संयुक्त राष्ट्र को देनी ही होगी विदेश नीति के निर्धारक तत्वों को नई परिभाषा

 

किसी देश की दूसरे देश के साथ कैसी नीति होगी ? किस प्रकार वे एक दूसरे के साथ सामंजस्य या वैर – विरोध बनाकर रह सकेंगे , इन सब बातों को जो चीजें प्रभावित करती हैं – उन्हें आधुनिक राजनीति शास्त्रियों की भाषा में ‘विदेश नीति के निर्धारक तत्व’ के रूप में परिभाषित व इंगित किया जाता है । आधुनिक राजनीति-शास्त्रियों के मतानुसार भू-रणनीतिक अवस्थिति,सैन्य क्षमता, आर्थिक शक्ति, एवं सरकार का स्वरूप कुछ ऐसे तत्व हैं जो किसी देश की विदेश नीति को प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय वैश्विक एवं आंतरिक प्रभावों द्वारा निर्धारित होते हैं।


हमारा मानना है कि विदेश नीति के निर्धारक तत्वों को इन्हीं तत्वों तक सीमित करके देखना उचित नहीं होगा। विदेश नीति को किन्हीं दो या दो से अधिक देशों की मजहबी एकरूपता या मजहबी मत-भिन्नता भी प्रभावित करती है। उदाहरण के रूप में भारत और पाकिस्तान की विदेश नीति को दोनों की मजहबी मत-भिन्नता भी प्रभावित करती है। पाकिस्तान के लिए साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह इतने अधिक प्राथमिक स्तर के हैं कि वह भारत को पहले दिन से ही अपना शत्रु मानता रहा है। पाकिस्तान के मन- मस्तिष्क में बसा यह शत्रु-भाव ही भारत के प्रति उसकी विदेश नीति का एक अटूट अंग है । अपने इसी शत्रु-भाव के कारण पाकिस्तान भारत में आतंकी गतिविधियों को पहले दिन से प्रोत्साहित करता रहा है। ।उसका प्रयास है कि सम्पूर्ण भारत का इस्लामीकरण हो और यदि इस्लामीकरण की इस प्रक्रिया में पाकिस्तान एक ‘नेता’ बनकर उभरे तो अधिक अच्छा रहेगा। कहने का अभिप्राय है कि पाकिस्तान की विदेश नीति स्वयं को इस्लामिक देशों के नेता के रूप में स्थापित करने की है । इसके साथ ही साथ वह अपनी इसी सोच के अन्तर्गत भारत को विश्व मानचित्र से समाप्त कर देना चाहता है।
बांग्लादेश यद्यपि पाकिस्तान से अलग हो गया है, पर इसके उपरांत भी साम्प्रदायिक समरूपता या ‘इस्लामिक भ्रातृत्व’ के कारण भारत के विरुद्ध कई अवसरों पर दोनों ‘एक’ होते देखे गए हैं । इस प्रकार सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक सोच भी देशों की विदेश नीति को प्रभावित करती है। इतना ही नहीं यदि एक देश सुन्नी मुसलमानों का है और दूसरा देश शिया मुसलमानों का है तो भी दोनों में वैर विरोध की और घृणा की तकरार होती हुई देखी जाती है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कई बार ऐसा भी देखा गया है जब इस्लामिक देश किसी मुद्दे पर एक साथ आ गए हैं और ईसाई देश एक ओर हो गए हैं। देशों के इस प्रकार ध्रुवीकरण की इस प्रक्रिया में निश्चित रूप से सम्प्रदाय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जबकि आधुनिक राजनीतिशास्त्री इस तथ्य को जानकर भी उपेक्षित कर देते हैं । ऐसा करके वह मनुष्य की मौलिक सोच की उस संकीर्णता को विस्मृत करने का प्रयास करते हैं जो उसे साम्प्रदायिक सोच से बाहर नहीं निकलने देती और उसे कदम -कदम पर मानवता से पतित होकर सोचने के लिए प्रेरित करती है।
जिस समय संसार के देश साम्प्रदायिक आधार पर इस प्रकार के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे होते हैं, उस समय भारत जैसे देश अपने आपको असुरक्षित और असहाय समझते हैं। वास्तव में सम्प्रदाय को विदेश नीति के निर्धारक तत्व में इसीलिए सम्मिलित नहीं किया गया है कि यदि इस तत्व को भी विदेश नीति के एक निर्धारक तत्व के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दी जाएगी तो भारत जैसे देशों का इस्लामीकरण व ईसाईकरण करने में बाधा उत्पन्न होगी।