सुभाष कश्यप
भारत की राजनीतिक व्यस्था को, या सरकार जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है। ग्राम-पंचायतें हमारे जन-जीवन का अभिन्न अंग रही है। पुराने समय में गांवो की पंचायत चुनाव से गठित की जाती थी। उसे न्याय और व्यवस्था, दोनों ही क्षेत्रों में खूब? अधिकार मिले हुए थे। पंचायतों के सदस्यों का राजदरबार में बड़ा आदर होता था। यही पंचायतें भूमि का बंटवारा करती थीं। कर वसूल करती थीं। गांव की ओर से सरकारकर का हिस्सा देती थीं। कहीं कहीं कई ग्राम-पंचायतों के ऊपर एक बड़ी पंचायत भी होती थी। यह उन पर निगरानी और नियंत्रण रखती थी। कुछ पुराने शिलालेख यह भी बताते हैं कि ग्राम-पंचायतों के सदस्य किस प्रकार चुने जाते थे। सदस्य बनने के लिए जरूरी गुणों और चुनावों में महिलाओं की भागीदारी के नियम भी इस पर लिखे थे। अच्छा आचरण न करने पर अथवा राजकीय धन का ठीक ठीक हिसाब न पाने पर कोई भी सदस्य पद से हटाया जा सकता था। पदों पर किसी भी सदस्य का कोई निकट-संबंधी नियुक्त नहीं किया जा सकता था। मध्य युग में आकर संसद सभा और समिति जैसी संस्थाएं गायब हो गईं। ऊपर के स्तर पर लोकतंत्रात्?मक संस्थाओं का विकास रूक गया। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। हम विदेशी शासन की गुलामी में भी जकड़े रहे। सिंध से असम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पंचायत संस्थाएं बराबर चलती रहीं। ये प्रादेशिक जनपद परिषद् नगर परिषद, पौर सभा, ग्राम सभा, ग्राम संघ जैसे अलग नामों से पुकारी जाती रहीं। सच में ये पंचायतें ही गांवों की ‘संसद’ थीं। सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी।
1857 की आजादी के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उदघाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्णपरिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। कांग्रेस ने शुरू से ही अपने सार्वजनिक जीवन का मुख्य आधार यह बनाया कि देश में धीरे धीरे प्रतिनिधि संस्थाएं बनें। कांग्रेस का विचार था कौंसिल में सुधार से ही दूसरी सभी व्यवस्थाओं में सुधार हो सकता है। ब्रिटिश संसद ने ‘विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्तव में प्रतिनिधित्व देने’ के लिए इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम 1892 को स्वीकार किया। इसे कांग्रेस की विजय माना गया। कांग्रेस ने जो सतत अभियान चलाया उसके कारण इस अधिनियम में कई सुधार हुए। 1919 में सुधार अधिनियम और उसके अधीन कई नियम बनाए गए। जिनके कारण केंद्र में, भारतीय विधान परिषद के स्?थान पर द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया। जिसमें एक थी राज्?य परिषद और दूसरा थी विधान सभा। प्रत्येक सदन में अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता था। पहली विधान सभा वर्ष 1921 में गठित हुई थी। उसके कुल 145 सदस्?य थे। 104 निर्वाचित, 26 सरकारी सदस्?य और 15 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य। पहली बार विधान बनाने में और सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में जन-प्रतिनिधियों की आवाज सुनी गई। इसने देश के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने में भी महान भूमिका अदा की। 1923 में, देशबंधु चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी बनाई। इसकी नीति थी कि चुनाव लड़ें और व्यवस्था को बदलें। वे सोचते थे कि ‘शत्रु के कैंप’ में घुसकर व्यवस्था को तोड़ने के लिए परिषदों में स्थान बनाया जाए।
स्वराज पार्टी को 1923 के चुनावों में बहुत सफलता मिली। स्वराज पार्टी ने 145 स्थानों में से 45 स्थान जीते। पार्टी केंद्रीय विधानमंडल मेंथा। केंद्रीय विधान सभा के नए चुनाव, 1915 के आखिरी तीन महीनों में हुए। कांग्रेस ने वह चुनाव 1942 के अपने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को लेकर लड़े। चुनावों में कांग्रेस को 102 में से 56 सीटें मिलीं। कांग्रेस विधायक दल के नेता शरत चन्द्र बोस थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अधीन कुछ परिवर्तन हुए। 1935 के अधिनियम के वे उपबंध काम के नहीं रह गए जिनके तहत गवर्नर-जनरल या गवर्नर अपने विवेकाधिकार के अनुसार अथवा अपने व्यक्तिगत विचार के अनुसार कार्य कर सकता था।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 में भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न निकाय घोषित किया गया। 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को उस सभा ने देश का शासन चलाने की पूर्ण शक्तियां ग्रहण कर लीं। अधिनियम की धारा 8 के द्वारा संविधान सभा को पूर्ण विधायी शक्ति प्राप्त हो गई। किंतु साथ ही यह अनुभव किया गया कि संविधान सभा के संविधान-निर्माण के कार्य तथा विधानमंडल के रूप में इसके साधारण कार्य में भेद बनाए रखना जरूरी होगा।
