प्रवीण गुगनानी
विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक व विचारक प्लेटो के शिष्य रहे हैं अरस्तू। अरस्तू सिकंदर के गुरु भी रहे हैं। अरस्तू का प्रसिद्ध ग्रंथ है “पालिटिक्स”। पालिटिक्स मे अरस्तू ने कहा है – प्रत्येक क्रांति रक्तपात से हो यह आवश्यक नहीं। अरस्तू ने आगे कहा, संविधान में होने वाला छोटा बड़ा परिवर्तन, संविधान में किसी प्रकार का संशोधन होना, जनतंत्र का उग्र या उदार रूप धारण करना, जनतंत्र द्वारा धनिकतंत्र का या धनिक तंत्र द्वारा जनतंत्र का विनाश किया जाना ये सब क्रांति ही है। संविधान में पूर्ण परिवर्तन के फलस्वरूप राज्य का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप पूर्ण रूप से बदल जाता है, इसे हम पूर्ण क्रांति कह सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इस प्रकार के परिवर्तन के लिए रक्त पात किया जाये। अरस्तु संविधान में परिवर्तन को ही क्रांति मानते हैं और संविधान में परिवर्तन रक्तहीन उपायों द्वारा भी हो सकते हैं। अरस्तू की क्रांति की अवधारणा मे मैं जो एक बात और जोड़ देता हूँ, वह है नागरिकों की विचार प्रक्रिया या मानसिकता मे बदलाव। जब कोई संगठन अपने देश के नागरिकों की सोच मे से, विचार मे से आयातित तत्व व पराधीनता के हीनभाव को निकालकर मन-मानस मे स्वाभिमान को प्रभावित कर दे तो उसे भी क्रांति ही कहते हैं। सौ वर्षों की सतत यात्रा के दौरान हाल ही के लगभग दो दशकों मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने यह क्रांति की है। विश्व मे जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं उनमे अनिवार्यतः सामने एक व्यक्ति रहा है जो बाद मे नायक या शासक बनता है किंतु आरएसएस द्वारा चलाई गई इस वैचारिक क्रांति मे कोई चेहरा या व्यक्ति नहीं है। इसमे विचार ही नायक है जो क्रांतिजनित परिवर्तन मे शासक नहीं बल्कि सेवक की भूमिका मे रहता है।
पिछले दिनों मुंबई की एक बड़ी प्रतिष्ठित व प्रसिद्ध पत्रिका “विवेक” को संघप्रमुख मोहनराव जी भागवत ने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार मे संघ के सरसंघचालक ने जो कहा वह कोई सामान्य बाते नहीं हैं, वह हमारे राष्ट्र के भविष्य का रोडमैप है। संघ की वैचारिक क्रांति की युवावस्था आते आते संघप्रमुख ने इस इंटरव्यू मे जो बाते कही हैं उनके शाब्दिक व ध्वन्यात्मक अर्थ दोनों ही अर्थों मे यह हमारी वर्तमान व आने वाली पीढ़ी हेतु एक पूंजी व पाथेय है। इस इंटरव्यू मे संघप्रमुख ने आंदोलन व क्रांति जैसे शब्दों के स्थान पर “हृदय परिवर्तन” जैसे शब्दों का प्रयोग करके “संघ के राष्ट्रीय रोडमैप के अंतर्तत्व” को कई उदाहरणों के साथ रखा है; अतः, आवश्यक रूप से यह संघ के आलोचकों व प्रशंसकों दोनों हेतु समान रूप से पठनीय भी है।
