ओ३म्
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सभी मनुष्य बुद्धि रखते हैं जो ज्ञान प्राप्ति में सहायक होने के साथ सत्य व असत्य का निर्णय कराने में भी सहायक होती है। एक ही विषय में अनेक मनुष्यों व आचार्यों के विचार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यह भी सत्य एवं प्रामणिक तथ्य है कि एक विषय में सत्य एक ही होता है। गणित में दो व दो चार होते हैं। कोई गणित का विद्वान व आचार्य इससे भिन्न मान्यता वाला नहीं होता है। इसी प्रकार से धर्म विषय में मुख्यतः ईश्वर के स्वरूप, गुण-कर्म-स्वभाव, आत्मा के स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव तथा उपासना की विधि आदि विषयों की चर्चा करके एक सत्य सिद्धान्त स्थापित किया जा सकता है व करना भी चाहिये। वर्तमान में व महाभारत के बाद से इन विषयों में एक मत न होकर अनेक आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत व विचार रहे हैं। महाभारत के बाद स्वामी आदि शंकराचार्य जी ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होंने जैन मत के आचार्यों से ईश्वर के अस्तित्व पर शास्त्रार्थ किया था और शास्त्रार्थ में जो निष्कर्ष व तथ्य सामने आये थे, वह स्वामी शंकराचार्य जी का अद्वैत मत था जिसे शास्त्रार्थ की शर्तों के अनुसार सभी आचार्यों व राजाओं आदि ने भी स्वीकार किया था। इसके बाद से यह परम्परा बन्द पड़ी थी। ऋषि दयानन्द (1825-1883) का काल आते-आते धर्म विषयक सन्देह व भ्रान्तियां अपनी चरम सीमा पर थी। इन्हें धार्मिक अन्धविश्वास भी कहते हैं। ऋषि दयानन्द अपनी बाल्यावस्था से ही जिज्ञासु थे। वह सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के इच्छुक थे। उन्होंने शिवरात्रि, 1839 के दिन मूर्तिपूजा पर इसी कारण सन्देह किया था कि ईश्वर के जो गुण, कर्म व स्वभाव शास्त्रों में वर्णित हैं, वह मूर्ति में साक्षात दृष्टिगोचर नहीं होते थे। उन्होंने विद्वानों से शंकायें की थीं परन्तु कोई विद्वान उनका समाधान नहीं कर सकता था। इसी कारण सच्चे शिव व मृत्यु से रक्षा व विजय प्राप्त करने के लिये उन्होंने सत्य के अनुसंधान हेतु अपना पितृ-गृह छोड़कर देश भर में विद्वानों की खोज की व उन्हें प्राप्त होकर उनसे ज्ञान प्राप्ति सहित अपना शंका समाधान किया था।
ऋषि दयानन्द ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये अपूर्व तप किया और बाद में वह अपनी सभी शंकाओं के उत्तर प्राप्त करने में सफल हुए। उन्हें सच्चे शिव का सत्यस्वरूप भी विदित हुआ था तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी हुआ था जिसे उन्होंने अपने जीवन में धारण कर उसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द को सत्य ज्ञान रूपी विद्या अपने विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मथुरा में 1860 से 1863 के मध्य तीन वर्ष वेदांगों का अध्ययन कर प्राप्त हुई थी। इससे पूर्व वह समाधि सिद्ध योगी भी बन चुके थे। विद्या प्राप्त कर लेने, सभी शंकाओं व भ्रमों से निवृत्त होने सहित सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के बाद उन्होंने संसार से अज्ञान व अविद्या दूर करने के कार्य को अपना मिशन व उद्देश्य बनाया था। इसी कार्य को करते हुए ही उन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग किया और भारत सहित विश्व को अविद्या के कूप से निकाला। ऋषि दयानन्द ने महाभारत युद्ध से पूर्व प्रचलित ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान के सत्यस्वरूप व वेदार्थों का प्रकाश किया। उन्होंने पूर्ववर्ती ऋषियों द्वारा रचित वैदिक आर्ष साहित्य के सत्य सिद्धान्तों को निश्चित कर उनकी सत्य व्याख्याओं का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी ही देन है कि आज हमारे पास सभी वेदों के सत्य वेदार्थों से युक्त वेदभाष्य व सभी वैदिक ग्रन्थों व विषयों के अनेकानेक व्याख्या ग्रन्थ हिन्दी आदि भाषाओं में उपलब्ध हंै जिसको साधारण हिन्दी पठित व्यक्ति भी जान व समझ कर विद्वान एवं सत्य वैदिक धर्म का सच्चा अनुयायी बन सकता है तथा जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध कर सकता है।
