रमाकांत पांडे
‘सर हिंद की दीवार’ जिसमें गुरूगोविंद सिंह के दो सुकुमार पुत्र बलात चुन दिये गये थे, उसके पार्श्व में बैठा एक दरवेश रो रहा था, बड़े बड़े आंसुओं में जार जार उसका स्मश्रु अश्रुओं से भीग चला था।
काले कपड़ों और नंगे आये उसे बहुत देर हो गयी। उसकी रूलाई शांत न हो रही थी, अब वहां लोग एकत्र होने लगे, पहले आस पड़ोस के बच्चे, फिर महिलाएं और बाद में पुरूष।
सभी उससे रोने का कारण पूछते किंतु कुछ पूछे जाने पर वह और तेजी से रो पड़ता लोग अटकलें लगाते, कोई कहता बच्चों का कोई संबंधी होगा, तो दूसरा कहता यह तो साधु संत लगता है, तो तीसरा बोल पड़ता दरवेश है यह। कोई कहता रोने दो, अपने से क्या, तो कोई कह उठता आखिर कारण तो इसे बताना ही चाहिए।
शनै: शनै सरकारी कठमुल्ले, चापलूस, पिट्टू और ओहदेदार एकत्र हो गये। अच्छी खासी भीड़ लग गयी, घंटों व्यतीत हो गये किंतु अब भी वह रो रहा था। धीरे धीरे बात नौवाब के दरबार तक पहुंची। उन्होंने अपने फौजदार को भेजकर कारण जानने की इच्छा व्यक्त की।
फौजदार ने आकर कुछ भीड़ को पीछे हटाया और पूछा आप क्यों रो रहे हैं?
साधु कुछ शांत बोला जहां पनाह हुजूरे आलम ने उस काफिर गोविंद के बच्चे तो दीवार में चुनवा दिये परंतु उसके मारने का कोई बंदोबस्त नही किया, वह इस्लाम का कट्टर दुश्मन हैं।
वह तो मार दिया गया। फौजदार बोला।
क्या अजब बात है आपकी, वह तो इस दीवार को तुड़वाने की फिराक में घोड़े पर चढ़ा घूम रहा है। मेरा घर उसी ने लुटवाकर, मेरे बच्चों को जमींदोज कर दिया, मैं दर दर भटक रहा हूं।
अब आप बेफिक्र हो जाएं, फौजदार बोला, जिन्होंने उसके बच्चों को पकड़ा था, जिसने दीवार जोड़ी वे सभी बीबी बच्चों के साथ यहीं हैं, हम सब मिलकर तुम्हारी हिफाजत करेंगे। साधु ने चारों ओर देखा, अपनी दाढ़ी सहलाई, सिर पर दोनों हाथ फेरे और हंस पड़ा।
उसके हंसते ही बस्ती में यत्र तत्र छिपे उसके साथी दौड़ आये और उस भीड़ को चारों ओर से घेर लिया, साधु ने काला चोगा उतार फेंका और तलवार खींच ली। भीड़ में उपस्थित सभी लोग खाली हाथ थे, सब से पहले उसने एक ही बार में फौजदार का सिर काट गिराया, भगदड़ मच गयी किंतु सभी चारों ओर से घिरे थे, अत: वहां जितने भी लोग थे सभी को काट फेंका गया।
साधु के साथियो ने जयघोष किया, बोलो बंदा बैरागी की जय। किंतु वहां कोई शेष बचा ही न था। अत: वह जयघोष बस्ती की दीवारों से टकराकर फिर वापस आई। अब बंदाा सिंह बहादुर वीरबंदा बैरागी था।
जब तक सरकारी सशस्त्र सेना आई तब तक वे देशभक्त वहां से जा चुके थे। नवाब ने सुना और अपनी दाड़ी नोंचकर रह गया। अविचल नगर से थोड़ी दूर हटकर गोदावरी की कतार में एक सघन वृक्षावलियों की गुफा थी, जिसके चतुर्दिक कण्टक लताएं बिखरी पड़ी थीं, यहीं इसी दुर्गम स्थान पर बैठे हुए वीरबंदा बैरागी जी अपने चालीस सहयोगियों से कह रहे थे, भाईयों गुरूजी गये, उनका परिवार गया और साथ ही गुरू भाई भी चले गये। खालसा पंथ के विश्वसनीय पथिक पक्षियों के शत्रुबाज के भय से भयाक्रांत हो इधर उधर जहां सुरक्षा समझी भागकर छिप रहे, शत्रु प्रबल ही नही वरन महा भयानक है। अपनी शक्ति विश्रंखलित हो चली है।
किंतु भाईयों, निर्बलता की ओट बैठ, मन की कायरता का आश्रय ले लो व्यक्ति आतताईयों से प्रतिशोध चुकाने में अपने को असमर्थ पाता है, वह देश, जाति और धर्म का परम शत्रु है।
हमें अभी फरूखसियर से प्रतिशोध चुकाना है, तब तक चुन चुनकर गुरूपुत्रों पर किये अत्याचारों का बदला न लिया गया, तब तक हमें शांति नही, यह सत्य है कि हम संख्या में उनसे बहुत कम है किंतु साहस सफलता का श्रेय होता है, हमें मृत्युपर्यन्त युद्घरत रहना है, बोलो मेरे साथ मृत्यु को वक्षसात करने को कौन कौन कटिबद्घ है?
वीर बंदा की बात सुन, उनके सभी साथियो के स्कंध स्फरित हो उठे, सभी एक स्वर से बोले, हम सभी तैयार है आप आदेश दें। तो कटिबद्घ हो जाओ, वीरबंदा ने कहा, सुना है आज नौवाब अपनी सेना के साथ अविचल नगर आ रहा है, शाम तक उसकी सेना गोदावरी के उस पार तक आकर डेरा डाल देगी।
और गुरूदेव वही प्रतिशोध का उपयुक्त समय होगा, जब सेना पड़ाव में सो रही होगी। एक सहयोगी बोल पड़ा।
ठीक कहते हो, बंधु वीरबंदा ने कहा, किंतु एक समस्या है।
वह क्या?
मेरे पुत्र की सुरक्षा का भार कौन लेता है, क्योंकि हम सबको वहां से सुरक्षित लौटना संभव नहीं।
उसे लेकर मैं चमकेार की ओर चला जाउंगा, बांकावीर ने कहा। फिर मैं निश्चित हुआ बंधु, चलो तैयार हो जाओ।
बांकावीर, वीरबंदा के पुत्र को लेकर अविचल नगर की ओर प्रस्थित हो गया, शेष उनतालीस खालसा योद्घा शस्त्रास्त्रों से सजकर दिन में ही गोदावरी पार कर यत्र तत्र छिपकर नवाब की सेना की प्रतीक्षा करने लगे।
प्राण भय अथवा पद का लोभ दोनेां ही प्राणघातक रोग की भांति अपना और अपनी जन्मभूमि का अहित कर डालते हैं। बांकावीर बैरागीजी के पुत्र को लेकर चमकोर की ओर न जाकर सरहिंद की ओर चल पड़ा। जो नवाब की सेना से मिलते ही बंदी बना लिया गया।
संभवत: नवाब ने पहले से ही उसे अपनी ओर मिला लिया था।
संध्या के पूर्व ही नवाब की सेना ने अविचल नगर के दुर्ग को घेर लिया, वह स्वयं अपने दोनों पुत्रों के साथ हाथी पर सवार था, उसके अंग रक्षक अश्वारूढ़ थे। उस रात भर अविचल नगर में जनवा, लूट और अग्निकाण्ड होते रहे, किंतु शत्रु सेना कोई कोई प्रतिरोधी दृष्टिïगत न हुआ।
प्रात: के पूर्व जब उषा अपने आंचल में टिमटिमाते तारों को समेट समेट कर भर रही थी और नवाब विजयोल्लास से बिफरता हुआ सरहिंद की ओर लौट रहा था। तभी क्रांति-क्रेताओं का दल उनकी सेना पर टूट पड़ा, शत्रु के सैनिक मुण्डविहीन हो धरती पर पट चले, वीरबंदा ने अपने अश्व को ऐड़ लगाई, वह नवाब के हाथी के पार्श्व में जा पहुंचा।
वीरबंदा ने हाथी पर कसी अम्बारी के रस्से काट दिये, और क्षण पीछे, हौदे समेत सवार भूमि में आ गिरे।
वीरबंदा बैरागी ने हौदे में दबे उसके पुत्रों को काट फेंका वह नवाब की ओर बढ़ा ही था कि उसके सशक्त अंगरक्षकों ने उसे दबोच लिया। अब वह विवश था। उसके साथी कितने बचे कौन जाने।
वीर बंदा बैरागी को लौकर बंदी घर में कसकर बांध दिया गया, बौखलाया नवाब अपने पुत्रों का प्रतिशोध अपनी दृष्टिï के समक्ष लेना चाहता था।
वीरबंदा बैरागी के साथियों के सिर बड़े बड़े भालों में छेद कर कत्लगाह में रख दिये गये, फर्रूखसियर स्वयं द्वार पर आ बैठा, उसकी मुखाकृति से क्रोध की ज्वालाएं निकल रही थीं, जल्लाद अन्याय अमानुषिक यातनाओं को सरअंजाम देने में व्यस्त थे। वीर बंदा बैरागी के दुग्धपोष्य शिशु को भाले में छेदकर द्वार पर खड़ा कर दिया वह सर्प के मुख में मेंढक सा तड़प रहा था।
आज्ञा पाते ही वीर बंदा बैरागी को जंजीरों से कसे हुए प्रहरी कत्लगाह में ले आये, जिसे देख फर्रूखसियर बर्बस हंस पड़ा, बोला, कहो अब।
शरीर को कस देने से आत्मा नही बंधती, वीर बंदा बैरागी उठा कर हंस पड़ा। मैं शरीर नही आत्मा हूं।
चलो अब भी कुछ बिगड़ा नही, नवाब बोला, तुम इस्लाम कुबूल कर लो हम तुम्हारी जान बख्श देंगे। और जागीर भी देंगे।
फिर वही प्रलोभन? बैरागी हंसा, उसने कहा, नापो उस देशद्रोही बांका वीर की जागीरें नापो, कितनी जागीरें दोगे सबको? तुम विदेशी आक्रांता हो, तुम्हें मात्र यहां की बादशाहत और जर से प्रेम है, यहां की माटी से नहीं।
और मुझे अपनी जन्मभूमि जन्मदात्री से भी प्रिय है, हां यदि मुझे मुक्त कर सको तो कर दो, मात्र एक क्षण के लिए।
पलभर में मैं तुम्हारा सिर काट कर गुरूजी के ऋण से मुक्त हो जाउंगा। वीर बंदा बैरागी की बात सुन नवाब का क्रोध और भड़क उठा उसने उसके छटपटाते हुए शिशु को उसके आगे फेंक कर कहा, ले इसको जिबह कर।
क्या तूने अपने बच्चों को अपने हाथ कभी जिबह किया था? वीरबंदा फिर हंस पड़ा। नवाब ने वीर बंदा बैरागी के बच्चे को काट कर उसी पर पटक देने की आज्ञा दी।
बस वायुतल पर एक शमशीर और उस बच्चे के दो टुकड़े हो गये, जो बंदा बैरागी के ऊपर पटक दिये गये। इसका कलेजा निकाल कर इसी जबां दराज के मुंह में ठूंस दो। नवाब ने पुन: आज्ञा दी।
जल्लादों ने बच्चे का कलेजा निकाल कर वीर बंदा बैरागी के मुंह में ठूंस दिया।
जिसे थूकते हुए वह हंसा और बोला, क्या तूने अपने बेटों के कलेजे खाए थे? सलाखें गर्म करके इसके पूरे जिस्म को जलाया जाए, नवाब ने फिर आज्ञा दी। भट्टियां धधक उठीं, लोहे की मोटी मोटी छड़े उसमें तपकर लाल हो गयी। जिनसे वीर का शरीर दागा जाने लगा। खाल, मांस और रक्त को पान कर वे सलाखें उसकी हड्डियों को चाटने लगी।
वीर बंदा बैरागी इस बार अट्टहास पर उठा, बोला अरे मूर्ख मैं शरीर नही आत्मा हूं। तकलीफ शरीर को होती है आत्मा को नही। नवाब फर्रूखसियर हैरतगेज हो उठा, उसने कहा, इसे हाथी से कुचलता दो। हाथी लाया गया, किंतु वीर बंदा को देख पीछे हट गया। महावत ने हूल मारी, तब कहीं जाकर उसने उस जले भुने को पांव से कुचल दिया। मातृभूमि जय जननी कहकर वीर बंदा बैरागी का शरीर निष्प्राण हो गया। देवांगनायें नृत्य कर उठीं, किंतु अंतरिक्ष रो रहा था।
(लेखक की पुस्तक ‘बलिदानी गौरव गांथाएं’ से)
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