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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

भारत को सदियों से आलोकित रखा है बप्पारावल की देशभक्ति ने

भारत की जनता या भारत के नरेश जितने बड़े स्तर पर किसी विदेशी अक्रांता को चुनौती देते थे, उतने ही बड़े स्तर पर विजयी होने पर विदेशी अक्रांता यहां नरसंहार, लूट, डकैती और बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया करता था। महमूद ने भी वहीं-वहीं अधिक नरसंहार कराया जहां-जहां उसे अधिक चुनौती मिली। वस्तुत: ऐसा नरसंहार दो बातें स्पष्ट करता था-एक तो मुस्लिम आक्रामकों की खीझ को, और दूसरे भारतीयों के पराक्रमी स्वभाव को। हमने इतिहास लेखन में इन दोनों तथ्यों की ही उपेक्षा की है। विजयी के गले में जयमाला डालते ही उसके द्वारा नरसंहार आदि की घटनाओं को तो उसका विजयोत्सव मनाने का विशेषाधिकार समझकर हमने क्षमा करने का प्रयास किया है। जबकि सच ये था कि जितना बड़ा ‘विजयोत्सव’ होता था, उतना ही बड़ा नरसंहार होता था। ‘विजयोत्सवराष्ट्र वास्तव में हमारे पराक्रम को पराभूत करने के लिए  ही मनाया जाता था।

…..पर अब तो हम पराक्रम को पूजें।

महमूद गजनवी की घोषणा थी कि काफिरों के हिंदू धर्म का विनाश करना ही हमारा धर्म है। यही मेरी प्रतिज्ञा भी है।

इस प्रकार महमूद गजनवी एक संस्कृति नाशक आक्रांता था। भारतीयों ने उसकी इस भावना को समझा और उसके उद्देश्य को भी समझा। इसीलिए उसका प्रतिरोध हुआ।

धर्म के व्याख्याकारों का दोष

जो लोग मौहम्मद बिन कासिम के समय या फिर महमूद गजनवी के समय में मुसलमान बने या बलात बनाये गये वो लोग पीढ़ियों तक अपने मूलधर्म-वैदिक धर्म में आने का प्रयास करते रहे। उन्हें मुस्लिम रीति रिवाज प्रिय नही थे। अपने वैदिक धर्म की पावन परंपराओं के प्रति उनका आत्मिक लगाव था, श्रद्घा थी। इसलिए मौहम्मद बिन कासिम से लेकर मौहम्मद गौरी (लगभग 450 वर्ष का काल) तक जो मुट्ठी भर हिंदू मुसलमान बनाये जा सके थे, वो अपने धर्म में लौटना चाहते थे। कासिम के पश्चात महमूद गजनवी लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात आया, इस काल में कासिम के समय के बने मुसलमानों को हिंदू बनाया भी जा सकता था। यह अच्छा अवसर था-अपने संगठन को सुदृढ़  करने का।

परंतु हमारे धर्म के व्याख्याकारों ने गुड़-गोबर कर दिया। आपद्घर्म में हिंदू धर्म के बहुत ही लचीले दृष्टिकोण को उपेक्षित कर निष्कासित लोगों को सदा सदा के लिए बहिष्कृत कर दिया गया। उनके मर्म के प्रति हमारा धर्म कठोर हो गया, जबकि वैदिक धर्म आपत्ति काले  नास्ति मर्यादा का उद्घोषक रहा है। कालांतर में इस प्रकार की हठधर्मिता ने हमारे लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी कीं, जिनका उल्लेख हम अगले अध्यायों में करेंगे।

भारत की इतिहास लेखन की शैली

पश्चिमी या मुस्लिम इतिहास लेखकों ने अपने अपने इतिहासों को किसी बादशाह, सुल्तान, रईसों या जमींदारों की चाटुकारिता करते हुए लिखा है। जैसा कि कालंातर में हमारे यहां दरबारी कवियों या भाटों ने भी किया। परंतु प्राचीन काल में हमारे इतिहास लेखक ऋषियों का उद्देश्य इतिहास लेखन के माध्यम से जनसाधारण को अतीत की घटनाओं से शिक्षा लेकर वर्तमान को सुधारने और भविष्य को समुज्जवल करने के लिए प्रेरित करना होता था। पश्चिमी दृष्टिकोण से इतिहास लेखन केवल शक्ति संपन्न लोगों का गुणगान करने का ग्रंथ है, वह विजयी का वंदन करता है, और पराजित का तिरस्कार करता है। परंतु भारतीय शैली में लिखे गये इतिहास (पुराणादि) गुणी के गुणों का वर्णन करते हैं। अब यह आवश्यक नही कि गुणी शक्ति संपन्न ही हो। यही कारण है कि रामायण में शबरी को तो महाभारत में विदुर जैसे विरक्त राजर्षि को भी सम्मानित स्थान दिया गया है। इतिहास प्रतिभा को प्रणाम करता है। प्रतिभा चाहे किसी भी क्षेत्र में प्रदर्शित की जाए, उसे इतिहास अपने पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों से उकेरकर उसका सम्मान बढ़ाएगा और आने वाली पीढ़ियों को अतीत की एक गौरवमयी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत करेगा।

