देश की राजनीति में अराजक व शरारती तत्वों की बढ़ती सक्रियता हमारी लोकतांत्रिक व संवैधानिक व्यवस्था को आहत करने वाली है। लोकसभा व राज्यसभा से क्रमशः 9 व 11 दिसम्बर 2019 को पारित एवं 12 दिसम्बर को महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा स्वीकृत होने के बाद विधिवत कार्यरूप में आने वाले “नागरिकता संशोधन अधिनियम” का विरोध करने के लिए जिस प्रकार शाहीन बाग (दिल्ली) के समान देश के अनेक नगरों में धरना प्रदर्शन हुए थे उससे देश के राजनैतिक भविष्य पर आने वाले संकट को अवश्य समझना होगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के शाहीन बाग धरने से सम्बंधित लगभग आठ माह पश्चात 7 अक्टूबर को दिए गए निर्णय को इतना अधिक सरल बना दिया जैसे मानो उसमें कोई कानून का उल्लंघन ही नहीं हुआ हो। शीर्ष न्यायालय का यह कथन सर्वाधिक न्यायसंगत है कि सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकालीन कब्जा स्वीकार नहीं और दिल्ली पुलिस को धरना स्थल को खाली कराने के लिए कार्यवाही करनी चाहिये थी। लेकिन उपरोक्त दोनों ही स्थिति में असफल होने के उपरांत ही तो इस पर न्याय की अपेक्षा से न्यायालय में याचिकाकर्ताओं को जाने के लिए विवश होना पड़ा था।
इस अधिनियम के मूल बिंदुओं को भ्रमित करके उकसाने वाले नेताओं और संगठनों का क्या कोई दोष नहीं था? क्या किसी ने यह जानने का साहस किया कि धरना स्थल पर हज़ारों बच्चों, महिलाओं व पुरुषों को आंदोलन के लिए एकत्रित करके उनपर लाखों- करोड़ों रुपयों का प्रबंध करने वाली कौनसी शक्तियां सक्रिय थी? क्या समाचारों में धरने से पूर्व कांग्रेस की रैली में हुए बड़े नेताओं के उत्तेजक भाषणों, जामिया व जेएनयू विश्वविद्यालय के छात्रों व जामिया नगरवासियों आदि की सक्रियता का संदिग्ध बताया जाना दोषपूर्ण था। इस धरने में कुछ संगठनों जैसे पी.एफ.आई. व एस.डी.पी.आई. आदि की भी संलिप्तता का समाचार पत्रों से ज्ञात होता रहा परंतु न्याय की चौखट पर अभी तक इनमें कोई दोष नहीं पाया जाना अवश्य निराशाजनक है। जबकि पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का तो कार्यालय भी शाहीन बाग क्षेत्र में ही आता है। क्या शरजील इमाम के अनेक स्थानों पर देश विरोधी भाषणों का इस बहुचर्चित व बहुबाधक धरने से कोई संबंध नहीं था?
इसलिये सौ दिन (15.12.2019 से 24.3.2020) से अधिक सार्वजनिक क्षेत्र को बंधक बनाकर लाखों देशवासियों को उनकी दिनचर्या में बाधक व अरबों रूपयों की व्यापार में क्षति का कारण एवं संवैधानिक व्यवस्था को आहत करने वाले इस शाहीन बाग धरने को क्या एक आपराधिक कृत्य मानना अनुचित होगा? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 19 फरवरी को नियुक्त वार्ताकारों का असफल होने से क्या न्यायायिक प्रक्रिया आहत नहीं हुई थी?
