विभाजन की पीड़ा के 66 वर्ष
आशुतोष
15 अगस्त। भारत का स्वतंत्रता दिवस। हजार वर्ष की परतंत्रता और उसके विरुद्ध लड़े गये निरंतर संग्राम में से यह स्वतंत्रता प्रकट हुई थी। लेकिन यह स्वतंत्रता अपने साथ मुठ्ठी भर खुशियां लायी तो झोली भर पीड़ा। हजार साल की गुलामी में हमने भारत के जिस भू- भाग को कभी अपने से अलग नहीं माना, वह पल भर में पराया हो गया। इतना पराया कि वह कभी फिर से हमसे आ मिलेगा, यह उम्मीद भी नहीं रही।
14 अगस्त की भोर के साथ ही पाकिस्तान का उदय हुआ और भारत का एक भाग कट कर अलग हो गया। देश के तत्कालीन राजनेताओं के दिवास्वप्न टूट गये। एकता के लिये सब कुछ कुर्बान करने की बातें भी निरर्थक साबित हुईं। इस्लाम के नाम पर एक भावोद्रेक उमड़ा और सदियों की एकता को बहा ले गया। लाखों लोग मारे गये। महिलाओं की लाज लुटी और नरसंहार का जो भीषण दौर चला वह अभूतपूर्व था।
केवल 90 वर्ष पहले 1857 के स्वातंत्र्य समर में कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाले मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना यह समझाने में सफल रहे कि मुस्लिम अलग राष्ट्र हंल और हिन्दुओं के साथ मिल कर रह पाना उनके लिये असंभव है। भारत के मुस्लिम समाज के लिये यह किसी विडंबना से कम नहीं कि वह पांच वक्त के नमाजी और एकता के समर्थक मौलाना अबुल कलाम आजाद और सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां को छोड़ व्यक्तिगत जीवन में इस्लाम से कोसों दूर रहे जिन्ना के पीछे चल पड़ा।
पाकिस्तान की मांग के पीछे मुहम्मद इकबाल या जिन्ना या लियाकत अली नहीं बल्कि अंग्रेजों की कपट नीति थी, यह अब आइने की तरह साफ है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने को मजबूर अंग्रेजों ने उसकी प्रगति के रास्ते में क्या-क्या कांटे बिछाने की साजिश रची है, यह तब कम लोग ही जानते थे।
आज इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं कि अंग्रेजों ने जिन्ना का अपने हित में उपयोग किया तथा भावनाओं का ऐसा तीव्र ज्वार उत्पन्न किया कि हजारों पीढ़ियों से चली आ रही पूर्वजों की थाती बंट गयी। भारतीय उपमहाद्वीप ने इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अपने देश का सपना ले कर जो लोग भारत छोड़ कर गये वे आज नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। कल्पना लोक का वह स्वर्ग आज दुनियां भर में आतंक के स्रोत के रूप में जाना जाता है। ओसामा सहित तमाम आतंकवादियों की यह शरणस्थली बना है।
भारतीयों की आस्था के केन्द्र ननकाना साहब, हिंगलाज मंदिर और शारदा पीठ इस विभाजन में हमसे दूर हो गये। चाणक्य की स्मृति दिलाने वाला तक्षशिला आज भारत में नहीं है। जिस सिंधु के तट पर भारतीय सभ्यता ने आंखें खोलीं, वेदों की रचना हुई, उसके एक बहुत छोटे हिस्से से ही हमारा संबंध बचा है। कैलाश पर्वत के शिखर और मानसरोवर झील अब भारत में नहीं है। जिन शिखरों पर भारतीय सैनिकों की विजयवाहिनी ने अपने पदचिन्ह छोड़े, आज वहां हमारे नागरिक जा भी नहीं सकते।