ब्रह्मशक्ति और राजशक्ति

बस, यही कारण है कि हमारे यहां प्राचीन इतिहास संबंधी ग्रंथों में राजशक्ति के साथ साथ ब्रह्मशक्ति को भी स्थान दिया गया। इसी लिए अनेकों ऋषियों, कवियों,  लेखकों, वैज्ञानिकों व दार्शनिकों को इतिहास ने अपना वंदनीय पात्र बनाया। यह सर्वमान्य सत्य है कि राजनीति को ब्रह्मशक्ति (महामेधा संपन्न विषय के पारखी, मर्मज्ञ लोग, जिन्हें कुछ अर्थों में आजकल के आईएएस अधिकारी कहा जा सकता है) ही निर्देशित करती है। वास्तविक शासन उसी के हाथों में होता है। ब्रह्मशक्ति युद्घ नही करती, अपितु वह कूटनीति और धर्मनीति के माध्यम से युद्घ से बचाकर मानवता को सदा शक्तिमयी बनाए रखने के उपाय खोजती रहती है। ये उपाय जब किन्हीं कारणों से शक्ति स्थापना के अपने कार्य में असमर्थ सिद्घ हो जाते हैं, तो उस समय युद्घ अनिवार्य हो जाता है। जिसे राजशक्ति (क्षात्र शक्ति) ही लड़ती है।

इतिहास की विवेचना के दो लक्ष्य…

प्राचीन काल से ऐसा सुंदर समयोजन हमारे यहां राजनीति में रहा है। इसलिए इतिहास की विवेचना के सदा दो लक्ष्य रहे राजशक्ति और ब्रह्मशक्ति। राजशक्ति यदि मस्तिष्क है तो ब्रह्मशक्ति बुद्घि है। मस्तिष्क विचार  प्रधान होता है और बुद्घि भाव प्रधान। विचारों की उग्रता को बुद्घि के सरल भाव ही नियंत्रित करते हैं। यही कारण है कि प्रजा हित चिंतन से विरत  राजा को प्राचीन काल में ऋषि मण्डलों ने कितनी ही बार सही मार्ग पर लाने का सफल प्रयास किया। राजा को निजी महत्वाकांक्षा के लिए या राज्य विस्तार के लिए जनसंहार करने की अनुमति कभी नही मिली। इसीलिए भारत के किसी भी सम्राट ने कभी भी जनसंहार नही किया। यहां तक कि युद्घ देखने के लिए युद्घ क्षेत्र से बाहर खड़ी प्रजा के लोगों को भी किसी पक्ष ने मार डाला हो यह उदाहरण भी कहीं नही मिलता। इसका अभिप्राय है कि हमारे यहां युद्घ भी बुद्घि से नियंत्रित होकर लड़े जाते थे। विचारों को बुद्घि के सरल भावों ने सदा नेतृत्व दिया। जबकि पश्चिमी और मुस्लिम जगत में ऐसा नही रहा। इसलिए उन्होंने युद्घों में सब कुछ उचित माना। उनका इतिहास युद्घों का इतिहास है। ईसाईयत के जन्म से ही युद्घों का वर्णन इतिहास का महत्वपूर्ण विषय हो गया। इसी से मुस्लिमों ने प्रेरणा ली और हम देखते हैं कि इसीलिए इतिहास से बुद्घि विलुप्त हो गयी, प्रतिभा विलुप्त हो गयी। ऐसे कूड़े-कचरे के ढेर को ही हम इतिहास समझते हैं।

वर्तमान इतिहास-कूड़े का ढेर है

वास्तव में यदि देखा जाए तो वर्तमान इतिहास की पुस्तकें केवल मानवता की रक्तरंजित कहानी हैं, दुर्गंधित मांस का एक ढेर है। जिससे नई पीढ़ी को भी कोई सदप्रेरणा नही मिलती। इतिहास के इस दुर्गंधित ढेर में सुगंधियों की समाधि बना दी गयी है। समाधि से हमारा अभिप्राय दुर्गंध के ढेर में सुगंधि को दबा देने से है। इतिहास के प्रत्येक जिज्ञासु विद्यार्थी को यह मानकर चलना पड़ेगा कि उसे सुगंध ढूंढ़ ढूंढकर निकालनी पड़ेगी।

बप्पारावल नाम की सुगंध

मौहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनवी के बीच के काल में एक बप्पारावल नाम ऐसा मिलता है जिसने इतिहास की दुर्गंध को सुगंध में परिवर्तित करने का महती कार्य किया। यद्यपि उसका पुरूषार्थ और उसकी देशभक्ति को इतिहास  लेखकों ने पाठकों की दृष्टि से ओझल करने का प्रयास किया है। परंतु वह सचमुच भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। आईए, देखते हैं उसके वंश की पृष्ठभूमि को और उसके स्वयं के द्वारा किये गये पुरूषार्थ और देशभक्ति के सत्कृत्यों को।

सबसे लम्बा राजवंश

दामोदर लाल गर्ग अपनी पुस्तक ‘महाराणा प्रताप में लिखते हैं कि ‘महाराजा विक्रमादित्य से लेकर मुगलकाल के पतन के समय तक ऐसा कोई राजवंश नही रहा, जो इतने दीर्घकाल तक अपने ही स्थान पर टिका रहा हो, परंतु चित्तौड़गढ़ (उदयपुर) के महाराणाओं का ही राजवंश ऐसा रहा जो इस्लाम के भारत में आने के पूर्व से लेकर आज तक अपना अस्तित्व स्थापित किये हुए है। इसलिए ही क्षत्रियों में इस राजवंश को सम्मान और आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा है।’

हमें दामोदरलाल गर्ग की उक्त पुस्तक के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि मेवाड़ राजवंश का प्रारंभ 565 ईं में राजा गुहिल (गुहा-गुफा में उत्पन्न होने के कारण) से हुआ था। भारतवर्ष के जितने भर भी राजवंश रहे हैं उन सबमें आज भी इसी राजवंश का सम्मान सर्वाधिक है। कर्नल टॉड ने इस राजवंश के लिए सम्मान प्रकट करते हुए लिखा है-मेवाड़ सभी प्रकार की कमजोरियों के होने के उपरांत भी तुझसे प्रेम करता हूं।

कर्नल टॉड ने इस राजवंश का प्रथम शासक भट्ट गंथों की साक्षी के आधार पर कनकसेन को स्वीकार किया है। कनकसेन 145ईं में अयोध्या से सौराष्ट्र आ गया था। राणावंश स्वयं को राम के पुत्र लव का उत्तराधिकारी मानता है। लव ने ही लोहकोट नाम का नगर बसाया था जो आजकल लाहौर कहलाता है। सौराष्ट्र पहुंचने से पूर्व कनकसेन ने लाहौर में भी प्रवास किया था। चारपीढ़ी के पश्चात इसी कनकसेन के वंश में विजय सेन हुआ, जिसने विजयपुर बसाया था। उस स्थान पर आजकल धोलका नगरी बसी है। विजयसेन ने ही वल्लभीपुर और विदर्भ  नामक नगर बसाए थे। आजकल का बल्लभी प्राचीन बल्लभीपुर ही है। कालांतर में यहां जैन मत का अधिक प्रभाव बढ़ा। तब म्लेच्छों ने इस बल्लभीपुर को पूर्णत: नष्ट कर दिया था। इस समय बल्लभीपुर पर कनकसेन की आठवीं पीढ़ी का राजा शिलादित्य शासन कर रहा था। म्लेच्छों से युद्घ करते हुए राजा शिलादित्य और उनकी सेना वीरगति को प्राप्त हुई।

गुहिल नाम कैसे पड़ा

उस समय राजा शिलादित्य की रानी पुष्पावती गर्भवती थी और अपने पिता के यहां गयी हुई थी। राजा के वीरगति प्राप्त करने की सूचना से रानी अत्यधिक दुखी हुई। तब उसने सती होने का निर्णय न लेकर अपने गर्भस्थ शिशु के जन्म की प्रतीक्षा करना ही श्रेयस्कर समझा। रानी राजभवनों को त्यागकर एक गुफा में जाकर एक तपस्विनी का जीवन यापन करने लगी। इसी गुफा में उसे एक दिन पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

पुत्र उत्पन्न होने पर रानी ने अपना वह पुत्र एक कमलावती नाम की ब्राह्मणी को सौंप दिया और स्वयं सती होकर पतिधाम के लिए प्रस्थान कर गयी। कर्नल टॉड सहित अधिकांश इतिहासकार हमें बताते हैं कि यही बालक आगे चलकर गुहिल के नाम से विख्यात हुआ। इसी गुहिल के नाम से गहलोत या गोहलोत वंश प्रसिद्घ हुआ।