पूरा विश्व आज जब श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन का प्रणेता संघ को मानता है तब इस साक्षात्कार मे संघप्रमुख बड़ी सादगी किंतु स्पष्टता से सफलतम मंदिर आंदोलन का श्रेय लेने से पीछे हटते हैं व यह बताते हैं कि हम आंदोलन नहीं करते। जन्मभूमि आंदोलन तो समाजजनित है व भारतीय समाज इसे दीर्घ समय से चलाता आ रहा था। इस प्रकार अरस्तू से आगे जाते हुये मोहनराव जी भागवत बताते हैं कि क्रांति केवल संगठन या व्यक्ति से कभी हो ही नहीं सकती, क्रांति के मूल तत्व मे उस भूभाग विशेष का जो देशज तत्व होगा मूलतः वही क्रांति का ईंधन होगा और उसे ही क्रांति का नायक माना जाना चाहिए किसी व्यक्ति या संगठन को नहीं। राममंदिर के विषय मे वे स्पष्ट कहते हैं कि पूजा पाठ हेतु हमारे पास कई मंदिर हैं, हम तो राष्ट्रीय प्रतीक की स्थापना व भारतीय समाज के स्वाभिमान का जागरण इस मंदिर के माध्यम से कर रहे हैं। उन्होने मंदिर निर्माण काल मे प्रत्येक भारतीय को मन मे अयोध्या का निर्माण कर ह्रदय मे श्रीराम की स्थापना का आग्रह भी किया और मनुस्मृति जैसे विषयों का भी स्पर्श किया। हिंदू स्मृतियों के काल-दर-काल लिखें जाने, उनके परिशोधन, परिष्करण, संशोधन का भी विनम्र आग्रह उन्होने पूज्य धर्माचार्यों से किया है। रसखान के कृष्णकाव्य, शेख मोहम्मद की विट्ठल भक्ति व पाल ब्रन्टन के हिंदुत्व की चर्चा करते हुये संघप्रमुख ने भारतीय समाज के, अपने मे सभी को समा लेने के गुण का अद्भुत उल्लेख किया है।
भागवत जी ने भारत पर विदेशी आक्रमण व उसके बाद के काल मे विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा मूल भारतीय समाज के साथ की गई दुर्दांत व राक्षसी मारकाट का भी स्मरण किया और विभाजन का भी बड़ा बेबाक व दो टूक स्मरण किया। विदेशी आक्रमणकारियों विशेषतः मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा की गई लूट, हत्याओं, मारकाट व संस्कृति विध्वंस के बाद भी हिंदू समाज द्वारा उन्हें सतत अपनाए जाने के इतिहास के इतिहास को भी उन्होने बड़ी पीड़ा किंतु सौहाद्र के साथ स्मरण किया। विभाजन के बाद जनसंख्या की पूर्ण अदला बदली के अंबेडकर जी के पक्ष की बात भी आपने बेबाक व दो टूक रखी। इतिहास के इन सब काले स्याह पन्नों के बाद भी ईसाई व मुस्लिम समाज को भारत मे मिल रहे समान अधिकारों के साथ साथ कुछ अतिरिक्त मिल रहे अधिकारों की भी चर्चा की गई। सरसंघचालकजी ने कहा कि आज विश्व मे सर्वाधिक सुरक्षित मुसलमान भारत मे ही है और यह भारत की सनातन संस्कृति के विचार से ही संभव हुआ है। वस्तुतः संघप्रमुख “ह्रदय परिवर्तन” के मूल भाव को ह्रदयस्थ करके आगे बढ़ने का संदेश देते दिखे व कहा कि – ह्रदय परिवर्तन होना चाहिए व यह सोचना चाहिए कि, हमारे पूर्वज कौन थे, उस नाते से हमारे परस्पर संबंध क्या हैं? इस रिश्ते-नाते को रेखांकित करते हुये उन्होने भारतीय व अरबी मुसलमानों के मध्य के कई अंतरो व विरोधाभासों को रेखांकित किया। मोहनराव जी ने कहा कि यदि उन विदेशी मुसलमानों व भारतीय मुसलमानों के मध्य के इस बड़े अंतर को समझा जाये व भारतभूमि के प्रति उस अनूरूप दृष्टिकोण मे परिवर्तन मात्र ले आया जाये तो न जाने कितनी समस्याएँ चुटकी बजाते फुर्र हो जाएंगी। हिंदू को सबल, स्वाभिमानी व सुदृढ़ होना चाहिए, यह तो केंद्रीय भाव तो सदा का है ही, इसके लिए उन्होने इतिहास के समुचित, सटीक व सच्चे लेखन व उसके पढ़े जाने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
