डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
कानूनी प्रावधानों, तत्काल कार्यवाही, सख्त सजा के बावजूद अभी तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसे में जो सबसे जरूरी बात है वह समाज की मानसिकता में बदलाव की है। दूसरा यह कि हम नई पीढ़ी को जो परोस रहे हैं उसमें बदलाव की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों में एक बार फिर महिलाओं के खिलाफ अपराध के दहलाने वाले आंकड़ों और हाथरस व देश के कोनों-कोनों में महिलाओं के खिलाफ हो रही नित नई घटनाओं को देखते हुए केन्द्र सरकार ने पहल करके राज्य सरकारों को नई एडवाइजरी जारी कर दी है। केन्द्र सरकार द्वारा जारी एडवाइजरी में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न के मामलों में तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने, क्षेत्राधिकार का विवाद हो तो जीरो एफआईआर दर्ज करने, दो माह में जांच पूरी करने और मृत्यु के समय दिए गए बयान को महत्व दिए जाने के निर्देश दिए हैं। ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज नहीं करने वाले अधिकारी के खिलाफ सजा तक का प्रावधान करने के साथ ही रेप की सूचना मिलने के 24 घंटों में पीड़िता की सहमति से रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर से जांच कराने और यौन शोषण के मामलों में फॉरेंसिक सबूत एकत्रित करने की गाइडलाइन बनाई है। ऐसे मामलों की जांच प्रगति की मॉनिटरिंग के लिए केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने एक पोर्टल भी बनाया है जिसके माध्यम से मॉनिटरिंग की जाएगी।
दरअसल ज्यों ज्यों दवा दी त्यों त्यों मर्ज बढ़ते जाने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है महिला उत्पीड़न के मामलों में। साल दर साल मामलों में बढ़ोतरी ही हो रही है। याद करें जब दिल्ली में निर्भया काण्ड हुआ था तब पूरा देश हिल गया था। दिल्ली सहित समूचे देश में विरोध प्रदर्शनों, कैण्डल मार्च सहित ना जाने कितनी तरह के मार्च व विरोध प्रदर्शन देखने को मिले। सरकार ने कानून को और अधिक कठोर बनाया पर परिणाम यह रहा कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। एनसीआबी की हालिया रिपोर्ट में देश में साल 2019 में 4 लाख 5 हजार 861 मामले दर्ज किए गए हैं। इसका सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि देश में प्रतिदिन 87 मामले महिला उत्पीड़न के दर्ज हो रहे हैं। महिलाओें के खिलाफ अत्याचार के मामलों में एक साल में ही 7.3 फीसदी की बढ़ोतरी रही है। हैरानी की बात यह है कि 30.9 फीसदी मामलों में दोषी कोई और नहीं अपितु नाते-रिश्तेदार हैं जिनमें महिला का पति भी शामिल है। यह तो वो मामले हैं जो दर्ज हुए हैं। पर इसे अतिश्योक्ति नहीं माना जाना चाहिए पर यह सत्य के नजदीक ही है कि इतने या इतनों से भी अधिक मामले तो पुलिस तक पहुंचते ही नहीं हैं। सवाल यह है कि आखिर हो क्या रहा है ? क्यों हमारी मानसिकता विकृत होती जा रही है ? पिछले दिनों कंगना रनौत के बहाने सुनहरे पर्दे की अंदर की कहानी उजागर हुई है। सवाल इसका गलत या सही होने का नहीं है, सवाल यह भी नहीं है कि कुछ अति करके बताया जा रहा है पर इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि सुनहरे पर्दे की अंदरूनी दुनिया में कुछ ना कुछ गलत तो अवश्य है।
