1. ‘ओम्’ (Om/Aum) ईश्वर (परमात्मा, परमेश्वर, ब्रह्म) का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम नाम है। ‘ओम्’ का ठीक से उच्चारण हो सके इसलिए उसे *‘ओ३म्’ लिखा जाता है । कई बार लोग ‘ओम्’ को *‘ॐ’ इस संकेत रूप में भी लिख देते हैं। ‘ओ३म्’ में जो तीन की संख्या “‘३’”का समावेश है उसका तात्पर्य यह दर्शाने का है कि “‘ओ’” का उच्चारण “‘प्लुत”‘ करना है । “‘ह्रस्व, दीर्घ”‘और “‘प्लुत”‘– इन तीनों प्रकार से उच्चारण किया जाता है ।
ह्रस्व उच्चारण करने में जितना समय लगता है, इससे दुगना समय “”दीर्ध””उच्चारण में और तीन गुना समय “‘प्लुत”‘ उच्चारण में लगता है, इसलिए ‘ओ३म्’ में ‘ओ’ का प्लुत उच्चारण करना है, यही बताने के लिए ‘ओ’ के पश्चात् ‘३’ संख्या लिखी जाती है। _(गुजरात में कई बार लोग भूल से ‘ओ३म्’ का उच्चारण ‘ओरूम्’ करते हैं, क्योंकि गुजराती में “‘रू’ को ‘”३’” लिखा जाता है।)
सत्यार्थप्रकाश— महर्षि दयानन्द का विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ है। *इस ग्रन्थ में चौदह समुल्लास (अध्याय / प्रकरण) हैं, परन्तु इसके प्रथम ही समुल्लास का आरम्भ ‘ओ३म्’ की व्याख्या से किया गया है। ‘ओ३म्’ को ‘ओंकार शब्द’ भी कह सकते हैं। ‘ओ३म्’ परमेश्वर का सर्वोत्तम, प्रधान अथवा निज नाम है ।
‘ओ३म्’ को छोड़कर परमेश्वर के जितने भी अन्य नाम हैं वे सब गौणिक या गौण नाम हैं, मुख्य नाम तो केवल ‘ओ३म्’ ही है। ‘ओ३म्’ नाम केवल और केवल परमात्मा ही का नाम है ।
परमात्मा से भिन्न किसी अन्य पदार्थ का नाम ‘ओ३म्’ नहीं हो सकता है। यह भिन्न बात है कि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपना या अन्य किसी व्यक्ति या ईश्वरेतर पदार्थ का नाम ‘ओ३म्’ रख लेवें!
3. अ-उ-म्— इन तीन अक्षर मिलकर एक ‘ओ३म्’ समुदाय हुआ है। ‘अ’ और ‘उ’ मिलकर *‘ओ’”होता है । ‘ओ’ का *प्लुत”‘उच्चारण करना है *इसलिए इसके आगे “‘३’”लिखा जाता है। इस एक ‘ओ३म्’ नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं – अनेकानेक नामों का समावेश हो जाता है। “अ”-कार विराट्, अग्नि, वायु आदि नामों का; “‘उ”‘-कार हिरण्यगर्भ, वायु, तैजस आदि नामों का; और “‘म”‘-कार ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञ आदि नामों का वाचक और ग्राहक है। वेदादि सत्य शास्त्रों में ‘ओ३म्’ का स्पष्ट व्याख्यान किया गया है। इन शास्त्रों में प्रकरण अनुकूल उपर्युक्त विराट्, अग्नि आदि सब नामों को परमेश्वर ही के नाम बताए गए हैं।
4. यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के १७वें मन्त्र में ‘ओ३म्’ को परमेश्वर का नाम बताते हुए पाठ है – “‘ओं खम्ब्रह्म’”, अर्थात् जिसका नाम ओ३म् है वह आकाशवत् महान् – सर्वव्यापक है । ‘‘ओ३म्’” का मुख्य अर्थ “‘अवतीत्योम्”’ से यह लिया जाता है कि – ईश्वर रक्षा करनेवाला है। ईश्वर का रक्षा करने के गुण का प्रकाश ‘”ओम्’” नाम से होता है।
ईश्वर सर्वरक्षक है – इस सत्य को ‘ओ३म्’ नाम प्रकट करता है । छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है – _””ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’”अर्थात् जिसका नाम “‘ओ३म्”’ है वह कभी नष्ट नहीं होता है।
उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं ।
5. कठोपनिषद् (वल्ली २, मन्त्र १५) का मन्त्र – _”“सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥””बड़ा प्रसिद्ध है।
इस मन्त्र में उपनिषत्कार ने इस बात की घोषणा की है कि सब वेद, सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण, जिसका कथन और मान्य करते हैं और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्य आश्रम करते हैं, उसका नाम ‘ओ३म्’ है ।
6. सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी ने ईश्वर की उपासना कैसे करनी चाहिए यह बताते हुए योग के अंगों का वर्णन किया है। वहां उन्होंने लिखा है कि उपासक को नित्य प्रति परमात्मा के ‘”ओ३म्”’ नाम का अर्थ-विचार और जप करना चाहिए ।
7. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका– ग्रन्थ के उपासना विषयक प्रकरण में महर्षि दयानन्द जी ने योगदर्शन के “‘तस्य वाचकः प्रणवः’”(१.२७) सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है – “जो ईश्वर का ‘”ओंकार’” नाम है सो पिता-पुत्र के सम्बन्ध के समान है और यह नाम ईश्वर को छोड़ के दूसरे अर्थ का वाची नहीं हो सकता। ईश्वर के जितने नाम हैं, उनमें से ओंकार सब से उत्तम नाम है।” इसी प्रकरण में महर्षि ने योगदर्शन के अगले ‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’ (१.२८) सूत्र को उद्धृत कर इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है – “इसलिए इसी (‘ओ३म्’) नाम का जप अर्थात् स्मरण और उसी का अर्थ-विचार सदा करना चाहिए कि जिससे उपासक का मन एकाग्रता, प्रसन्नता और ज्ञान को यथावत् प्राप्त होकर स्थिर हो।” महर्षि ने अष्टांग योग के दूसरे अंग “नियम”में जिसका निर्देश किया गया है उस ‘”स्वाध्याय’” में “‘ओंकार के विचार’ का समावेश किया है ।
8. ‘ओ३म्’ को “‘प्रणव’” कहा जाता है। ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘”णु-स्तुतौ’” इस धातु से “‘प्रणव”’ शब्द निष्पन्न होता है। इस “‘ओ३म्’” पद के द्वारा ईश्वर की प्रकृष्ट रूप से स्तुति की जाती है, करनी चाहिए – इसीलिए इसे ‘”प्रणव”’ कहते हैं । ईश्वर के केवल एक ही नाम “‘ओ३म्’” को ‘’प्रणव”’ कहा जाता है। उसके किसी भी अन्य नाम को “‘प्रणव”’ नहीं कहा जाता है। ‘”ओ३म्’” को “‘उद्गीथ”’ भी कहा जाता है।
“‘ओ३म्”’ के माध्यम से ईश्वर का उत्तम रूप से गान –- स्तुति — ध्यान किया जाता है, इसलिए उसे ‘”उद्गीथ”’ कहा जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् आदि में ‘उद्गीथ-उपासना’ का वर्णन पाया जाता है ।
9. यजुर्वेद के ४०वें अध्याय के १५वें मन्त्र में “‘ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर। कृतं स्मर।’” आया है । इसका भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं – _”“हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नाम-वाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर, (क्लिबे) अपने सामर्थ्य के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप का (स्मर) स्मरण कर, (कृतम्) अपने किये का (स्मर) स्मरण कर।””–
10. ईश्वर एक द्रव्य, पदार्थ, वस्तु, सत्ता, नामी या वाच्य है। ‘”ओ३म्”’ उस ईश्वर का वाचक है, द्योतक है, संज्ञा या नाम है। ईश्वर अभिधेय है, ‘”ओ३म्’” अभिधान है। ईश्वर पदार्थ है, ‘”ओ३म्’” पद है।
नाम से नामी का ज्ञान होता है। ‘”ओ३म्”’ से ईश्वर के स्वरूप की अभिव्यक्ति – प्रकाश होता है। ईश्वर और ‘ओ३म्’ नाम का नित्य सम्बन्ध है। जब हम कहते हैं कि ‘ओ३म्’ ईश्वर का नाम है या वाचक है, तब हम ईश्वर और ‘”ओ३म्”’ नाम के बीच प्रथम से विद्यमान नित्य सम्बन्ध को प्रकट करते हैं; कोई नया सम्बन्ध स्थापित नहीं करते हैं।
“‘ओ३म्’”की अनेकानेक विशेषताएं हैं। अतः ‘ओ३म्’ पर प्रगाढ़ आस्तिक्य भाव से – ईश्वर-प्रणिधान पूर्वक निरन्तर चिन्तन-मनन – अर्थ-भावना करने की आवश्यकता है; क्योंकि “‘ओ३म्”’ का विचार ही प्रकारान्तर से ईश्वर-विचार है। ।। ओ३म् ।।
–साभार