विद्या प्राप्त कर मनुष्य का मुख्य कर्तव्य उस विद्या की रक्षार्थ उसका मौखिक व लेखन के द्वारा प्रचार करना होता है। यही कार्य ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में किया। विद्वान का एक प्रमुख कार्य व कर्तव्य अज्ञान व अविद्या को नष्ट करना तथा ज्ञान व विद्या की वृद्धि करना भी होता है। इस कार्य को करने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने अज्ञान में पड़े हुए विश्व के लोगों को अज्ञान व अविद्या के दुःखमय जीवन से बाहर निकालने के लिये अपने विद्यामृतमयी व्याख्यानों व उपदेशों से देश भर में घूम कर वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रचार किया। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है जिसका पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना सब मनुष्यों का परम धर्म होता है। वस्तुतः मनुष्य को मनुष्य इसी लिये कहा जाता है कि यह मननशील प्राणी है। मनन का अर्थ सत्य व असत्य का विचार करना तथा असत्य का त्याग और सत्य को अपनाना व स्वीकार करना होता है। मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिये ही वस्तुतः ऋषि दयानन्द ने मिथ्या ग्रन्थों का खण्डन व सत्य ज्ञान से युक्त वेदों का प्रचार व प्रसार किया। सत्य के प्रचार के लिये असत्य का खण्डन करना आवश्यक होता। माता-पिता व आचार्य भी अपने शिष्यों व बालकों की अविद्या व असत्य बातों को दूर करने के लिये असत्य बातों के दोष बताकर अपने शिष्यों से सत्य सिद्धान्तों को ग्रहण कराते हैं। यही कार्य ऋषि दयानन्द ने भी परोपकार व परहितार्थ किया। वह अपने व्याख्यानें में सत्योपदेश करते थे। प्रसंगानुसार असत्य छुड़ाने के लिए असत्य मान्यताओं व परम्पराओं का खण्डन तथा सत्य मान्यताओं का मण्डन व समर्थन करते थे। वह सत्यासत्य पर चर्चा करने व सत्य का निर्णय करने के लिये सभी मतों के अनुयायियों व आचार्यों को निमंत्रण भी देते थे। बहुत से स्वधर्मी व परमतावलम्बी विद्वान उनके पास आकर अपनी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। सन् 1863 से अपनी मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 तक उन्होंने इस कार्य को देश के अनेक स्थानों में जाकर जारी रखा और सभी लोगों को सत्य ज्ञान अमृत का पान कराकर संतृप्त किया था।
प्राचीन काल में सत्य का निर्णय करने के लिये परस्पर संवाद, लेखन तथा शास्त्रार्थ की परम्परा थी। इन विधियों से ही सत्य का निर्णय होता है। ऋषि दयानन्द ने संवाद, लेखन व शास्त्रार्थ का भरपूर उपयेाग किया। सभी मतों के आचार्य व अनुयायी उनके पास आते व अपने सन्देह दूर करते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन व प्रचार अविद्या को दूर करने के लिये किया। संसार में उनके समय में वेद तो अत्यन्त परिश्रम करने पर उपलब्ध हो सकते थे परन्तु वेदों के सत्य वेदार्थ उपलब्ध नहीं थे। इस अभाव को भी ऋषि दयानन्द व उनके बाद उनके अनुयायी विद्वानों ने पूरा किया। ऋषि दयानन्द ने वेदकालीन परिपाटी के अनुसार वेदों के सत्य अर्थों का अपने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद भाष्य में प्रकाश किया है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना भी सत्य विद्या के ग्रन्थ वेदों के प्रचार व प्रसार के लिये ही की। उन्होंने आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य वेदों के प्रचार प्रसार सहित अविद्या के नाश तथा विद्या की वृद्धि को बनाया है।
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये। उनका काशी में 16 नवम्बर, 1869 को सनातनी पौराणिक मत के आचार्यों से मूर्तिपूजा की वेदमूलकता व तर्क एवं युक्तिसंगत होने पर हुआ शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। इस शास्त्रार्थ में सम्मिलित पौराणिक मत के 30 से अधिक शीर्ष विद्वान भी मूर्तिपूजा के समर्थन में वेदों का एक भी मन्त्र प्रस्तुत नहीं कर पाये थे। आज तक भी किसी पौराणिक विद्वान को वेदों में ईश्वर की मूर्तिपूजा करने का कोई संकेत उपलब्ध नहीं हुआ है। वेद ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का