भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने 26 तारीख को अल जजीरा टीवी चैनल पर एक इंटरव्यू दिया था. वैसे तो इससे जुड़ी कई बातों पर विवाद हुए लेकिन सबसे कम संभावना इस बात पर विवाद की थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धारणा के अनुसार भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान को मिलकर एक महादेश – अखंड भारत बनाना चाहिए. संघ यह बात सालों से कहता आ रहा है. इस इंटरव्यू में राम माधव ने कहा था, ‘आरएसएस अब भी मानता है कि एक दिन ये हिस्से, जो किसी ऐतिहासिक वजह से 60 साल पहले अलग हो गए, आपसी सद्भावना के तहत फिर आपस में एकजुट हो जाएंगे और इनसे अखंड भारत बनाया जाएगा.’
ब्रिटेन भारत विभाजन के सख्त खिलाफ था. वह भारत को एक रखना और राष्ट्रमंडल देशों में देखना चाहता था कि ताकि औपचारिक रूप से शासन खत्म होने के बाद भी यहां उसका प्रभाव बना रहे
भारतीय प्रायद्वीप को एक राजनीतिक इकाई बनाना लंबे अरसे से हिंदूवादी आंदोलन का एक अहम लक्ष्य रहा है. यहां तक कि विनायक सावरकर जो ‘टू नेशन थ्योरी’ के खुले समर्थक थे, उन्होंने कभी जिन्ना की तरह बंटवारे की बात नहीं की (हालांकि उनकी कल्पना के भारत में भी मुसलमान थे लेकिन सावरकर उनकी तुलना जर्मनी के यहूदियों से करते हुए एक जगह कहते हैं कि भारतीय मुसलमान अपने पड़ोस में रहने वाले हिंदू के बजाय खुद को भारत से बाहर रहने वाले मुसलमान से जोड़कर देखते हैं).
लेकिन इसके बाद भी भारतीय प्रायद्वीप को एक इकाई बनाने की सभी व्यवहारिक कल्पनाओं को उसके समर्थकों द्वारा नकारा जाता रहा. यहां तक कि 1946 की गर्मियों में, आजादी के ठीक एक साल पहले ब्रिटिश राज ने प्रायद्वीप के एकीकरण के लिए एक संवैधानिक खाका पेश किया था, इसपर राजनेताओं ने भारी बहस भी की लेकिन राष्ट्र निर्माताओं ने आखिरकार इस योजना को खारिज कर दिया था.
कैबिनेट मिशन योजना
इतिहास में इस संवैधानिक योजना को कैबिनेट मिशन योजना के नाम से भी जाना जाता है. ब्रिटेन सरकार की कैबिनेट के तीन सदस्यों ने इसे तैयार किया था इसलिए इसे यह नाम मिला था.
दो शताब्दियों तक भारत पर शासन करने वाला ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध के बाद काफी कमजोर हो गया था. वो जल्दी से जल्दी भारत से विदाई चाहता था. इसी मकसद के लिए तीन सदस्यों वाले कैबिनेट मिशन को भारतीयों के हाथ में शासन की बागडोर सौंपने की जिम्मेदारी दी गई. कैबिनेट मिशन मार्च, 1946 में भारत पहुंचा था और उसने तुरंत इस मसले पर हर वर्ग के नेताओं से बातचीत शुरू कर दी. एक महीने तक व्यापक विचार-विमर्श के बाद अब मिशन कुछ सिफारिशें की करने की स्थिति में आ गया.
बंटवारे की मांग खारिज होने के बाद कैबिनेट मिशन के पास अब सिर्फ एक विकल्प बचा था – संयुक्त भारत. 16 मई, 1946 को उसने अपनी यह योजना पेश की
कैबिनेट मिशन ने यहां जो हालात देखे, उनके अनुसार सत्ता हस्तांतरण के सिर्फ दो विकल्प थे. पहला था ब्रितानी भारत का दो संप्रभु देशों – भारत और पाकिस्तान में विभाजन (कैबिनेट मिशन योजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था जो आखिर में हकीकत बना). यह भी दिलचस्प बात है कि खुद ब्रिटेन विभाजन के सख्त खिलाफ था. वह भारत को एक रखना और राष्ट्रमंडल देशों में देखना चाहता था कि ताकि औपचारिक रूप से शासन खत्म होने के बाद भी यहां उसका प्रभाव बना रहे. यह प्रस्ताव कांग्रेस को भी नापसंद था क्योंकि वह तब तक ब्रितानी-भारत के बंटवारे के विरोध में थी. सबसे दिलचस्प और हैरतभरी बात ये है कि पाकिस्तान की मांग करने वाले जिन्ना ने भी विभाजन की योजना को खारिज कर दिया था. फिर यह हुआ कि आखिरकार कैबिनेट मिशन ने विभाजन की योजना का विकल्प छोड़ दिया.