गुहिल राजा कैसे बना

कर्नल टाड हमें बताते हैं कि मेवाड़ के दक्षिण में शैलमाला के भीतर ईडर नाम का एक भीलों का राज्य था। वहां एक मण्डलीक भील राजा राज करता था। अबुलफजल और भट्ट ने लिखा है कि एक दिन भीलों ेके लड़के गोह के साथ खेल रहे थे। सभी लड़कों ने गोह को अपना राजा बनाया और भील बालक ने अपनी उंगली काटकर अपने रक्त से गोह के माथे पर राजतिलक किया। जब यह घटना मण्डलीक राजा को ज्ञात हुई तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने अपना राज्य एक दिन गोह को सौंप दिया और स्वयं राजकाज से मुक्त हो गया।

बप्पारावल का आगमन

इस प्रकार सत्ता और राजवंश का जो मूल संस्कार युवा गुहिल के रक्त में प्रवाहित हो रहा था वह राज्य प्राप्त करने में सफल हो गया। इसी गोह की आठवीं पीढ़ी में नागादित्य नामक राजा हुआ। इसके व्यवहार से खिन्न होकर भीलों ने उसकी हत्या कर दी। तब उसका लड़का बप्पा मात्र तीन वर्ष का था। इस शिशु की प्राण रक्षा पुन: उसी कमला के वंशजों ने की जिसने गुहिल को पाला पोसा था। भीलों के आतंक से राजकुमार बप्पा को बचाने के लिए ये ब्राह्मण लोग भांडेर नाम के किले पर चले गये। वहां से कई स्थानों पर घूमते फिरते ये ब्राह्मण लोग नागदा (उदयपुर के उत्तर में स्थित) आ गये। यहां रहकर बप्पा एक साधारण बच्चे की भांति पाला जाने लगा।

चित्तौड़ की ओर प्रस्थान

बप्पा ने अपनी मां से सुन रखा था कि वह चित्तौड़ के ‘मोरी’ राजा का भांजा है। इसलिए वह अपने बहुत से साथियों को साथ लेकर मौर्यवंशी राजा मानसिंह से जाकर चित्तौड़ में मिला। राजा को भी अपने भांजे से मिलकर असीम प्रसन्नता हुई। राजा ने बप्पा को एक अच्छी  जागीर दे दी। पर यह जागीर प्रदान की जानी कुछ अन्य सरदारों को अच्छी नही लगी। यद्यपि मानसिंह बप्पा का अत्यधिक आदर करने लगा।

बप्पा से बप्पारावल

तभी किसी विदेशी शासक ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। उस विदेशी आक्रांता से कोई अन्य सामन्त तो जाकर नही लड़ा पर बप्पा को विदेशी अक्रांता से पुराने पापों का प्रतिशोध लेने का यह अच्छा अवसर जान पड़ा। उसकी धमनियों में राजा शिलादित्य का रक्त प्रवाहित हो रहा था इसलिए हृदय में शिलादित्य को वास्तविक श्रद्घांजलि देने का विचार भी बार बार प्रतिशोध को हवा दे रहा था।

बप्पा रावल अपनी सेना के साथ विदेशी आक्रांता से भूखे शेर की भांति जा भिड़ा। उसकी वीरता को  देखकर मौर्य राजा मानसिंह और उसके सभी सामंत भौंचक्के रह गये। बप्पा जीतने के पश्चात भी रूका नही। अभी उसे मां भारती के ऋण से उऋण होने के लिए और भी कुछ करना था। उसने विदेशी आक्रांता को तो परास्त कर दिया, परंतु अपनी सेना को लेकर अपने पूर्वजों की कभी की पुरानी राजधानी गजनी की ओर बढ़ा। गजनी पर उस समय सलीम का शासन था।

कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि बप्पा ने गजनी शासक सलीम  को परास्त कर वहां अपनी विजय पताका फहरा दी। सलीम की लड़की से बप्पा ने अपना विवाह किया।

गजनवी को अपने अधीन कर उसने मां भारती की कोख को धन्य किया। यह घटना कासिम के सन 712 के आक्रमण के उपरांत लगभग 720 ईं. की है। इस प्रकार म्लेच्छों को मां भारती के आंगन से निकाल कर भारत की वीरता की धाक जमाने में बप्पा ने एक मील का पत्थर स्थापित किया, और वह बप्पा से बप्पा रावल बन गया। चित्तौड़ में आकर उसने वहां के मौर्य शासक को सत्ताच्युत कर स्वयं शासन संभाल लिया। उसे हिंदू सूर्य की उपाधि दी गयी। जिस समय गजनी विजय का कार्य बप्पा ने पूर्ण किया उस समय उसकी अवस्था मात्र 20-22 वर्ष की थी।

