सबका साथ सबका विकास – समान नागरिक कानून द्वारा ही संभव
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
भारत में समस्त राजनीतिक पार्टियां ही जब संविधान का मजाक बना रही हो, फिर किसी को दोष क्यों? चुनावों में देखो धर्म, मजहब और जाति के नाम पर टिकट दिए जाते हैं, क्यों? हर पार्टी ने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ बनाए हुए हैं, क्यों? जब पार्टियां स्वयं जनता में विभाजन कर रही हैं, फिर किस आधार पर धर्म-निरपेक्षता की दुहाई देकर जनता को क्यों भ्रमित किया जा रहा है? सरकार को समान नागरिकता कानून बनाने से पूर्व इस तरह के प्रकोष्ठों को बंद करना होगा। अन्यथा इसे संविधान के साथ खुला मजाक ही कहा जाएगा।
विश्व में किसी भी देश में पन्थ, मजहब के आधार पर पृथक-पृथक कानून नहीं होते, बल्कि सभी नागरिकों के लिए एक समान व्यवस्था व कानून होते हैं। सिर्फ भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें अल्पसंख्यक वर्गों के लिए वैयक्तिक अर्थात पर्सनल कानून बने हुए हैं, जबकि देश का संविधान अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, लिंग, क्षेत्र व भाषा आदि के आधार पर समाज में भेदभाव नहीं करता और सभी के लिए एक समान व्यवस्था व कानून सुनिश्चित करने की बात करता है। लेकिन बाद में संशोधनों के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 26 से 31 में कुछ ऐसे प्रावधान कर दिए गए हैं जिससे बहुसंख्यक हिन्दुओं के सांस्कृतिक, शैक्षिक व धार्मिक संस्थानों एवं ट्रस्टों को विवाद की स्थिति में शासन द्वारा अधिग्रहण किया जाता रहा है, और अल्पसंख्यकों के संस्थानों आदि में विवाद होने पर भी शासन कोई हस्तक्षेप नहीं करता। बहुसंख्यक समाज के विद्वान और कानून के जानकार रह-रहकर यह प्रश्न उठाते रहते हैं कि आखिर यह भेदभाव क्यों?
देश की सर्वोच्च न्याय ने भी इस पर कई बार प्रश्न उठाये हैं, लेकिन इस पर सब चुप हैं। संविधान में की गई इस वैचित्रिक व्यवस्था के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ने व पढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता हैं,जबकि बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए यह धारणा मान ही ली गई है कि वह तो अपनी धर्म शिक्षाओं को पढ़ाते ही रहेंगे, लेकिन सत्य में ऐसा नहीं हुआ और लोग शिक्षा-प्राप्ति हेतु सरकार पर ही निर्भर रह गए। और अब तो बहुसंख्यकों की धार्मिक शिक्षा और शिक्षण संस्था की बात उठते ही अल्पसंख्यक व उनके चहेते राजनीतिक दल इसे साम्प्रदायिकता की राह कहकर रोड़ा अटकाने के लिए मैदान में कूद पड़ते हैं। अब इसे क्या दोगलापन नहीं कहेंगे? हिन्दू अथवा हिन्दुत्व की बात करने पर साम्प्रदायिकता का शोर मचना, संविधान में वोट बैंक की खातिर किए गए बदलाव के ही कारण हो रहा है, जिसमें सभी राजनीतिक दल बराबर के जिम्मेदार हैं, इस अपवाद से कोई दल अछूता नहीं।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार आदिकाल से ही सबके साथ समान व्यवहार व समान संहिता पर चलने वाली इस सनातन वैदिक भूमि में भारतवर्ष विभाजन के पश्चात निर्मित संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का प्रावधान शनैः -शनैः लागू करने का उल्लेख प्रारम्भिक काल में ही किया गया है, किन्तु विदेशी विधर्मी तत्वों के दबाव में अल्प संख्यक तुष्टीकरण की नीति पर चलने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने मुस्लिम बोट बैंक की लालच में भयंकर विवादों व अति विरोधों के बाद भी समान नागरिक संहिता के प्रावधान को संविधान के मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर नीति निर्देशक तत्वों में डलवा दिया। परिणामस्वरूप यह विषय न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया और न्यायालय अब सिर्फ सरकार को इस क़ानून को बनाने के लिए परामर्श ही दे सकती हैं, उसे बाध्य नहीं कर सकती। यही कारण है किस सर्वोच्च न्यायालय ने भी लोगों की मांग पर केंद्र सरकार को सन 1985, 1995, 2003 और 2019 में बार बार समाज में घृणा, वैमनस्य व असमानता दूर करने के लिए समान कानून को लागू कराने आवश्यकता जताई है, इसके बाद भी किसी भी सरकार के द्वारा अभी तक कोई सार्थक पहल क्यों नहीं हो पायी?
वर्षों पूर्व किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 84% देशवासी इस कानून के समर्थन में थे। जबकि इस सर्वे में अधिकांश मुस्लिम माहिलायें व पुरुषों की भी सहभागिता थी।अंतरराष्ट्रीय संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सन् 2000 में समान नागरिक व्यवस्था अपनाने के लिए भारत सरकार से विशेष आग्रह किया था। यह सत्य है कि अनेकता में एकता और सबका साथ सबका विकास व सबका विश्वास का राष्ट्रव्यापी विचार बिना एक समान कानून के अधूरा है। इसलिए देश के संविधान की मूल आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के आग्रहों का सम्मान करते हुए सरकार को समान नागरिक संहिता पर गम्भीरता से चिंतन कर इसे सर्वहित में लागू करना ही चाहिए।
बहुसंख्यक हिन्दुओं के स्वयं के भी आदिकाल से ही प्रचलित वैयक्तिक संहिता अर्थात पर्सनल लॉ होने के कारण देश भर में भयंकर विरोध होने के बावजूद सनातन वैदिक संहिता के स्थान पर 1956 में उन पर जबरन हिन्दू कोड बिल थोप दिया गया। दूसरी ओर अन्य पन्थावल्म्बियों के मजहबीय पर्सनल लॉ को बनाए रखने की भूल जान -बुझकर की गई । उन मजहबीय पर्सनल कानूनों में आवश्यक सुधारों की तब की आवश्यकता आज तक जस की तस बनी हुई है, लेकिन आज तक किसी सरकार ने इन पर सुधारों के लिए कोई कदम उठाने की हिम्मत नहीं की। आज जब मोदी सरकार इन बिन्दुओं पर यदा कदा बात करती है, तो इस मजहबावलम्बियों के साथ ही अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राह पर चलने वाले इनके राजनीतिक समर्थकों की चीख-चिल्लाहट देखने लायक होती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मुस्लिम पर्सनल लाँ के यथावत बने रहने से मुस्लिम कट्टरता के दु:साहस ने देश भर में घृणा के वातावरण को ही उकसाया है। नागरिकता संशोधक कानून पर हुए विवादित धरने और प्रदर्शन इसका प्रमाण है, जिसमें कानून का विरोध कम, हिन्दू और हिन्दुत्व विरोध अधिक रहा।
ध्यातव्य यह भी कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लिए धार्मिक शिक्षा का प्रावधान संविधान में नहीं किये जाने का ही दुष्परिणाम यह है कि आज बहुसंख्यक समाज के धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं होने से वे सत्य विद्याओं की पुस्तक वेदों के ज्ञान से वंचित स्वधर्म से विमुख हो अधोपतन की स्थिति में पहुँचने की कगार पर हैं। भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज आज इस विदेशी विधर्मी षडयंत्र से परिचित हो इस संवैधानिक अन्याय के प्रति आक्रोशित परन्तु संवैधानिक विवशता से बंधा हुआ अपनी दुर्गत्ति शुतुरमुर्ग की भांति मुंह छुपाये टुकुर-टुकुर देखने को विवश है।
भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों को देश के सभी नागरिकों को समान संवैधानिक अधिकार दिए जाने के कारण बहुसंख्यकों के समान अर्थात बराबर अधिकार पूर्व से ही प्रदान किए गए हैं, दूसरी ओर उनको अपने धार्मिक कानूनों अर्थात पर्सनल लॉ के अनुसार पालन करने की भी छूट है। संवैधानिक अधिकार बहुसंख्यकों के बराबर ही प्राप्त होने के बाद भी विभिन्न राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियों यथा, परिवार नियोजन, पल्स पोलियो, राष्ट्रगान, वन्देमातरम् आदि पर इस सम्प्रदाय विशेष का पर्सनल लॉ के नाम पर आक्रामक व्यवहार बना ही रहता है। इनके पर्सनल लॉ के अनुसार उत्तराधिकार, विवाह, तलाक़ आदि के सम्बंध में मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न को रोका नहीं जा सकता।
वर्तमान केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं पर एक साथ तीन तलाक़ कहकर उन्हें खुदा के भरोसे छोड़ देने की वर्षो से चली आ रही अमानवीय प्रथा को समाप्त करके एक सराहनीय कार्य अवश्य किया है, परन्तु खेदजनक स्थिति यह है कि बहुविवाह, हलाला आदि का चलन अभी भी बना हुआ है। जिससे मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा जस की तस बनी हुई है। प्रजनन द्वारा बच्चे जनने की कोई सीमा न होने से इन महिलाओं को विभिन्न गंभीर बीमारियों को झेलना पड़ता है। अधिकांश कट्टरपंथियों का कहना है कि सरकार को हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, परन्तु यह सत्य है कि सरकार का अपने नागरिकों को ऐसे अमानवीय अत्याचारों से बचाने का संवैधानिक दायित्व व कर्तव्य तो बनता ही है। और वर्तमान वैज्ञानिक युग में निरंतर नवीन ऊंचाइयों को छू रहे प्रतिभाओं के मध्य छिड़ी स्वतंत्र प्रतिद्वंद्विता की परिस्थिति में हलाला, मुताह व बहुविवाह जैसी अमानवीय कुरीतियों को प्रतिबंधित करके मुस्लिम महिलाओं को व्याभिचार की गंदगी से बचाकर उनके साथ न्याय तो अवश्य ही होना चाहिए।
प्रश्न उत्पन्न होता है कि समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन मज़हबी अमानवीय कुरीतियों के प्रति कभी कोई आक्रोश क्यों नहीं दिखाते? कट्टरपंथी मुल्लाओं ने समान नागरिक संहिता के नाम से ही मुस्लिम समाज में एक अज्ञात भय बना रखा है। अज्ञानता से भरे रुढिवादी समाज को सबका साथ और सबका विश्वास के नारे में स्वयं अपना विकास तो चाहिए, परन्तु उस नारे को ठोस आधार देने वाली समान नागरिक संहिता उन्हें कतई स्वीकार नहीं, आखिर क्यों? सिर्फ कट्टरपंथियों की आक्रामकता को बनाए रखने के लिए देश में सुधारात्मक नीतियों का विरोध कहाँ तक उचित है? अमानवीय अत्याचार को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं को आँख मूंदकर आखिर क्यों देखते रहा जाय? भारतवर्ष विभाजन के बाद से ही अन्य सरकारों की भांति ही मोदी सरकार के द्वारा भी बहुसंख्यक हिन्दुओं के हितों की बलि चढ़ाकर मुसलमानों को अनेक लाभकारी योजनाओं से लाभान्वित किया जाता रहा है। फिर भी वे अपनी दकियानूसी, रूढ़िवादी व धार्मिक मान्यताओं से कोई समझौता तो क्या उसमें कोई दखल भी स्वीकार नहीं करते। दूसरी ओर इस्लाम के इन अनुयायियों ने अपराधों पर अपने मज़हबीय कानून शरिया के स्थान पर भारतीय दंड संहिता को ही अपनाना उचित समझा है, क्योंकि शरिया में अपराधों की सजा का प्रावधान अत्याधिक भयानक व कष्टकारी है। फिर भी समान नागरिक संहिता का विरोध करना इनका जिहादी जूनून नहीं तो और क्या है? यह सुविधा भोगी राजनीति आखिर क्यों?
सत्य तो यह है कि समान नागरिक संहिता में सभी धर्म, सम्प्रदाय व जाति के देशवासियों के लिए एक समान व्यवस्था होने से पारस्परिक वैमनस्यता कम होगी, लेकिन यह विडम्बना ही है कि एक समान कानून की माँग को साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर हिन्दू कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपने का नाम देकर कुप्रचारित किया जाता रहा है। यह अत्यंत खेदजनक व दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सन 1947 में हुए धर्माधारित विभाजन के 73 वर्ष बाद भी देश में अल्पसंख्यकवाद को प्रोत्साहित करने की परंपरा यथावत बनी हुई है, और वर्तमान सरकार भी इसी मार्ग पर चलती दिखाई देती हैं। यह सत्य है कि सबके लिए समान मौलिक व संवैधानिक अधिकारों के होते हुए भी देश में लागू इस्लाम की पर्सनल लॉ की कुछ मान्यताएं कई बार देश में विषम परिस्थितियाँ खड़ी कर देती है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय देश में समान नागरिक संहिता बनाने के लिए सरकार से बार-बार आग्रह करती रही है।
राष्ट्रप्रेमियों की इच्छानुसार भी एक समान व्यवस्था से राष्ट्र स्वस्थ व समृद्ध होगा और भविष्य में अनेक संभावित समस्याओं से बचा जा सकेगा। भविष्य में असंतुलित जनसंख्या अनुपात के संकट से भी बचकर राष्ट्र का पंथनिरपेक्ष स्वरूप व लोकतांन्त्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित रह सकेगी। बहरहाल देश की संप्रभुता, एकता व अखंडता को सुदृढ़ व अटूट रखने के लिए समान नागरिक संहिता समय की मांग है। देश में एक समान कानून की व्यवस्था से मुख्य धारा की राजनीति व राष्ट्रनीति सशक्त होगी, और समान नागरिक संहिता का प्रावधान ही मोदी के मन्त्र सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास पाने के सूत्र को संभव बना सकने में सहयोगी हो सकेगी। सच तो यह है कि दशकों से लम्बित अन्य कई मामलों की भांति ही समान नागरिक संहिता के मामले में भी बहुसंख्यक राष्ट्रप्रेमियों की निगाह राष्ट्रीय हितों पर चलने वाले देश की एकमात्र भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सतारूढ़ मोदी सरकार पर टिकी हुई हैं, और अब देखना है कि क्या वर्तमान सरकार भी इस मामले में आँखे मूंदे रहने में ही अपना हित व लाभ देखती है क्या?