दूसरा विकल्प – तीन स्तरीय शासन व्यवस्था वाला संयुक्त भारत
कैबिनेट मिशन के पास अब सिर्फ एक विकल्प बचा था – संयुक्त भारत. 16 मई, 1946 को कैबिनेट मिशन ने अपनी आखिरी योजना पेश की. उसने पूरी सावधानी के साथ यह बात साफ कर दी कि वह संप्रभु पाकिस्तान के विचार को खारिज कर रहा है.
मिशन की योजना एक तीन स्तरीय संघ के निर्माण की थी. आज के हिसाब से देखें तो इसमें ब्रितानी भारत के प्रांतों को तीन समूहों – भारत, पाकिस्तान (पश्चिमी समूह) और बंगाल व असम (पूर्वी समूह) में पुनर्गठित किए जाने का प्रस्ताव था. बातचीत के दौरान कांग्रेस कैबिनेट मिशन से जो प्रस्ताव चाहती थी यह उसी के आसपास था. उसने केंद्र में हिंदू और मुस्लिम प्रांतों के मुस्लिम लीग के ‘समान’ प्रतिनिधित्व की मांग को खारिज कर दिया था. कांग्रेस ने इस मांग का जोरदार विरोध किया था. वहीं गांधी के हिसाब से यह ‘पाकिस्तान की मांग’ से भी बदतर मांग थी. कैबिनेट मिशन इसके लिए तैयार हो चुका था कि केंद्रीय विधायिका में सीटों का बंटवारा जनसंख्या के अनुपात में हो.
मिशन की योजना एक तीन स्तरीय संघ के निर्माण की थी. आज के हिसाब से देखें तो इसमें ब्रितानी भारत के प्रांतों को तीन समूहों – भारत, पाकिस्तान (पश्चिमी समूह) और बंगाल व असम (पूर्वी समूह) में पुनर्गठित किए जाने का प्रस्ताव था
कैबिनेट मिशन योजना के मुताबिक प्रांतों को समूह में बांटना एक ऐसा बिंदु था जो कांग्रेस की मांग के खिलाफ था. यह एक तरह से जिन्ना के लिए रियायत दी गई थी क्योंकि पूर्वी और पश्चिमी समूहों में मुस्लिम लीग का दबदबा हो सकता था और इस तरह वो केंद्र में कांग्रेस के दबदबे को चुनौती दे सकती थी.
समूह आपस में मिलकर अपना अलग संविधान बना सकते थे. योजना के मुताबिक एक दशक बाद इनकी समीक्षा होती और संविधान बनने के बाद यदि किसी प्रांत को लगता कि वह समूह में शामिल नहीं रहना चाहता तो वह उसे छोड़ भी सकता था. असम के संबंध में यह प्रावधान बड़ा महत्वपूर्ण था क्योंकि यहां कांग्रेस की सरकार थी जिसे डर था कि पूर्वी समूह में उसे मुस्लिम लीग द्वारा शासित बंगाल के दबदबे का सामना करना पड़ेगा. इस प्रावधान का मतलब था कि असम समूह से अलग हो सकता था. प्रांतों को समूह से अलग होने का अधिकार तो था लेकिन वे संघ से अलग नहीं हो सकते थे और इससे केंद्र को ताकत मिलती.
खींचतान कैसे शुरू हुई
शुरू में कांग्रेस ने यह योजना स्वीकार कर ली. मुस्लिम लीग भी इसपर सहमत थी. हालांकि औपचारिक स्वीकारोक्ति के बाद भी कांग्रेस इस बात से नाखुश थी कि केंद्र को बहुत कम शक्तियां दी गई हैं. योजना के मुताबिक केंद्र के पास रक्षा, विदेश मामले और संचार से जुड़े विषयों पर ही अधिकार थे. लेकिन प्रांतों के समूह बनने से केंद्र की ये शक्तियां और भी सीमित हो रही थीं.