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि बर्मा, नेपाल व श्रीलंका जैसे देशों के साथ भारत की विदेश नीति पाकिस्तान ,बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे इस्लामिक देशों के सम्बन्ध में अपनायी जाने वाली विदेश नीति से कुछ इतर हो जाती है। कारण कि नेपाल, बर्मा और श्रीलंका जैसे देश भारत के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध रखते हैं। जिन्हें निभाने में उन्हें किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती ,जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश यह जानते हुए भी कि वह कभी भारत के ही एक अंग रहे हैं और भारत का सांस्कृतिक इतिहास उनका अपना इतिहास रहा है – भारत के साथ अपनी विदेश नीति का निर्धारण इस आधार पर करते हैं कि उनके साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह प्राथमिकता पर आ जाते हैं।
इसके अतिरिक्त उपरोक्त विदेश नीति निर्धारक तत्वों से अलग आज भी कुछ देशों की साम्राज्यवादी और विस्तारवादी सोच है । जिनका नेता चीन माना जा सकता है। चीन जैसे देशों की विस्तारवादी सोच उसकी विदेश नीति को उसी के चिन्तन के आईने में ढाल देती है। चीन जैसे देश जहाँ अपनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी सोच को किसी न किसी प्रकार प्रकट कर देते हैं , वहीं कुछ ऐसे देश भी हैं जो अपनी कंपनियों के माध्यम से दूसरे देशों पर अपना आर्थिक शिकंजा कसने का ‘मौन किन्तु विनाशकारी और क्रूर’ प्रयास करते हैं। उसे भी इन देशों की ओर से दूसरे देशों के विरुद्ध एक प्रकार की ‘आर्थिक गुलामी’ के लिए किए जा रहे प्रयासों के रूप में ही देखा जाना चाहिए। निश्चित रूप से ऐसे देशों की इस प्रकार की सोच भी उनकी विदेश नीति को प्रभावित और प्रेरित करती है। आर्थिक गुलामी के दृष्टिकोण से जिन देशों के द्वारा अपनी विदेश नीति का निर्धारण किया जाता है उनकी विदेश नीति दूसरे देशों का शोषण करने की होती है। ऐसा भी सम्भव है कि ये देश दूसरे देश में न तो अपनी सेना भेजें और ना ही हवाई हमला करें , परन्तु भीतर ही भीतर वह उन देशों के शोषण का अपना शिकंजा इस प्रकार कस देते हैं कि अपनी गिरफ्त में आए देशों का रक्त चूस डालते हैं। इनकी विदेश नीति भी मानवता की चीत्कार निकाल देने वाली होती है। अंतरराष्ट्रीय या वैश्विक मंचों पर इन आर्थिक शक्तियों का वर्चस्व स्थापित होने के कारण उन देशों की आवाज को सुना भी नहीं जा सकता जिनका यह शोषण कर रही होती हैं । इस प्रकार इनकी विदेश नीति के चलते सम्पूर्ण संसार में आर्थिक गुलामी, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की भयानक चालें चली जाती रहती हैं। आधुनिक समय में कई देशों ने अपने विदेश नीति के कूटनीतिक जाल को इस प्रकार बिछाया है कि संसार में शान्ति के लिए घातक आर्थिक गुलामी ,उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की ये सारी बुराइयां किसी न किसी रूप में आज भी भयानक स्तर पर विद्यमान हैं।
संयुक्त राष्ट्र को आज अपने नकारा पन से बाहर निकलने की आवश्यकता है । अब उसे यह प्रयास करना ही होगा कि विश्व शान्ति के जिस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसकी स्थापना की गई थी , वैश्विक मानस की उस अपेक्षा पर वह खरा उतरे । यदि संसार को ऐसे देशों की चालों और षड़यन्त्रों से मुक्ति प्राप्त हो जाए जो किसी दूसरे देश पर अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण अत्याचार करते हैं या किसी दूसरे देश पर अपना आर्थिक शिकंजा कसकर उसका रक्त चूसते हैं तो संसार में शान्ति स्थापित करने में सफलता प्राप्त हो सकती है । जब वैश्विक मंचों को दूसरे देशों का शोषण करने वाली आर्थिक शक्तियां कब्जाकर बैठ जाती हैं या ऐसा प्रबन्ध कर देती हैं जिससे दुर्बल और असहाय देशों की आवाज सुनी ही न जा सके तो मानवता ‘त्राहिमाम’ कर उठती है। इस प्रकार विश्व शान्ति स्थापित न होने देने में इन देशों की मौन रहकर उत्पात मचाने वाली और मानवता विरोधी सोच कहीं अधिक कारगर भूमिका निभाती है।
