राजनीति में प्रत्येक व्यक्ति की यह आवश्यकता होती है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करने के लिए ऐसी तिकड़में चले जिससे वह व्यक्ति प्रतियोगिता में आगे न निकल सके , परंतु किसी ‘महात्मा’ के यहाँ ऐसी किसी तिकड़म को या षड़यंत्र को स्थान नहीं दिया जाता। वह तो बड़े सहज भाव से अपने साथियों की सहायता करता है और उन्हें आगे बढ़ने का आशीर्वाद भी देता है। यदि इस कसौटी पर महात्मा गांधी को कसकर देखा जाए तो वह निरे राजनीतिज्ञ ही दिखाई देते हैं । राजनीति की वे सारी कमजोरियां उनके भीतर थीं जो एक राजनीतिज्ञ में मिलनी स्वभाविक होती हैं । अतः उन्हें राजनीति में महात्मा नहीं मानना बड़ा ही अतार्किक लगता है ।
बात 1928 की है। जब देश की जनता पूर्ण स्वाधीनता के लिए अंगड़ाई ले रही थी , पर पूर्ण स्वाधीनता के संकल्प को कांग्रेस का संकल्प बनाने में गांधीजी और उनके जैसे अन्य नरमपन्थी लोग रोड़े अटका रहे थे । वह नहीं चाहते थे कि देश पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प पारित करे। उन परिस्थितियों के बारे में इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखते हैं – ” 1928 के अन्त में देश भर में जोश का तूफान सा उमड़ रहा था। लोग न केवल अंग्रेजी सरकार से असन्तुष्ट थे ,अपितु अपने उन नेताओं से भी असन्तुष्ट होते जा रहे थे जो उन्हें धीरे-धीरे चलने को कहते थे । इस मानसिक दशा का पहला परिणाम यह हुआ कि राजनीति के चित्रपट से मॉडरेट या लिबरल दल (अर्थात गांधी जी की कॉन्ग्रेस ) का निशान लगभग मिट गया। दूसरा परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के अन्दर एक ऐसा दल प्रकट हो गया जो औपनिवेशिक स्वराज्य को अपना लक्ष्य मानने को तैयार नहीं था ।( वस्तुतः यह स्थिति गांधीजी की नीतियों के विरुद्ध सीधे विद्रोही भावना को प्रकट करती है ) महात्मा गांधी ,पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा अन्य बुजुर्ग नेता ‘औपनिवेशिक स्वराज्य’ से संतुष्ट होने को उद्यत थे । परन्तु नवयुवक दल चाहता था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना माना जाए। इस दल के नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा श्रीयुत सुभाष चन्द्र बोस थे । ”
उपरोक्त उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गांधीजी किसी भी स्थिति में भारत को पूर्ण स्वाधीनता दिलवाने के पक्षधर नहीं थे । वह ‘औपनिवेशिक स्वराज्य’ जैसे एक ऐसे विचार के फेर में पड़े हुए थे जो भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनाए रखने का समर्थक था । अतः यह कहना उचित नहीं है कि महात्मा गांधी प्रारंभ से ही इस विचारधारा के थे कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाला जाए और भारत को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त कर अपना मार्ग अपने आप निर्धारित करना चाहिए ।
कांग्रेस का कोलकाता अधिवेशन
इसी समय कांग्रेस ने अपना अधिवेशन कलकत्ता में रखा। कोलकाता में पण्डित मोतीलाल नेहरू को कांग्रेस का सभापति नियुक्त किया गया था। सुभाष चन्द्र बोस ने अपने नेता का स्वागत 16 घोड़ों की गाड़ी में बैठाकर एक गौरवमयी जुलूस निकालकर किया। ऐसी भव्यता को देखकर राजा – महाराजाओं का गर्व भी ढीला हो गया था । इस अधिवेशन के माध्यम से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ब्रिटिश सरकार को एक विशेष संदेश देना चाहते थे । उनकी सोच थी कि अब देश को और विशेषकर कांग्रेस को पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प प्रस्ताव पारित करना चाहिए । जिससे ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था भारत से समाप्त हो और भारत भविष्य के लिए अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त कर सके ।