अंग्रेजों ने जाते-जाते भारत के मानचित्र पर रेखा खींच कर जिस नये देश को जन्म दिया, उसने अपने इतिहास का प्रारंभ ही भारत पर आक्रमण के साथ किया। पश्चिमा पंजाब और पूर्वी बंगाल में हुए नरमेध न तो उसकी रक्तपिपासा को शांत कर सके थे और न ही भूमि की उसकी भूख को। अक्तूबर 1947 में ही उसने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। भारत और पाकिस्तान दोनों का ही तत्कालीन नेतृत्व भारत विभाजन के अंग्रेज-अमेरिकी षड्यंत्र में मोहरे की भूमिका में ही था। विश्व के युद्ध इतिहास का यह अद्वितीय उदाहरण है जब भारत के सर्वोच्च सेनाधिकारी, पाकिस्तान के सर्वोच्च सेनाधिकारी दोनों की संयुक्त कमांड के प्रमुख, सभी अंग्रेज थे । भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन भी अंग्रेज थे जो ब्रिटिश राजघराने के बेहद नजदीक थे। इसके बावजूद दोनों देशों की सेनाएं युद्धरत थीं।
पाकिस्तान की ओर से सेना लगातार आक्रमण कर रही थी जिसे वहां के अंग्रेज सेनाधिकारियों का सहयोग मिल रहा था। इधर माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री नेहरू पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए भारत की सेनाओं को आगे बढ़ने से रोका और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मामला ले जाने के लिये प्रेरित किया। सुरक्षा परिषद ने आक्रांता और पीडित को एक ही तराजू पर तोला। सुरक्षा परिषद में आने वाले हर प्रस्ताव में पलड़ा पाकिस्तान की ओर झुका रहा। परिणामस्वरूप भारत के 84 हजार वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा बना रहा। इसमें से 5 हजार वर्गकिमी से अधिक उसने चीन को भेंट कर दिया।
प्रश्न उभरते हैं कि – क्या हम उस एंग्लो-अमेरिकन जाल से बाहर आ सके हैं ? क्या भारत अपने भू-भाग को शत्रुओं के कब्जे से मुक्त करा सका है ? क्या जो भू-भाग हमारे पास है, उसे हम ठीक तरह से संभाल पा रहे हैं ? क्या हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं ? क्या युद्ध की स्थिति के लिये हमारी सेनाएं तैयार हैं ? यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं में है तो इससे भी बड़ा प्रश्न है कि यह स्थिति बदले, इसके लिये क्या हमने कोई ठोस उपाय किये हैं ?
वस्तुस्थिति यह है कि शत्रु सीमा पर ही चुनौती नहीं दे रहा है बल्कि वह हमारे घर में भी आ घुसा है। स्वतंत्रता के 65 वर्षों में हमने इस स्थिति को बदलने के लिये कोई योजनाबद्ध प्रयास नहीं किया है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मोहरा हम आज भी बने हुए हैं। हमें शांति का उपदेश देने वाली कथित विश्वशक्तियां पाकिस्तान को आज भी समर्थन दे रही हैं, हथियार दे रही हैं, उसे आतंकवाद के विरुद्ध अपना साथी बता रही हैं। चीन लगातार भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर रहा है और देश का नेतृत्व बगलें झांक रहा है। अपनी सीमा में घुसपैठ करने पर भी हम चीनी सैनिकों को खदेड़ने के बजाय उनके सामने गिड़गिड़ाते नजर आते हैं। हाल ही में बड़े जोश में चीन से निपटने के लिये 50 हजार सैनिकों को सशस्त्र बल में शामिल करने की घोषणा की गयी है। लेकिन यदि उन्हें गोली चलाने की अनुमति ही नहीं होगी तो वे क्या कर लेंगे ? दुश्मन के सैनिक ही नहीं, श्रीनगर के गली-मुहल्ले के लफंगे भी भारतीय सेना पर पत्थर फेंकते हैं और सेना के हाथ बंधे हुए हैं। सेना की इस दयनीय स्थिति के लिये क्या तुष्टिकरण की राजनीति जिम्मेदार नहीं है ? दर्जनों आतंकवादियों को मार गिराने वाले सैनिक और पुलिस अधिकारियों को झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है और इसे विश्वास बहाली की प्रक्रिया का नाम दिया जा रहा है।