प्रतिदिन करते हैं। वेदों के अनुसार ईश्वर का सत्यस्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर सर्वज्ञ है, उसने जीवों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल-भोग कराने व मुक्ति प्रदान करने के लिये साधन रूप में इस सृष्टि को बनाया है। ईश्वर जीवों के कर्म फलों का विधाता व व्यवस्थापक है। वह वेदज्ञान का दाता है। जीव सत्य व चेतन स्वरूपवाली अल्पज्ञ, अनादि, अमर, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, वेदाचारण से जन्म मरण से मुक्त होने वाली तथा मोक्षानन्द को प्राप्त होने वाली सत्ता है। ईश्वर सभी जीवों हिन्दू, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख आदि सबका साध्य है तथा यह प्रकृति व सृष्टि सब जीवों को मुक्ति प्राप्त करने-कराने का साधन है। ऋषि दयानन्द व उनके परवर्ती विद्वानों के साहित्य सहित वेद, उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी इस पर प्रकाश पड़ता है। अतः सबको वेदों की शरण में आकर शुभकर्मों को करते हुए मुक्ति प्राप्त करने के साधनों को करना चाहिये। आर्यसमाज को जितना अपेक्षित था, वह प्रचार नहीं कर सका। जितना प्रचार किया उतनी अविद्या दूर हुई है परन्तु लक्ष्य की दृष्टि से यह उपलब्धि बहुत ही अल्प मात्रा में है। आज वैदिक धर्म व मानवता पर अनेक प्रकार के संकट मंडरा रहे हैं। इसकी ओर भी आर्यसमाज सहित सभी हिन्दु बन्धुओं को ध्यान देना चाहिये। यदि अब भी नहीं जागेंगे तो जाति का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। अतः ईश्वर को मानने वाले सभी सच्चे आस्तिक जनों को एकजुट व संगठित होकर अपने हितों पर विचार कर सगठित होकर परस्पर सहयोग कर धर्म पर उत्पन्न सभी संकटों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सभी मतों के आचार्यों से सत्य के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ व शास्त्रार्थ चर्चायें करके सबका समाधान किया था। उनके शताधिक शास्त्रों व शंका समाधानों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हैं। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली ने सन् 1981 में ‘दयानन्द शास्त्रार्थ-संग्रह तथा विशेष शंका समाधान’ नाम से एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन किया था। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने भी ‘ऋषि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन’ नाम से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से भी सभी विषयों में मनुष्यों का सन्देह निवारण होता है। अन्य विद्वानों ने इन विषयों पर अनेक ग्रन्थ थी लिखे हैं। इन ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य सभी धर्म विषयक मान्यताओं में निभ्र्रान्त हो सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में शास्त्रार्थ की परम्परा का पुनद्धार किया था। उनका कार्य आज भी प्रासंगिक हैै। आर्यसमाज व सभी मतों को इसे अपनाना चाहिये। सत्यधर्म मतावलम्बियों का तो यह कर्तव्य है कि वह सत्य के प्रचारार्थ शास्त्रार्थ परम्परा को पुनर्जीवित करें। विज्ञान में भी सत्य का निर्णय संवाद, लेखन, चर्चा, गोष्ठियों व बहस करके ही होता है। विज्ञान में इसे अच्छा माना जाता है। सभी वैज्ञानिक सत्य का आदर करते हैं। इसी लिये विज्ञान आज बुलन्दियों पर पहुंचा है। मत-मतान्तर ज्ञान विषयक अपनी न्यूनताओं को जानते हैं। इसलिये वह शास्त्रार्थ करना तो दूर, शास्त्रार्थ के नाम की चर्चा करने से बचते हैं। उनके शास्त्रार्थ करने के विरुद्ध ही प्रायः है। बिना संवाद, लेख, चर्चा व शास्त्रार्थ के सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। अतः सभी मतों के विद्वानों को मिलकर सत्य के अनुसंधान व उसके प्रचार के लिये धर्म चर्चा, संवाद व शास्त्रार्थ को अपनाना चाहिये। ऋषि दयानन्द को शास्त्रार्थ परम्परा का निर्वहन करने व सत्यार्थप्रकाश में तर्क व युक्ति से सत्य का निर्णय करने के लिये संसार द्वारा हमेशा स्मरण किया जायेगा। ऋषि दयानन्द को हमारा सादर नमन है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य