संयुक्त भारत दो ध्रुवों के बीच संतुलन साधने के लिहाज से बेहतरीन विचार था लेकिन इसने कांग्रेस और लीग के बीच एक लड़ाई छेड़ दी
उस समय जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के नए अध्यक्ष बने थे. उन्होंने 10 जुलाई, 1946 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कांग्रेस की ये चिंताएं सार्वजनिक कर दीं. एक धमाका करते हुए उन्होंने कहा कि कांग्रेस को नहीं लगता कि वह योजना की शर्तों से बंधी है. इसके साथ ही नेहरू ने प्रांतों के समूह बनाने के विचार के खिलाफ भी अपनी राय दी. इसकी प्रतिक्रिया में लीग भी योजना से पीछे हट गई.
अधर में संयुक्त भारत
अब संयुक्त भारत की कोई भी परिकल्पना आखिरी सांसे गिन रही थी. संयुक्त भारत दो ध्रुवों के बीच संतुलन साधने के लिहाज से बेहतरीन विचार था लेकिन, इसने कांग्रेस और लीग के बीच एक लड़ाई छेड़ दी और अब संयुक्त भारत की संभावना तकरीबन खत्म हो गई.
अगले छह महीने तक संयुक्त भारत के इस खारिज हो चुके विचार पर कानूनी लड़ाई चलती रही. कांग्रेस का कहना था कि प्रांतों का समूह बनाना कैबिनेट मिशन योजना के प्रस्ताव का अनिवार्य हिस्सा नहीं है. मुस्लिम लीग ने इससे सीधी असहमति जताई. उसका दावा था कि प्रांतों का समूह बनाना बहुत जरूरी है. जिन्ना के मुताबिक यह कैबिनेट मिशन योजना का ‘मुख्य भाग’ था. आखिरकार छह दिसंबर, 1946 में अंग्रेजों ने लीग का पक्ष लिया और घोषणा की कि प्रांतों का समूह बनाना कैबिनेट मिशन योजना का बुनियादी हिस्सा था.
अब कांग्रेस के पास एक विकल्प चुनने का रास्ता बचा था. प्रांतों के समूह और एक कमजोर केंद्र के पक्ष में सहमति जताकर पार्टी संयुक्त भारत का चुनाव कर सकती थी या फिर विभाजन का
विभाजन कांग्रेस का चुनाव था
आखिरी चेतावनी मिल चुकी थी और अब कांग्रेस को एक विकल्प चुनना था. प्रांतों के समूह और एक कमजोर केंद्र के पक्ष में सहमति जताकर पार्टी संयुक्त भारत का चुनाव कर सकती थी या फिर विभाजन का. कुछ महीने तक वह आगे-पीछे होती रही, इस दौरान चारों तरफ अराजकता बढ़ने लगी और फिर कांग्रेस ने विभाजन पर सहमति जता दी.
आठ मार्च, 1947 को कांग्रेस ने पहली बार औपचारिक रूप से सांप्रदायिक आधार पर पंजाब के विभाजन की बात कह दी. कांग्रेस ने बंगाल विभाजन की हिंदू महासभा की मांग का भी समर्थन कर दिया.
कांग्रेस ने एक लंबे अरसे तक संयुक्त भारत के लिए लड़ाई लड़ी थी इसलिए उसके इस रुख का विरोध भी हुआ. बंगाल में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता शरत चंद्र बोस (सुभाषचंद्र बोस के बड़े भाई) ने बंगाल विभाजन का विरोध किया. 27 मई, 1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ‘मुझे डर है कि आनेवाली पीढ़ियां बंगाल, पंजाब और भारत के विभाजन के खिलाफ घुटने टेकने के लिए हमें कटघरे में खड़ा करेंगी.’ बोस कांग्रेस की इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते थे कि जनता विभाजन चाहती है. उन्होंने आगे लिखा, ‘यह सही नहीं है कि बंगाली हिंदू एकमत से विभाजन चाहते हैं. विभाजन की मांग मध्यमवर्ग तक ही सीमित है.’