तमिलनाडु में हाल ही में भाजपा के एक प्रमुख पदाधिकारी की हत्या कर दी गयी। मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा राष्ट्रवाद के समर्थकों की यह पहली हत्या नहीं थी। इसकी एक लंबी श्रंखला है। केरल और आंध्रप्रदेश में स्थिति इससे भी भयावह है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और ओडिशा के अनेक अंचल माओवादियों की गिरफ्त में हैं। अनेक बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता इन हत्यारों के मानवाधिकारों के लिये सड़क से सर्वोच्च न्यायालय तक इनकी पैरवी करते घूम रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि को सामने रख कर विचार करने पर लगता है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत ने अपनी पहचान को बनाये रखने, जो भू-भाग और लोग उससे बिछुड़ गये हैं उन्हें वापस मिलाने, प्रकृति द्वारा निर्मित भारत की सीमाओं को अक्षुण्ण करने, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को सुदृढ़ करने तथा भारत को सशक्त, समृद्ध और स्वावलम्बी राष्ट्र के रूप में विश्वमालिका में स्थान दिलाने के लिये जितनी शक्ति के साथ प्रयत्न किये जाने आवश्यक थे वे नहीं किये।
इस बार का स्वतंत्रता दिवस मनाते समय हमारे नेत्रों के सामने अखण्ड भारत का मानचित्र रहे तो मस्तिष्क में उन प्रश्नों पर मंथन चले, अपनी कमजोरियों और असफलताओं का विचार हो जिनके चलते हम अपनी यात्रा ठीक प्रकार से पूरी कर पाने में असमर्थ रहे। हमारे साथ ही स्वतंत्रता पाने वाले अनेक राष्ट्र हमसे कहीं आगे हैं। दोष किसी का भी हो, कलंक हम पर भी है। जब दुनियां में सबसे ज्यादा गरीब, सबसे अधिक निरक्षर, सर्वाधिक कुपोषित, सबसे ज्यादा नेत्रहीन, बीमारियों से ग्रस्त लोगों की बात होती है और सबसे अंतिम सीढ़ी पर खड़े देशों में भारत का नाम आता है तो अपमानित हम भी होते हैं।
यह तर्क दिया जा सकता है कि इसमें नयी पीढ़ी का कोई दोष नहीं। तथ्यरूप में यह ठीक भी है। किन्तु नई पीढ़ी के सामने ही यह प्रश्न भी है कि क्या वे आने वाले अनेक दशकों तक यथास्थिति मं, जीने के लिये तैयार हैं ? क्या उन्हें स्वीकार है कि वे अंग्रेजों के बनाये कानूनों से आज भी शासित हों, छोटे-छोटे पडोसी देशों से भयभीत होकर रहें, दुनियां की शक्तियां उन्हें कठपुतली की तरह नचाती रहें और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निर्देश पर यहां की आर्थिक नीतियां निर्धारित हों ? क्या उनके रहते देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट चलती रहेगी, सत्ता प्रतिष्ठान भ्रष्टाचार के अड्डे बने रहेंगे, गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ती जायेगी और देश कर्ज के ढ़ेर तले दबता जायेगा ? क्या आधुनिकता के नाम पर नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दी जायेगी, विकास के नाम पर पर्यावरण के विरुद्ध नीतियां बनेंगी, नदियां, जंगल पहाड़, सब नष्ट कर दिये जायेंगे और इन्हें बेच कर होने वाली आय स्विट्जरलैंड और मॉरीशस की बैंकों जमा कर दी जायेगी ?
यदि यह सब स्वीकार नहीं है तो आने वाला स्वतंत्रता दिवस देश के युवाओं के लिये संकल्प का दिवस बने, यही अपेक्षित है। यही वह दिन है जब भारत की अखण्डता को छिन्न-भिन्न कर पाकिस्तान को अप्राकृतिक रूप से जन्म दिया गया। इस बार का स्वतंत्रता दिवस आधुनिक इतिहास का एक प्रस्थान बिन्दु बने, यह कामना है।