तेजस्वी के तेज में, आयु न आड़ै आय
दुर्जन हो दरबार में,
सुंदर वदन कुबोल।
सज्जन होय दरिद्र तो,
लोग उड़ावें मखोल ।। 265 ।।
लालच पाप का मूल है,
भक्ति का है धर्म।
विद्या मूल है ज्ञान की,
स्वर्ग का है सत्कर्म ।। 266।।
तीरथ करे तो संग रख,
मन में निर्मल भाव।
यूं ही अकारथ जाएगा,
जब तक दुष्ट स्वभाव।। 267 ।।
बंधु बांधव श्रेष्ठजन,
जो जन झेल न पाय।
पर नारी और संपदा,
दुष्ट को नही सुहाय ।। 268।।
विद्या का सागर बहै,
फिर भी दुष्ट कहाय।
मणिधर होवै नाग तो,
पास कोई न जाए ।। 269 ।।
इस नश्वर संसार में,
आया है सो जाए।
जनम सार्थक उसी का,
जो कुल कीर्ति बढ़ाय ।। 270 ।।
सत्संगति जड़ता हरै,
वाणी में लाय मिठास।
मन को रखे मोद में,
यश का करै प्रकाश ।। 271 ।।
सेवक स्वजन पर सदा,
रखो दया का भाव।
अबला के संग शिष्टता,
शत्रु वीर-बर्ताव ।। 272 ।।
विद्या ऐसा गुप्त धन,
जो यश सुख की खान।
विद्या विहीन मनुष्य तो,
होता पशु समान ।। 273 ।।
विद्या भूषण श्रेष्ठ है,
अनमोल रतन धन खान।
जो इससे भूषित हुआ,
एक दिन बना महान ।। 274 ।।
आत्मसंयम गुण बड़ा,
बिरला पावै कोय।
जो इससे सज्जित हुआ,
बनै दीए की लोय ।। 275 ।।
मानव पिंजरा रच दियौ,
पांच तत्व गुण तीन।
इसकी शोभा तब बढ़ै,
जब नर होय कुलीन ।। 276 ।।
वंश नष्ट हो कुपूत से,
संन्यासी अनुराग।
राजा क्षुद्र सलाह से,
वन को खावै आग ।। 277 ।।
सोने में सब गुण निहित,
दर्शनीय विद्वान।
उत्तम वक्ता है वही,
सभी गुणों की खान ।। 278 ।।
भेड़ों में शावक रहै,
पर पहचाना जाए।
तेजस्वी के तेज में,
आयु न आड़ै आय ।। 279।।
जल का रस तो औषधि,
ऋचाओं का है ओउम् ।
वाणी रस है मनुष्य का,
जब बरसावै सोम ।। 280 ।।
जेवर कितना की कीमती,
चमक घटै हर रोज।
एक वाणी को साध ले,
बढ़ै दिनों-दिन ओज ।। 281।।
पानी रोके आग को,
औषधि रोके रोग।
उनका कोई इलाज ना,
जितने मूरख लोग ।। 282।।
हिमालय से गंगा गिरी,
पहुंच गई पाताल।
विवेक भ्रष्ट जो लोग हैं,
उनका भी यही हाल ।। 283 ।।
पतन दिखाई दे नहीं,
जब होवै शुरूआत।
त्रुटि के क्षण को संभालिए,
लाख रूपये की बात ।। 284 ।।
मैं भी तो सर्वज्ञ हूं,
मद में था मैं चूर।
ज्ञानी के ढिंग बैठकै,
दम्भ हो गया दूर ।। 285 ।। क्रमश: