वह हर भारतवासी को और विश्व के प्रत्येक मनुष्य को इस बात के प्रति जागरूक करती है कि सहिष्णुता हमें आत्मरक्षा और दूसरे की स्वाधीनता का सम्मान कराना सिखाती है । यदि हम आत्मरक्षा करने में समर्थ हैं तो ही हमारी सहिष्णुता का कोई मूल्य है , अन्यथा वह हमारी कायरता बन जाती है। इस प्रकार भारतवासियों की सहिष्णुता मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षक है, भक्षक नहीं।

 

भारत की सात्विकता के अभिप्राय

यही कारण है कि भारत वर्ष ही संसार का एकमात्र ऐसा देश है जिसने अपनी विदेश नीति में समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुत्व के लोकतांत्रिक सिद्धांतों को अपनाने पर बल दिया है। भारत ने इन गुणों को अपनाने में ना तो किसी प्रकार का नाटक किया है और ना ही इनकी आड़ में अपने किसी पड़ोसी देश को मिटाने का कार्य किया है। भारत ने विश्व में सात्विक शान्ति का परिवेश बनाने का सात्विक भाव से ही सात्विक प्रयास किया है। सात्विकता का अभिप्राय है कि पूर्णतया मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित होकर अंतर्मन से सहृदयता, सहिष्णुता, शान्ति और सद्भाव के ऐसे प्रयास किए जाएं जिनसे मानवता मुखरित हो । संसार में व्याप्त कलह, क्लेश और कटुता के परिवेश को समाप्त कर शान्ति और समरसता का साम्राज्य स्थापित किया जाए । किसी प्रकार की दुराग्रहपूर्ण राजनीति और कूटनीति का जाल ना बिछाकर मानव मन के कोमल भावों को समादृत करते हुए सुन्दर और शान्तिपूर्ण संसार बनाने का सपना साकार किया जाए ।

भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और विश्व शान्ति

भारत ने प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति माना है । यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य के मानवाधिकारों का सम्मान करना भारत की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है । भारत की संस्कृति से ही जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जन्म हुआ है उसी से भारत की राजनीति विकसित होती है और उन ऊंचाइयों को छूती है जो भारत को अपनी विदेश नीति निर्धारित करते समय सामाजिक-आर्थिक विकास एवं राजनीतिक स्थिरता जैसे राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहित करने की शिक्षा देती है। इसका अभिप्राय है कि भारत अपने सामाजिक – आर्थिक विकास की गति को किसी भी दृष्टि से बाधित न होने देने और अपनी राजनीतिक स्थिरता को सुनिश्चित करने वाली विदेश नीति को अपनाने में ही अपने राष्ट्रीय हित और मानवमात्र का कल्याण देखता है। कहने का अभिप्राय है कि भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वैश्विक परिवेश को सुरुचिपूर्ण और शान्तिपूर्ण बनाए रखने का समाधान प्रस्तुत करता है। भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वैश्विक शान्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाने का सर्वोत्तम साधन है।
भारत प्राचीन काल से ही मानवोन्नति को अपने राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चिन्तन का आधार बनाकर चला है। यही कारण है कि उसने स्वाधीनता के पश्चात भी विभिन्न देशों के बीच शान्ति, मित्रता, सद् इच्छा एवं सहयोग को बढ़ावा देना उचित माना है। भारत का लक्ष्य है कि शान्ति, मित्रता सद-इच्छा और सहयोग को बढ़ावा देने से ही संसार सहज और सरल जीवन का आनन्द उठा सकता है।

साम्राज्यवाद और भारत की विदेश नीति

भारत की राजनीति में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को कभी स्थान नहीं दिया गया। प्राचीन काल में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब किसी आततायी राजा के अन्त के लिए हमारे राजाओं ने प्रस्थान किया और अपनी सुसज्जित सेनाओं के माध्यम से उस नरपिशाच का अन्त कर शासन वहीं के स्थानीय लोगों को सौंप दिया। रावण को मारकर रामचन्द्र जी ने उसी के भाई विभीषण को लंका सौंप दी थी। इसी प्रकार श्रीकृष्ण जी ने कंस को मारकर मथुरा का शासक उग्रसेन को बना दिया था।
आततायी और नरपिशाच शासकों या तानाशाह शासकों का अन्त करना भारत की राजनीति या राजधर्म या राष्ट्रधर्म का एक आवश्यक अंग है । ऐसा करना भारत की विदेश नीति का एक प्रशंसनीय गुण है। भारत ने अपने इसी गुण के चलते विदेशी शासकों से सैकड़ों वर्ष तक संघर्ष कर अपना मुक्ति आन्दोलन चलाया था । यही कारण है कि स्वाधीन भारत ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद एवं निरंकुश शक्तियों का प्रतिरोध करने एवं अन्य देशों के आंतरिक मामलों में विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली देशों द्वारा हस्तक्षेप न करने को अपनी विदेश नीति का एक अनिवार्य और आवश्यक अंग घोषित किया है। माना कि शीत युद्ध के समय वैश्विक मंचों पर भारत की आवाज में कोई विशेष बल नहीं होता था, परन्तु यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि भारत उस समय अपनी एक आवाज को लेकर खड़ा हुआ था। जिसे आज वह बहुत मजबूती के साथ प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में प्रस्तुत कर रहा है। आज प्रधानमंत्री मोदी के यशस्वी नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के मौलिक तत्वों को जितना ही दूसरे देश समझते जा रहे हैं, उतना ही संसार की राजनीति भारत की चेरी बनती जा रही है। देशों को यह समझ आ रहा है कि सहज, सरल और सात्विक भावनाओं के साथ बनने वाली नीति – रणनीति ही स्थायी और सरस आनन्द की अनुभूति करा सकती है।