एक सुंदर बात यह भी कही कि “आत्मनिर्भर भारत” केवल एक आर्थिक व राजनैतिक शब्द नहीं है यह एक सांस्कृतिक शब्द भी है। सनातनी रीति से जड़ व चेतना का “एकात्म व समग्र चिंतन” करना व पश्चिम के खंडित चिंतन को त्यागना यह भी आत्मनिर्भरता का एक बड़ा आयाम है। ये समग्र चिंतन ही है जो समूचे मनुष्यत्व का चिंतन एक साथ करता है स्त्री व पुरुष का अलग अलग खंडित चिंतन नहीं। जड़ व चेतन का अर्थात भौतिक व आत्मा व शरीर का समग्र चिंतन ही हमें आत्मनिर्भरता की ओर ले जा सकता है। हमारा यह समग्र चिंतन समस्त क्षेत्रों मे लागू होता था। वैश्विक अर्थव्यवस्था मे हम सदियों तक अग्रणी व नियंत्रक की भूमिका रही है व हम विश्व के सर्वाधिक बड़े निर्यातक रहें हैं तो इतने बड़े उत्पादन के बाद भी हमारी पर्यावरण स्थिति सदैव संतुलित केवल इसलिए रह पाई क्योंकि हम समग्र चिंतन के स्वभाव को उस समय तक अपनाए रहे थे।
शिक्षा मे धर्म का स्थान होना चाहिए इस बात की भी बड़ी सुंदर परिभाषा सामने आई। धर्म यानि संप्रदाय, पूजा नहीं अपितु नागरिक अनुशासन, नागरिक कर्तव्य यानि मातृभूमि का पुत्र बनने का भाव यह संदेश बड़ी मुखरता से उभरा है इस साक्षात्कार मे। शिक्षा नीति अब भी अपूर्ण है और वह तब ही पूर्ण होगी जब उसमें “समाज प्रवाहित धर्म व धर्म प्रवाहित समाज” का संपुट दिया जाएगा।
संघप्रमुख ने कोरोना कालखंड मे भारतीय चिंतन के प्रतीक चाणक्य की अर्थनीति का मात्र एक श्लोक भी दोहराया जो हमें तमस से प्रकाश की ओर ले जा सकता है व हमें विश्व मे अग्रणी कर सकता है। युवा भारत का विचार क्या है, युवा शक्ति क्या करे, किस प्रकार करे, उसका दिशाभ्रम कैसे समाप्त हो; इन सब बातों का व्यापक चिंतन तो किया ही गया है, उस चिंतन को सहज, सुबोध व सरल उत्तर तक भी पहुंचाया है संघप्रमुख ने अपने इस साक्षात्कार मे। हम शक्तिशाली थे पर किसी पर आक्रमण नहीं किया, किसी को हड़पा नहीं; हाँ हमने ह्रदय अवश्य जीते हैं, और यही विश्वविजय का “सदा विवेकानंदा मार्ग” है। ज्ञानाय, दानाय च रक्षणाय के माध्यम से हम विश्व भर मे समृद्ध हों, शक्तिशाली हो, सबल हों, स्वस्थ हों किंतु इस शक्ति से हमें केवल ज्ञान पताका लहरानी है, साम्राज्य पताका नहीं! हमने उपनिवेश नहीं बनाने किंतु भारतीय ज्ञान का व्यापक निवेश हमें समूचे विश्व मे करना है व विश्वगुरु बनना हमारा लक्ष्य है। आज “जियो और जीने दो” का हमारा चिरंतन चिंतन पूरे विश्व को भारत की ओर देखने को विवश कर रहा है।
इस प्रकार कितनी ही बातें, कितने ही सूक्त, कितने ही सूत्र, कितने ही मंत्र, कितने ही तंत्र और कितनी ही नीतियां इस साक्षात्कार मे हुई चर्चा मे अनायास ही सामने आईं है। इस साक्षात्कार को पढ़ो तो लगता है कि हम किसी लघु कुरुक्षेत्र मे खड़ें हैं व सरसंघचालक जी मे श्रीकृष्ण का कोई अंश समा गया है। सावधान! इसे प्रशंसा या व्यक्ति पूजा न मानें!! दिग्भ्रम के आज के इस महायुग मे श्रीकृष्ण स्वयं लालायित हैं एक और गीता कहने को। सार यह कि, यह तो प्रारंभ मात्र है, संघ शक्ति कलियुगे का। इस कलियुग मे संघ शक्ति ही रामराज उपजाएगी।