संविधान सभा (विधायी) की एक अलग निकाय के रूप में पहली बैठक 17 नवंबर 1947 को हुई। इसके अध्यक्ष सभा के प्रधान डा0 राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान अध्यक्ष पद के लिए केवल श्री जी.वी. मावलंकर का एक ही नाम प्राप्त हुआ था। इसलिए उन्हें विधिवत चुना हुआ घोषित किया गया। 14 नवंबर 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रारूप समिति के सभापति बी.आर. आम्बेडकर ने पेश किया। प्रस्ताव के पक्ष में बहुमत था। 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत के गणराज्य का संविधान लागू हो गया। इसके कारण आधुनिक संस्थागत ढांचे और उसकी अन्य सब शाखा-प्रशाखाओं सहित पूर्ण संसदीय प्रणाली स्थापित हो गई। संविधान सभा भारत की अस्थायी संसद बन गई। वयस्क मताधिकार के आधार पर पहले आम चुनावों के बाद नएसंविधान के उपबंधों के अनुसार संसद का गठन होने तक इसी प्रकार कार्य करती रही। नए संविधान के तहत पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए। पहली चुनी हुई संसद जिसके दो सदन थे, राज्यसभा और लोकसभा मई, 1952 में बनी; दूसरी लोक सभा मई, 1957 में बनी; तीसरी अप्रैल, 1962 में; चौथी मार्च, 1967 में; पांचवी माच, 1971 में; छठी मार्च, 1977 में; सातवीं जनवरी, 1980 में; आठवीं जनवरी, 1985 में; नवीं दिसंबर, 1989 में, दसवीं जून, 1991 और ग्?यारहवीं 1996 में बनी। 1952 में पहली बार गठित राज्यसभा एक निरंतर रहने वाला, स्थायी सदन है। जिसका कभी विघटन नहीं होता। हर दो वर्ष इसके एक-तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं।
संसद की भूमिका
भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। इसी माध्यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्यक्ति मिलती है। संसद ही इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है, जनमत सर्वोपरि है।
‘संसदीय’ शब्द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहां सर्वोच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद कहते हैं। भारत के संविधान के अधीन संघीय विधानमंडल को ‘संसद’ कहा जाता है। यह वह धुरी है, जो देश के शासन की नींव है। भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों—राज्यसभा और लोकसभा—से मिलकर बनती है।
राष्ट्रपति वैसे तो भारत का राष्ट्रपति संसद का अंग होता है। फिर भी वह दोनों में से किसी भी सदन में न बैठता है न ही उसकी चर्चाओं में भाग लेता है। राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। दोनों सदनों द्वारा पास किया गया कोई विधेयक तभी कानून बन सकता है जब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति प्रदान कर दे। इतना ही नहीं, जब संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन न चल रहा हो और राष्ट्रपति को महसूस हो कि इन परिस्थितियों में तुरंत कार्यवाही जरूरी है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है। इस अध्यादेश की शक्ति एवं प्रभाव वही होता है जो संसद द्वारा पास की गई विधि का होता है। लोकसभा के लिए प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात अधिवेशन के शुरू में और हर साल के पहले अधिवेशन के प्रारंभ में राष्ट्रपति एक साथ संसद के दोनों सदनों के सामने अभिभाषण करता है। वह सदनों की बैठक बुलाने के कारणों की संसद को सूचना देता है। इसके अलावा वह संसद के किसी एक सदन अथवा एक साथ दोनों के समक्ष अभिभाषण कर सकता है। इसके लिए वह सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है।
उसे संसद में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश किसी भी सदन को भेजने का अधिकार है। जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस संदेश में लिखे विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करता है। कुछ प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश प्राप्त करने के बाद ही पेश किए जा सकते हैं अथवा उन पर आगे कोई कार्यवाही की जा सकती है।