बोस भले ही इसबात से असहमत थे लेकिन अबतक कांग्रेस नेतृत्व मान चुका था कि विभाजन ही एकमात्र समाधान है. विभाजन की रूपरेखा वल्लभ भाई पटेल के करीबी एक मलयाली नौकरशाह, वीपी मेनन ने बनाई थी. ब्रितानी शासन ने इसे मान लिया. अब ब्रिटेन को इसबात की परवाह नहीं थी कि भारत का क्या होता है. उसे किसी भी तरह जल्दी से जल्दी इस जिम्मेदारी से मुक्त होना था. जिन्ना विभाजन की इस योजना के खिलाफ थे. उनका कानूनी तर्क था कि चूंकि कैबिनेट मिशन योजना खत्म हो चुकी है इसलिए तकनीकी रूप से 1942 की संवैधानिक योजना यानी क्रिप्स मिशन को अब लागू किया जाए (जिसमें सभी शक्तियां प्रांतों को दी गई थीं और केंद्र के पास कोई शक्ति नहीं थी). हालांकि वायसराय लुईस माऊंटबेटन ने जिन्ना की इस आपत्ति को खारिज कर दिया और तीन जून को विभाजन योजना की घोषणा कर दी.
यदि आज के हिसाब से हम देखें तो अखंड भारत पृथ्वी का सबसे बड़ा देश होता और जिसकी आबादी चीन की आबादी से 20 प्रतिशत ज्यादा होती
क्या यह सही फैसला था?
क्या कांग्रेस ने सही कदम उठाया था? क्या उसे कैबिनेट मिशन योजना को खारिज करके संयुक्त भारत के सपने को खत्म करना चाहिए था? कुछ इतिहासकारों के हिसाब से यह गलती थी. प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ एचएम सीरवाई कहते हैं कि कैबिनेट मिशन योजना को खारिज करने के पीछे कांग्रेस के इरादे सही नहीं ठहराए जा सकते.
इसपर बहस काफी उलझी हुई हो सकती है फिर भी यह देखा जाना जरूरी है आखिर कांग्रेस ने यह फैसला क्यों किया. एक वजह तो साफ है : कांग्रेस सत्ता हासिल करना चाहती थी. यह उसकी एक बड़ी गलती कही जाती है लेकिन किसी भी राजनैतिक पार्टी का मकसद यही होता है.
इस पहलू पर भी विचार करना जरूरी है कि कैबिनेट मिशन का तीन स्तरीय संघीय शासन का प्रस्ताव व्यवहारिक था या फिर अंग्रेजों के जाने के बाद यह इस क्षेत्र में लगातार चलने वाले एक संघर्ष की वजह बन जाता.
यदि आज के हिसाब से हम देखें तो राम माधव के सपनों का अखंड भारत आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा देश होता जिसकी आबादी चीन की आबादी से 20 प्रतिशत ज्यादा होती. लेकिन क्या इतनी बड़ी आबादी को संभालना आसान होता? इनके जो शुरुआती मुद्दे होते उन्हें ही सुलझाने देश की कितनी ऊर्जा बर्बाद होती और फिर इस महादेश के पास अपना विकास करने के लिए कितना समय बचता?
इस समय भारत अपनी पूरी आबादी को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए ही संघर्ष कर रहा है. देश में शिशु मृत्युदर कीनिया और बोत्सवाना से भी बदतर है. हमारे यहां 2008 में पांच साल से कम उम्र के 43 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वजन के थे जबकि सोमालिया (32 प्रतिशत) और रवांडा (11 प्रतिशत) इस मामले में बेहतर थे.
यदि 1946 में राष्ट्र निर्माताओं को एहसास था कि प्रांतों का समूह बनाना अव्यवस्था पैदा करने वाला विचार है तो आज के हिसाब से तीन संप्रभु राष्ट्रों को मिलाकर बना ‘अखंड भारत’ कितना अराजक हो सकता है? भारत जिसे अभी अपनी जनसंख्या के बड़े हिस्से की बुनियादी जरूरतें पूरी करनी हैं, क्या इस तरह की सनकभरी कल्पनाएं करने का भी जोखिम उठा सकता है? अखंड भारत का विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी इमारतों में भगवा रंग से बने नक्शों तक तो ठीक है लेकिन असलियत में इसकी कल्पना भी व्यवहारिक नहीं है.
(साभार)