एक प्रश्न अपने आप में गंभीर है कि इस तरह की घटनाओं को राजनीतिक व जातिवादी और धार्मिक रूप देने के प्रयास भी हो जाते हैं और थोड़े दिनों तक आपस में छिछालेदारी के बाद सब कुछ पहले के जैसे होने लगता है। याद करें दुनियाभर में जब मी टू आंदोलन चला, सारी दुनिया हिल गई पर दुनिया के किसी भी कोने में महिला अपराधों में कमी आई हो यह देखने को नहीं मिल रहा। कानून में सख्ती, फास्ट ट्रैक अदालतों, सरकारी एडवाइजरी और ना जाने कितने प्रयासों के बावजूद वही ढाक के तीन पात देखने को मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि कानून सजा नहीं देता है, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अब ऐसे मामलों में न्यायालयों द्वारा जल्दी फैसले दिए जाने लगे हैं। निर्भया मामलें में फांसी की सजा या पिछले दिनों जयपुर में गए साल के ही थानागाजी प्रकरण में दोषियों को मृत्यु होने तक के आजीवन कारावास की सजा आदि को कम कर नहीं आंका जा सकता। पर तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि लोगों में भय अभी तक व्याप्त नहीं हुआ है। अपराधियों में भय होना सबसे जरूरी है पर अपराधी अपराध करने में बेहिचक लगे हुए हैं। अपराधियों की हिम्मत देखिए कि गैंगरेप जैसी वारदात कर देते हैं, अगवा कर लेते हैं और तो और वीडियो बना लेते हैं और फिर उसे सार्वजनिक करने में भी नहीं हिचकते हैं। आखिर यह विकृत मानसिकता नहीं तो और क्या है ?
दरअसल कानूनी प्रावधानों, तत्काल कार्यवाही, सख्त सजा के बावजूद अभी तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसे में जो सबसे जरूरी बात है वह समाज की मानसिकता में बदलाव की है। दूसरा यह कि हम नई पीढ़ी को जो परोस रहे हैं उसमें बदलाव की आवश्यकता है। घर-घर में टेलीविजन की पहुंच और उनमें टीआरपी के चलते द्विअर्थी संवादों से भरे सीरियलों, सीरियलों में शादी ऐसे जैसे कपड़े बदलते हैं या आए दिन ब्वॉय फ्रेण्ड बदलने या साजिशों से भरे सीरियलों के चलते मानसिकता कुंठित होना स्वाभाविक है। इसके साथ ही टीवी चैनलों पर क्राइम को लेकर जिस तरह के एपिसोड दिखाए जाते हैं वे भी क्राइम की ओर धकेलने में अपनी भूमिका निभाते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिकता के नाम पर हमारा रहन-सहन, जीवन शैली, खान-पान सबकुछ प्रदूषित होता जा रहा है। अब तो लिव-इन का नया कांसेप्ट आ गया है जो मर्जी से साथ रहते-रहते कब जबरदस्ती में बदल जाता है यह छुपा हुआ नहीं है। हनी ट्रैप के मामलें भी सभी के सामने हैं। ऐसे में जो हालात देखने को मिल रहे हैं वह भयावह होंगे ही।
दरअसल कैंडल प्रदर्शनों, आंदोलनों, कानून में सख्ती, तत्काल कार्यवाही, सख्त सजा के साथ ही मानसिकता में बदलाव किया जाना जरूरी है। याद कीजिए जब रेप के एक मामले पर पिछले दिनों दक्षिण भारत में पकड़े दोषियों के साथ एनकाउंटर का मामला सामने आया तो सभी हो हल्ला करने लगे। सबको मानवीयता याद आ गई। एक बात साफ हो जानी चाहिए कि सरकार के भरोसे कुछ अधिक नहीं हो सकता। जरूरी है समाज में परिष्कार की। इसके लिए प्रतिक्रियावादियों, समाजसेवियों, गैरसरकारी संगठनों और राजनीतिक दलों को एक स्तर से ऊँचा उठकर लोगों में जागरूकता पैदा करनी होगी। समझ पैदा करनी होगी। सामाजिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना होगा तभी जाकर कुछ समाधान मिल सकता है।
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