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विशेष संपादकीय

भारत में सभी सवर्ण हैं

भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज को विभाजित करने के लिए और जातीय विखण्डन पैदा करने के लिए भारत में कुछ लोगों ने अगड़े-पिछड़े, सवर्ण व शूद्र आदि का विवाद खड़ा किया है। इस विवाद को ऐसे लोगों ने कुछ राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत होकर कुछ ने अज्ञानता वश जन्म दिया है। जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करना सचमुच बड़ा सरल है, परंतु जनता को सच-सच समझाकर उसे सच का पुजारी बनाना बड़ा कठिन है। भारत के विषय में यह सच नही है कि यहां पर कुछ लोग तो सवर्ण हों, और कुछ सवर्ण ना हों। सवर्ण के अर्थ पर भी विचार किया जाए उससे भी स्पष्ट होता है, सवर्ण का अर्थ वर्ण सहित है। जिसका वर्ण है वह सवर्ण है। भारत में मनु महाराज ने जो वर्ण व्यवस्था हमें दी उसके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र ये चार वर्ण हैं। अज्ञानता वश लोगों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को तो सवर्ण माना है जबकि शूद्र को सवर्ण नही माना। जबकि शूद्र भी सवर्ण है क्योंकि उसने भी एक वर्ण अर्थात शूद्र वर्ण को धारण कर रखा है।
मनु महाराज ने जन्म से सभी को शूद्र उत्पन्न हुआ माना है। मनु महाराज का कहना है-जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते। इसका अर्थ है कि सभी लोग जन्म से तो शूद्र ही उत्पन्न होते हैं, परंतु संस्कारों से सभी द्विज कहे जाते हैं। इस प्रकार यह स्पष्टï हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति संस्कारों से ही द्विज बनता है। मूलरूप में तो सभी शूद्र हैं। जिन लोगों ने मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था को भारत की जातीय व्यवस्था की वर्तमान दुखदायी स्थिति में पहुंचाया वह लोग भी भारत के और भारतीयता के शत्रु ही कहे जाएंगे। परंतु दुख तब होता है जब हमारे राजनीतिज्ञ भी निहित स्वार्थों में समाज को बांटने के लिए और अपना वोट बैंक सुदृढ़ करने के लिए मनु महाराज की भावनाओं को समझकर भी ना समझने का प्रयास करते हैं और समाज को जातीय व्यवस्था में विभाजित करने का प्रयास करते हैं। जबकि वर्ण व्यवस्था पूर्णत: वैज्ञानिक है और जातीय व्यवस्था मानवकृत है। वर्ण व्यवस्था के वैज्ञानिक स्वरूप से कोई हानि समाज को नही होती जबकि जातीय व्यवस्था से नितांत हानि ही हानि होती है।
आज हमें जातीय व्यवस्था पर प्रहार करते हुए बहुसंख्यक समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करना चाहिए। राष्टï्रहित में यह कार्य जितनी शीघ्रता से संपन्न कर लिया जाएगा उतना ही अच्छा होगा। इसके लिए विचार गोष्ठियों का आयोजन हो, साथ ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम में ऐसे पाठों का समावेश किया जाए जिनसे समाज में वास्तविक समरसता और समानता का भाव विकसित हो। हमें स्वामी विवेकानंद जी का स्वदेश मंत्र स्मरण रखना होगा। जिसमें उन्होंने कहा था-हे भारत! केवल दूसरों की हां में मिलाकर दूसरों की इस क्षुद्र नकल के द्वारा दूसरों का ही मुंह ताकते रहकर क्या तू इसी पाथेय के सहारे, सभ्यता और महानता के चरम शिखर पर चढ़ सकेगा? क्या तू अपनी इस लज्जास्पद कायरता के द्वारा उस स्वाधीनता को प्राप्त कर सकेगा जिसे पाने के अधिकारी केवल साहसी और वीर हैं?
हे भारत! मत भूल, तेरा नारीत्व का आदर्श सीता, सावित्री और दमयंती हैं। मत भूल कि तेरे उपास्य देव देवाधिदेव सर्वस्वत्यागी शंकर है। मत भूल कि तेरा विवाह, तेरी धन संपत्ति, तेरे जीवन केवल विषय सुख के हेतु नही है, केवल तेरी व्यक्गितगत सुखोपयोग के लिए नही है। मत भूल कि तू माता के चरणों में बलि चढ़ने के लिए ही पैदा हुआ है। मत भूल कि तेरी समाज व्यवस्था उस अनंत जगज्जननी महामाया की छाया मात्र है। मत भूल कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, अपढ़, चमार, मेहतर सब तेरे रक्त मांस के हैं, वे सब तेरे भाई हैं। ओ वीर पुरूष साहस बटोर, निर्भीक बन और गर्व कर कि तू भारतवासी है। गर्व से घोषणा कर कि मैं भारतीवासी हूं, प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।
मुख से बोल, अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र और पीड़ित भारतवासी, ब्राह्मïण भारतवासी, चांडाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। तू भी एक चीथड़े से अपने तन की लज्जा को ढक ले और गर्वपूर्वक उच्च स्वर से उद्घोष कर, प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देवी देवता मेरे ईश्वर हैं। भारतवर्ष का समाज में बचपन का झूला, मेरे यौबन की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है, मेरे भाई कह, भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है। अहोरात्र जपा कर, हे गौरीनाथ, हे जगदम्बे, मुझे मनुष्यत्व दो। हे शक्तिमयी मां मेरी दुर्बलता को हर लो, मेरी कापुरूषता को दूर भगा दो और मुझे मनुष्य बना दो मां।
आज हमें विवेकानंद जी की इसी दृष्टि को अपनाकर आगे बढ़ना है। खतरा हिंदू समाज के लिए भयंकर है, यदि हम नही संभले तो महाविनाश के सिवाय कुछ हाथ नही आने वाला। समय रहते चेतने में ही लाभ है।

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