भारत का मानवतावादी दृष्टिकोण

राजनीति को मानवता से शून्य करके देखने की पश्चिम की जिस प्रवृत्ति को विश्व ढोता आ रहा था, उस पर वर्तमान में भारत के मानवतावादी दृष्टिकोण ने रोक लगाने का काम किया है। अब लगने लगा है कि राजनीति और विदेश-नीति को भी भारत के आध्यात्मिक मानवतावाद से सराबोर किया जा सकता है। लोग अध्यात्मवाद, राजनीति, राष्ट्र-धर्म और मानवीय धर्म का अर्थ समझने लगे हैं ।उनकी समझ में यह आने लगा है कि ये सबके सब किसी एक ही सरल स्वभाव से पिरोयी गई माला के मोती हैं ।जिनका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। अपनी इसी मानवतावादी राष्ट्रवाद से प्रेरित विदेश नीति को अपनाकर भारत का प्रयास रहता है कि राष्ट्रों के बीच विवादों के शांतिपूर्ण समाधान को प्रोत्साहित किया जाये। स्पष्ट है कि भारत ऐसी नीति अपनाकर सभी देशों को यह समझाने का प्रयास करता है कि हम सब एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं , इसलिए उस परमपिता परमेश्वर के इस सुन्दर घर (गृह) पृथ्वी को हम पवित्र और शान्तिपूर्ण बनाए रखें।

नि:शस्त्रीकरण और भारत

यही कारण है कि भारत हथियारों की दौड़ को विश्व शान्ति के लिए घातक समझता है । शस्त्रीकरण की प्रक्रिया शान्ति में बाधा डालती है । अतः सात्विक परिवेश के माध्यम से नि:शस्त्रीकरण को अपनाकर सभी देश शान्ति के प्रति संकल्पित और प्रतिबद्ध हों – यह भी भारत की विदेश नीति का एक विशेष उद्देश्य है। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत नि:शस्त्रीकरण अभियान का अगवा देश रहा है।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो देश संयुक्त राष्ट्र में ‘वीटो पावर’ लेकर विशेष अधिकारों से सुसज्जित हुए बैठे हैं वह दिखावे के रूप में तो स्वयं को विश्व शान्ति का ध्वजवाहक सिद्ध करते हैं, परन्तु वास्तव में यही देश हैं जो शस्त्रीकरण की प्रक्रिया को आरम्भ कर हथियार बेचने की फैक्ट्री लगाते हैं और मोटा मुनाफा कमाकर अपनी विदेश नीति को निर्धारित करते हैं। स्पष्ट है कि इनकी विदेश नीति संसार में आग लगाने वाली है, जो नि:शस्त्रीकरण की प्रक्रिया में बाधक है। ऐसी परिस्थितियों में भारत का नि:शस्त्रीकरण अभियान एक प्रकार से ‘अग्निपरीक्षा’ से गुजरना है। क्योंकि जहां पांच – पांच देश ‘वीटो पावर’ लेकर बैठे हों, उनके बीच से नि:शस्त्रीकरण का मार्ग निकालना वर्तमान परिस्थितियों में सर्वथा असम्भव प्रतीत होता है। वास्तव में ‘वीटो पावर’ से सुसज्जित ये पांचों देश वर्तमान विश्व के ‘बिगड़े हुए तानाशाह’ हैं। जिनकी इच्छा के विपरीत संसार में पत्ता भी नहीं हिल सकता।