बप्पा रावल का राज्य विस्तार

देलवाड़ा नरेश के प्राचीन ग्रंथ की साक्षी के आधार पर ही कर्नल टॉड हमें बताता है कि महाराज बप्पा ने इस्फन हान, कंधार काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान और काफरिस्तान आदि अनेक देशों को जीतकर उन पर शासन किया और उनकी कन्याओं से विवाह किये।

इतिहास में स्थान नही दिया गया

बप्पा रावल के इन गौरवपूर्ण कृत्यों को कभी इतिहास में स्थान नही दिया गया। यद्यपि उनका प्रयास कासिम, गजनवी और मौहम्मद गौरी सभी के प्रयासों से बहुत बड़ा था। बप्पा ने जो कुछ किया वह राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर किया। वह भारत को महाभारत (वृहत्तर भारत) देखना चाहता था और अपने लक्ष्य में वह सफल भी हुआ। उसने चित्तौड़ को और उसके किले  को विश्व मानचित्र पर उभारा और सम्मान पूर्ण स्थान प्रदान कराया। इतने बड़े साम्राज्य की स्थापना करने से चित्तौड़ का किला विश्व की उस समय की प्रसिद्घ राजधानियों का किला बन गया। इसीलिए इस किले के गौरवपूर्ण अतीत के प्रति महाराणा प्रताप के भीतर असीम श्रद्घा थी और वह हर स्थिति में इस किले को मुगलों से मुक्त कराना चाहते थे। क्योंकि इस किले का मुगलों के अधीन  रहने का अर्थ भारतवर्ष के पराधीन रहने के समान था। अत: इस किले को मुगलों से मुक्त कराने के लिए महाराणा प्रताप को असहनीय कष्ट सहने पड़े थे। महाराणा को बार बार इस किले के प्राचीन वैभव का ध्यान आता तो वह मारे वेदना के कराह उठते थे।

बप्पा रावल की भारत को देन

हमने गजनवी और गोरी को तो प्रसिद्घि दी, परंतु अपने प्रसिद्घ को भी प्रसिद्घि से निषिद्घ कर दिया। बप्पा रावल निश्चित रूप से इतिहास की वह सुगंध है, जिसे मिटाने का काम किया गया परंतु वह सुगंध एक दीपक की भांति गहन अंधकार से लड़कर अपनी जीवन्तता का स्वयं प्रमाण है। ऐसा प्रमाण जिसने इस राष्ट्र की आत्मा को सदियों तक आलोक दिया और पराधीनता को आत्मा से स्वीकार न करने का मूलमंत्र दिया। भारत ने पराधीनता को कभी आत्मा से स्वीकार नही किया इस सोच को। बप्पा रावल जैसे देशभक्तों ने खाद पानी दी। ऐसे वीरों को विदेशी इतिहासकार भला इतिहास में समुचित स्थान कैसे दे सकते थे?

उन्हें अपने डकैत पर भी गर्व है तो हमें अपने देशभक्तों पर क्यों ना हो?

पश्चिमी और इस्लामिक अरब देशों के ज्ञात इतिहास में अधिकांश राजाओं ने पर संस्कृतियों के नाश के लिए धनसंपदा की लूट के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण किये और ऐसे अपने डकैत आक्रांताओं को भी महिमामण्डित कर इतिहास में स्थान दिया। इस पर स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था-’जिस प्रकार संसार की अन्य जातियों के महान पुरूष स्वयं इस बात का गर्व करते हैं कि उनके पूर्वज किसी एक बड़े डाकुओं के गिरोह के सरदार थे, जो समय-समय पर अपनी पहाड़ी गुफाओं से निकलकर बटोहियों पर छापा मारा करते थे, हम हिंदू लोग इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषितथा महात्मा थे, जो पहाड़ों की कंदराओं में रहते थे, वन के फल-मूल जिनका आहार थे तथा जो निरंतर ईश्वर चिंतन में मग्न रहते थे।

यह संस्कृति और अपसंस्कृति का अंतर है, जिसे कुछ लोग भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति कहकर मिटाने का प्रयास करते हैं। तुम्हारे देशभक्तों को गद्दार और अपने डकैतों को महान कहकर इस अंतर को कम किया गया है। यद्यपि  इससे सच कुछ आहत हुआ है परंतु सच तो फिर भी सच है। आवश्यकता आज सत्य के महिमामंडन की है।

क्रमश:

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