क्या इस धरने के षड़यंत्रकारियों ने ही फरवरी के अंतिम सप्ताह में धरने के समानांतर दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर हिंसा,आगजनी व साम्प्रदायिक दंगों की योजनाएं तैयार की थी? गोलियां, बन्दूकें, पिस्तोलें व गुलेलों आदि की सीमित मात्राओं के अतिरिक्त रोड़े, पत्थर,पेट्रोल, बोतल व तेजाब आदि को असिमित मात्राओं में मकान व स्कूल की छतों पर एकत्रित करवाने के पीछे क्या धरने के समर्थक अराजक तत्व नहीं होंगे? यह सोचा जाना चाहिये कि अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत आगमन के समय 23 फरवरी से 25 फरवरी तक दिल्ली को दंगों की आग में झोंक कर राष्ट्र की प्रतिष्ठा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर धूमिल करने वाले कौन थे?
भारतीय उपमहाद्वीप के धार्मिक पीड़ितों के कल्याणार्थ बनें इस बहुप्रतीक्षित नागरिक संशोधन अधिनियम में भारतीय मुसलमानों का कोई विरोध नहीं फिर भी इनको भड़का कर विरोध प्रदर्शन व धरने द्वारा देश के वातावरण को दूषित करके अराजकता व दंगे फैलाने वाले दोषियों को देश के समक्ष उजागर करने से सम्भवतः न्यायायिक व्यवस्था की कठोरता का भय ऐसे तत्वों के लिए एक चेतावनी होगी। इसलिए न्यायपालिका के निर्णय का सम्मान करने के साथ-साथ हम उससे सम्यक न्याय की आशा भी करते हैं। लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हुआ कि शासन, प्रशासन व शीर्ष न्यायालय द्वारा शाहीन बाग धरना स्थल को रिक्त कराने के सारे प्रयास विफल होने के बाद आंदोलनकारियों में कोरोना महामारी के भय व्याप्त होने से 24 मार्च को प्रशासन ने आवश्यक कार्यवाही करके इस स्थल को मुक्त कराया था। नि:संदेह देश में बढ़ती ऐसी राजनैतिक अराजकता पर अंकुश लगाने के आवश्यक प्रयास शासन व प्रशासन को समय रहते ही करने चाहिये। देश की अखंडता व संप्रभुता को चुनौती देने वाले राष्ट्रद्रोहियों के षड़यन्त्रों को जब तक कुचला नहीं जाएगा तब तक राष्ट्रद्रोही शक्तियों का दुःसाहस बढ़ता ही रहेगा।
चिंतन करना होगा कि “भारत तेरे टुकड़े होंगे”, “भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहेगी”, “जिन्ना वाली आज़ादी”, “हम देखेंगे…” “हिंदुओं की कब्र खुदेगी ए.एम.यू. की धरती पर”…जैसे विषैले नारे लगाने वाले राष्ट्रद्रोहियों पर न्याय क्यों मौन रहता है? क्या शाहीन बाग के धरने का लक्ष्य यह था कि अनेक देशविरोधी नारों के साथ-साथ देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री श्री अमित शाह की मृत्यु के लिए विष उगलने वाली भाषा छोटे-छोटे मासूम बच्चों के मुख में डाल कर उनमें भारत विरोध का अभी से बीज बो दिया जाय? न्याय की चौखट पर शाहीनबाग धरने के पीछे छुपे ऐसे तत्वों की हिंसक व अहिंसक आपराधिक गतिविधियों का आंकलन अवश्य होना चाहिये। भारतीय लोकतंत्र में ऐसी चुनौतियों को स्वीकार किया जाना सर्वथा अनुचित व अवैधानिक होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे तत्व देश के समक्ष एक बड़ा संकट बन चुके हैं। यह अत्यंत चिंताजनक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरंतर विष वमन करने वाले देशद्रोहियों पर कोई कठोर कार्यवाही करने में शासन की सक्रियता अभी तक धीमी व सीमित है। सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिए शासन व प्रशासन को ऐसी परिस्थितियों में अविलंब कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे नहीं तो शाहीन बाग जैसे धरने-प्रदर्शन से मुक्ति पाने के लिए कोरोना जैसी महामारी की प्रतीक्षा कब तक करते रहेंगे?
विनोद कुमार सर्वोदय
(राष्ट्रवादी चिंतक व लेखक)