सुभाष की एक ही इच्छा थी कि पूर्ण स्वाधीनता प्राप्ति का प्रस्ताव कांग्रेस कोलकाता की भूमि से ही पारित करे । गांधीजी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के कांग्रेस में बढ़ते कद को देखकर अपने आप को दुखी अनुभव करते थे । वह नहीं चाहते थे कि कॉन्ग्रेस नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे युवाओं के कहने में आकर पूर्ण स्वाधीनता प्राप्ति का संकल्प प्रस्ताव पारित करे । अपनी इसी सोच के चलते गांधीजी इस समय कांग्रेस से दूरी बना कर बैठे थे। उन्हें कांग्रेस के भीतर अपने विचारों से हटकर किसी परिवर्तन को स्वीकार करना तनिक भी स्वीकार नहीं था। पण्डित मोतीलाल नेहरु ने उन्हें एक ‘भक्त की पुकार ‘ जैसे शब्दों में बुलाया तो ‘कांग्रेस का भगवान’ गांधी सम्मेलन में प्रकट हो गया।
आज कांग्रेस व्यक्ति पूजा का विरोध करती है और अपने चरित्र को इस प्रकार दिखाने का प्रयास करती है कि उसके यहाँ पर व्यक्ति पूजा का विचार कभी हावी नहीं रहा । इसके विपरीत कांग्रेस में सदा ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्णय लिए जाते रहे हैं। जबकि कांग्रेसी मंच पर गांधी जी के आते ही कांग्रेस का लोकतांत्रिक स्वरूप पूर्णतया नष्ट हो गया था । वैसे यदि हम कांग्रेस के जन्म के समय की परिस्थितियों पर भी विचार करें तो ए0ओ0 ह्यूम ने भी कांग्रेस के बारे में कभी यह कल्पना नहीं की थी कि यह संस्था लोकतांत्रिक ढंग से अर्थात भारतीयता के हितों को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ेगी।
वास्तव में गांधी जी यहीं से सुभाषचन्द्र बोस के कट्टर विरोधी हो गए थे । वह नहीं चाहते थे कि सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में देश आगे बढ़े और सुभाष देश के लोगों की पूर्ण स्वाधीनता की भावना के प्रतीक बनें । गांधीजी राजनीति के एक चतुर खिलाड़ी थे और कब अपने विचारों को हावी और प्रभावी दिखाने के लिए कौन सी चाल चलना उचित रहेगा ? – इसे वह एक चतुर राजनीतिक खिलाड़ी की भांति भली प्रकार जानते थे । यही कारण था कि उन्होंने समय की और परिस्थितियों की आहट और तकाजे को पहचानते हुए यह निर्णय ले लिया कि नेहरू और सुभाष के बीच फूट डाली जाए , जब तक यह दोनों एक साथ रहेंगे तब तक उनकी अपनी ‘गोटी’ अपने सही स्थान पर फिट नहीं बैठ सकती थी।
सुभाष व नेहरू को किया अलग-अलग
अपनी इसी सोच और योजना को सिरे चढ़ाने के दृष्टिकोण से गांधीजी ने नेहरू और सुभाष के बीच फूट डालने की रणनीति पर कार्य करना आरम्भ किया और इसी अधिवेशन में पण्डित जवाहरलाल नेहरू को अपने पक्ष में कर लिया । कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के पश्चात कभी नेहरू ने फिर सुभाष चंद्र बोस की ओर मुड़ कर नहीं देखा । यह सब गांधी जी के ‘राजनीतिक मस्तिष्क’ का ही खेल था कि भारत को पूर्ण स्वाधीनता दिलवाने का संकल्प लेकर आगे बढ़ने वाले नेहरू और सुभाष नाम के ये दोनों युवा इसके पश्चात कभी एक साथ नहीं बैठ सके । दोनों की न केवल राहें अलग हुईं, बल्कि दोनों के राजनीतिक दर्शन में भी परिवर्तन आ गया । इसके बाद नेहरू गांधी के निकट होते चले गए और सुभाष को धीरे-धीरे मुख्य भूमिका से दूर फेंकने की योजना पर दोनों मिलकर कार्य करने लगे ।
यद्यपि कांग्रेस के अधिवेशन में उपस्थित लोगों में सुभाष बाबू के समर्थकों की संख्या का बहुमत था । पर गांधी जी की हठ के सामने सबकी भावनाओं पर तुषारापात हो गया। इस प्रकार गांधीजी की हठ की एक बार फिर से जीत हो गई। गांधीजी इस विषय में सौभाग्यशाली थे कि सबका विरोध होने पर भी अन्तिम विजय उनकी हठ की होती थी ।
तब देश का इतिहास ही कुछ और होता
नियति कितनी क्रूरता से देश को विभाजन की ओर ले जा रही थी ? महात्मा गांधी ने सुभाष बाबू को अलग-थलग करके परास्त कर दिया । उस समय उन्हें पता नहीं था कि तूने भारत के भाग्य के साथ और उसके भविष्य के साथ कितना ‘क्रूर उपहास’ कर डाला है ?