अपने आर्थिक साम्राज्य को फैलाने या दूसरे देशों को अस्त्र-शस्त्र उपलब्ध कराकर उसके माध्यम से किसी तीसरे देश को बर्बाद करवाने की घृणास्पद सोच भी एक ऐसा तत्व है जो कई देशों की विदेश नीति को प्रभावित करता है । ये देश हथियारों के आपूर्तिकर्ता देश के रूप में जाने जाते हैं और विश्व में गुटीय राजनीति को बढ़ावा देकर दो देशों को परस्पर भिड़ाये रखने का काम करते हैं। जिससे इनके हथियार बिक सकें। इसके लिए कभी-कभी ये देश कोई ‘ओसामा बिन लादेन’ पैदा करते हैं तो कभी किसी तानाशाह को पैदा करते हैं । वास्तव में संसार में आतंकवादियों को पैदा करने में भी किसी न किसी देश की विदेश नीति ही काम करती है । इतना ही नहीं किसी देश में किसी तानाशाह को बलशाली बनाने में भी किन्ही देशों की विदेश नीति बहुत अधिक सीमा तक उत्तरदायी होती है ।आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों को विदेश नीति के निर्धारक तत्वों में हथियार बेचकर या मानवता के विनाश के लिए किसी दूसरे देश में आतंकवादियों को संरक्षण या प्रोत्साहन देकर या किसी तानाशाह को पैदा करके धरती को आतंक स्थली बनाने वाले देशों की इस प्रकार की विदेश नीति को भी विदेश नीति के निर्धारक तत्व के रूप में स्थान देना चाहिए।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि ‘जब मुंसिफ ही कातिल हो तो उससे इंसाफ की उम्मीद नहीं की जा सकती।’ संयुक्त राष्ट्र को इस विषय पर अवश्य गम्भीरता से सोचना चाहिए । अब यह सभी जान चुके हैं कि विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र इस समय कुछ देशों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है । उसका स्वतन्त्र अस्तित्व खोजना कठिन होता जा रहा है । भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अभी कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व और औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया था तो उसका अभिप्राय यही था कि संयुक्त राष्ट्र विश्व शान्ति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को संकल्पित के स्वरूप में प्रकट नहीं कर पाया है। अब समय आ गया है कि उसे विदेश नीति के निर्धारक तत्वों की समीक्षा करनी चाहिए और स्पष्ट रूप से उन तत्वों को इसमें सम्मिलित करना चाहिए जो वर्तमान काल में देशों की विदेश नीति को प्रभावित करते हैं। उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि ऐसा सोचने वाले देश मानवता के विनाश की योजनाओं में लगे हुए हैं।
हमारे लिए यह गर्व और गौरव का विषय है कि भारत स्वाधीनता के पश्चात से पहले दिन से ही विश्वशान्ति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट करने वाला देश रहा है । इसका कारण केवल यह है कि हमारा देश वैदिक संस्कृति को अपनाने वाला और मानवीय मूल्यों में आस्था प्रकट करने वाला देश है। संसार का एकमात्र देश केवल भारत है जो सारे संसार को परिवार मानता है और परिवार की भावना से जीना चाहता है। इसके अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय सारे संसार को अपने आधीन कर कुचलने की योजनाओं में लगे हुए दिखाई देते हैं । निश्चित रूप से भारत की योजना ही एक दिन सफल होगी। उसका संकल्प ही विश्व शांति का आधार बनेगा और जब भारत का संकल्प फलीभूत हो रहा होगा तो वही क्षण होंगे जब भारत को विश्व के लोग ‘विश्व गुरु’ मानकर उसकी जय – जयकार कर रहे होंगे । तब हम सब लोगों के हृदय में एक ही नाद गूंज रहा होगा ‘हे ! देवों की पवित्र भूमि भारत तेरी जय हो ! भारत तेरी जय हो!!’

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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