भारत का आदर्श और आज के विश्व नेता

भौतिकवाद के परिवेश में चुंधियायी हुई विश्व व्यवस्था में भारत के उस सात्विक परिवेश की कल्पना भी नहीं की जा सकती जिसमें राजा ऐश्वर्यों के बीच रहकर और विशेष अधिकारों से सुसज्जित होकर भी तानाशाह नहीं बन पाता था। राजा उस समय जितना ही अधिक विशेष अधिकारों से सुसज्जित होता जाता था, वह उतना ही विनम्र, सेवाभावी और प्रजावत्सल बनता जाता था ।आज वैदेही जनक की वह परम्परा कल्पना मात्र रह गई है जो राजा की गद्दी पर बैठकर भी दार्शनिक शास्त्रार्थ करवाया करता था और विश्व शान्ति के प्रति संकल्पित रहता था। इसीलिए चाणक्य ने कहा कि राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा होना चाहिए। आज के सारे विश्व नेता जिस प्रकार के ऐश्वर्यपूर्ण और भौतिकवादी परिवेश में जन्मे हैं या जिसमें रहने के वे अभ्यासी हैं, उसमें सत्ता प्राप्त कर या विशेषाधिकार प्राप्त करने के उपरान्त मद आ जाना स्वाभाविक है ।
इसके उपरान्त भी भारत यदि नि:शस्त्रीकरण के प्रयास करता रहा है या वर्तमान में कर रहा है तो यह निश्चय ही भारत की एक साहसिक पहल है।
भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी भारत की प्राचीन परम्परा का निर्वाह करने का अनूठा प्रयास कर रहे हैं, जिसके अंतर्गत राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा दिखायी देता है। विश्व मंचों पर प्रधानमंत्री भारत के पक्ष को बड़ी मजबूती से रख रहे हैं और भारत के मानवतावादी राष्ट्रवाद को विश्व राजनीति का एक अनिवार्य और अविभाज्य अंग बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल कर रहे हैं।
अपने इसी दृष्टिकोण को प्रकट करते हुए भारत ने स्वाधीनता के पश्चात पहले दिन से ही मानवाधिकारों का सम्मान करना एवं जाति, प्रजाति, रंग, नस्ल, धर्म इत्यादि पर आधारित संसार में व्याप्त भेदभाव एवं असमानताओं का विरोध करना भी अपनी विदेश नीति का एक आवश्यक अंग घोषित किया।

पंचशील सिद्धांत और भारत – चीन

वर्ष 1954 में भारत के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू एवं चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई के मध्य तिब्बत की संधि के समय शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर सहमति हुई थी। इसे इतिहास में ‘पंचशील सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है। पंचशील सिद्धांत के अनुसार दोनों देश इस बात पर सहमत हुए थे कि वे एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता एवं सम्प्रभुता का पारस्परिक सम्मान करेंगे। एक-दूसरे के आंतरिक विषयों में किसी प्रकार से भी कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। समानता के आधार पर एक दूसरे का सहयोग करेंगे और पारस्परिक लाभ लेते देते हुए अपनी विदेश नीति का निर्धारण करेंगे । दोनों देशों ने साथ रहकर और साथ मिलकर चलने का संकल्प लेते हुए इस बात के प्रति भी वचनबद्धता प्रकट की कि वे दोनों शांतिपूर्ण सह- अस्तित्व की भावना में विश्वास रखते हैं ।
पंचशील सिद्धांत की इस पवित्र भावना से उत्कृष्ट कोई अन्य भावना नहीं हो सकती ,जो विश्व शांति के लिए दो देशों को संकल्पित और प्रतिबद्ध करती हो। यद्यपि चीन ने वचनबद्धता पंचशील के प्रति व्यक्त की परंतु व्यवहार में उसने ऐसा नहीं किया। उसने अपनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति का परिचय देते हुए 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार पंचशील के जिस समझौते में चीन ने शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति वचनबद्धता प्रकट की थी, उसे स्वयं ही तार-तार कर दिया।

गुटनिरपेक्षता और विश्व राजनीति

भारत ने स्वाधीनता के पश्चात जिस गुटनिरपेक्षता के विचार को पकड़कर अपनी विदेश नीति को निर्धारित किया, उसके हम अधिक समर्थक नहीं हैं । यद्यपि इतना तो कहना पड़ेगा कि भारत ने दो गुटों में विभाजित विश्व को उस समय एक ऐसा संदेश देने में अवश्य सफलता प्राप्त की जो गुटीय राजनीति और छल -कपट से अपने आपको अलग रखना चाहता था । जहाँ यह सत्य है वहीं यह भी सत्य है कि गुटनिरपेक्ष देशों को अमेरिका और रूस की दादागिरी के चलते विश्व मंचों पर कभी विशेष सम्मान प्राप्त नहीं हो पाया।
गुटनिरपेक्ष शक्तियों की पहला सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में आयोजित किया गया था। जिसमें 36 भूमध्यसागरीय देशों और एफ्रो एशियाई देशों ने भाग लिया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने इसमें गुटनिरपेक्षता को स्पष्ट किया । जिसमें उन्होंने बताया कि यह विश्व के अत्यधिक शक्तिशाली शक्ति गुटों के साथ न जुड़ने की नीति है। यह शांतिपूर्ण सौहार्द बढ़ाने की पक्षधारिता की नीति है। जो किसी भी स्थिति परिस्थिति में संसार में गुटीय राजनीति को उचित नहीं मानती । नेहरू का विचार था कि गुटनिरपेक्ष देश गुटों में विभाजित देशों को ‘एक’ करने और किसी ऐसी सहमति पर लाने का प्रयास करेंगे जो विश्व शान्ति के लिए उपयुक्त और आवश्यक हो । अपने इसी प्रकार के विचारों को क्रियान्वित करते हुए नेहरु जी ने भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनी विदेश नीति का मुख्य आधार बनाया।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

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