‘सत्ता षड़यंत्रों’ और ‘क्रूर उपहास’ करने की प्रवृत्ति में सम्मिलित राजनीतिज्ञों के असभ्य – आचरण को छोड़कर यदि गांधीजी सचमुच एक महात्मा की भूमिका का निर्वाह करते और सुभाष व नेहरू को मिलकर कार्य करते रहने की सदप्रेरणा देते रहते तो भारत का इतिहास कुछ और होता । ऐसी परिस्थितियों में निश्चय ही देश के विभाजन की मांग उठाने वाला कोई जिन्नाह पैदा नहीं होता । तब ब्रिटिश सरकार भी भारतवर्ष के शौर्य के सामने शीश झुकाती और छद्म अहिंसावाद की नीतियों का कुहासा भारत के पराक्रम पर कदापि छा जाने का साहस नहीं कर पाता।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का प्रस्ताव गिर तो गया पर अब इस प्रस्ताव ने पूर्ण स्वाधीनता सम्बन्धी प्रस्ताव और ‘गांधीजी की हठ’ के बीच की दूरी को केवल एक वर्ष तक समेट कर रख दिया। इससे देश के युवाओं को गांधीजी की ‘राजभक्ति’ से मुक्ति प्राप्त करने का अवसर मिल गया। देश में ऐसी संस्थाओं और संगठनों की बाढ़ आ गई जो पूर्ण स्वाधीनता को अपना लक्ष्य मान रहे थे और फटाफट इसके सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित कर रहे थे । वह अपने कार्यक्रम आयोजित करते तो उनकी अध्यक्षता नेहरू व सुभाष बाबू से ही कराते थे । देश में उस समय अनेकों ऐसी संस्थाओं , संगठनों और राजनीतिक दलों का जन्म हुआ जो पूर्ण स्वाधीनता में विश्वास रखते थे और क्रान्तिकारी साधनों के माध्यम से भारत को स्वाधीन कराना चाहते थे। यदि गांधीजी सचमुच एक ‘महात्मा’ के रूप में कांग्रेस का संचालन करते और किसी भी स्थिति – परिस्थिति में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और पण्डित जवाहरलाल नेहरू जैसे ‘क्रान्तिकारी कांग्रेसियों’ के बीच फूट डालने का काम नहीं करते तो भारत में उस समय जन्म लेने वाले अनेकों क्रांतिकारी संगठनों , संस्थाओं व राजनीतिक दलों का अस्तित्व में आना सम्भव ही नहीं होता। इतिहास के किसी भी गंभीर शोधार्थी का यह निष्कर्ष निकलना निश्चित है कि भारत में यदि उस समय अनेकों क्रान्तिकारी संगठनों ,संस्थाओं और राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ तो उन सबके पीछे ‘गांधीजी का व्यक्तित्व’ एक प्रमुख कारण था । लोग उनके अहिंसावादी उपायों से निराश थे और उनके साधनों को स्वाधीनता प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानते थे । उसी मानसिकता से उदभूत निराशा के परिवेश में उन्होंने अनेकों राजनीतिक संगठनों , संस्थाओं और दलों को जन्म दिया । सुभाषचन्द्र बोस की लोकप्रियता उस समय अपने चरम पर थी और गांधीजी व नेहरू उनसे कहीं बहुत पीछे रह गए थे।
नेहरू की लोकप्रियता के पीछे जहाँ गांधी जी का उन्हें प्राप्त आशीर्वाद एक प्रमुख कारण था , वहीं वह कभी नेताजी के साथ पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प लेने वाले प्रमुख नायक के रूप में रहे थे , यह भी एक प्रमुख कारण था ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत