शुकदेव जी ने अपने पिताजी से ब्रह्मï ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की तो पिताश्री ने पुत्र से कहा कि हे वत्स! यदि तुम सचमुच ब्रह्मï ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो तो मिथिला नरेश राजा जनक के यहां जाकर यह ज्ञान प्राप्त करो। पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर शुकदेव राजा जनक के दरबार में पहुंच जाते हैं। राजा उस समय अपने राजकाज में व्यस्त थे। राजकाज में फंसे व्यक्ति को लेकर शुकदेव को शंका होने लगी कि यह व्यक्ति क्या ब्रह्म ज्ञान देगा? महाराज जनक अपने अतिथि के मनोभावों को भांप गये। उन्होंने अपने एक कर्मचारी को आदेश दिया कि इन्हें हमारी मिथिलापुरी को दिखाकर लाओ, परंतु शर्त ये है कि इनके हाथ में तेल का एक प्याला भरकर दिया जाए। यदि प्याले में से तेल की एक बूंद भी गिर जाए तो शुकदेव का सिर धड़ से अलग कर देना।
शुकदेव जी को सारे नगर में घुमाया गया। भ्रमण के उपरांत दरबार में पहुंचे। राजा ने पूछा-बताइए शुकदेव जी आपको हमारी मिथिलापुरी में क्या क्या देखने को मिला, किस स्थान ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया।
शुकदेव जी कहने लगे-राजन! आपकी मिथिला नगरी को मैं देख ही नही पाया। क्योंकि मेरा ध्यान तो आपके प्याले पर रहा कि कहीं कोई बूंद इसमें से नीचे ना गिर जाए? आपके कर्मचारी की पीछे से लटकती हुई तलवार ने मुझे आतंकित किये रखा।
महाराज कहने लगे-‘शुकदेव जब तुम दरबार में आये थे तो तुम्हें मुझको लेकर कई आशंकाओं ने घेर लिया था कि यह व्यक्ति क्या ब्रह्मï ज्ञानी होगा? इसी शंका के निवारण के लिए मैंने तुम्हें दो स्थितियों में डाला। जैसे नगर में घूमते समय तुम्हारा ध्यान तेल के प्याले की बूंद की ओर था जैसे यात्रा में तुम्हारा ध्यान तलवार की ओर रहा, वैसे ही मेरा ध्यान संसार के सब काम करते हुए ईश्वर की ओर रहता है।
व्यक्ति को कर्त्तव्य कार्य करते हुए धर्म का निर्वाह करना विदेह की सम्मानजनक स्थिति में ले जाता है। बड़े बिरला लोग होते हैं जो अपनी वाणी को नियंत्रित रखते हैं, और वाणी से किसी के दिल को चोट नही पहुंचाते हैं। लेकिन जो लोग ऐसे होते हैं, उनके भीतर आनंद का झरना, आनंद का स्रोत सदा प्रवाहमान रहता है। आनंद के इस स्रोत को सूखने नही देना चाहिए। इसमें प्रभु प्रेम का संगीत सदा बजता रहना चाहिए। उसी संगीत से आपको अपनी कठिन समस्याओं का और उलझनों का समाधान मिलेगा। क्योंकि कोई भी कठिनाई या समस्या ऐसी नही होती जिसका समाधान ना हो और कोई भी रात ऐसी नही होती, जिसके बाद सवेरा ना होता हो। समाधान मिलना और सवेरा होना तय है। पर मिलेगा प्रभु प्रेम के संगीत से ही-और मिलेगा विदेह के कर्त्तव्य कर्म के निर्वाह में। अपनी शक्तियों का संचय करो। अपने चारों ओर देखो कि तुम्हारे पास सामाजिक बल के रूप में मिलने वाले एवं जुड़ने वाले संगी साथी कितने हैं और आप उन्हें अपने कला कौशल से किस सीमा तक अपना बनाकर रख सकते हो? अपने साम्राज्य का संचालन तो आपने अपनों से ही करना है। आप भाग नही सकते। अयोग्यों में से योग्य छांटकर या अयोग्यों को योग्य बनाकर काम लेना भी एक चुनौती है और उसे स्वीकार करो। सबको उसकी योग्यतानुसार कार्य दो और उसकी योग्यता नुसार उससे कार्य लो भी। यदि अपना बना बनाकर छोड़ने की नीति पर उतर आये तो छोड़-छोड़कर थक जाओगे। पर वो नही मिलेंगे जिन हीरों की तुम्हें तलाश है। क्योंकि सारा संसार ही तो हीरों की खोज में लगा पड़ा है। अब जहां सभी को एक ही खोज हो-वहां समझ लो कि सब लोहा ही हैं। यहां तक कि हम स्वयं भी, क्योंकि हमें भी तो हीरे की ही तलाश है। इसका अभिप्राय है कि हमें स्वयं भी हीरा-विदेह बनना पड़ेगा। इस संसार में मित्र मिलना बड़ा दुर्लभ है। कहा भी गया है कि-दुर्लभं प्राकृतं मित्रम्।
अर्थात स्वाभाविक मित्र मिलना संसार में दुर्लभ होता है। इसलिए हर किसी को मित्र मानने का भ्रम नही पालना चाहिए। परंतु प्रेम का प्रदर्शन ऐसा ही करो कि हम आपको सम्मान देते हैं। इससे जीवन रस का आनंद बना रहेगा। किन्हीं कारणों से मित्र विछोह भी हो जाए तो वाणी को कभी फिसलने मत दो। कभी किसी की आलोचना या निंदा मत करो। इससे सुनने वाला आपके भी अंक कम करेगा क्योंकि अपने भी विछोह से पूर्व उसे अपना कहा था, कहीं न कहीं आपका भी दोष रहा, जो विछोह की स्थिति आयी।
अपने भाई से कभी व्यंग्य बाण मत कसो। उससे हृदय घायल होता है। उसकी निष्ठा, उसका प्रेम, उसकी श्रद्घा को गंवाना कमाई को गंवाने के समान है। ऐसी श्रद्घा को गंवाना आपको एकांत में भी कष्टï देता है। जब लक्ष्मण मूर्च्छित हो गये तो रामचंद्र कहने लगे-
जो जनतेऊं बन बन्धु बिछोहू।
पिता वचन मनतेऊं नही ओहू।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना।
मनि बिनु फनि करिवर कर हीना।।
अस मम जिवन बन्धु बिन तोहि।
ज्यों जड़ दैव जियावै मोहि।।
जैहों अवध कौन मुंह लाई।
नारि हेतु प्रिय बन्धु गंवाई।।
भावनाएं प्रेम की, प्रार्थनाएं कल्याण की और कामनाएं आनंद की रखो। हृदय को अहंकार शून्य बनाओ। कृतज्ञ बनो और अपनी हर समस्या के समाधान पर अपने हृदय मंदिर में प्रदीप्त हो रही यज्ञाग्नि में उसे ईश्वर की कृपा मानकर सहज रूप में मौन आहूति लगा दो और कह दो – धियो योन: प्रचोदयात। कृपालु ईश्वर की कृपा का भण्डार अनंत है। वह हमें निरंतर सद्बुद्घि दिये रखें और हम उसकी कृपादृष्टिï में नित्य आगे बढ़ते रहें-इससे अच्छी स्थिति हमारे लिए और क्या हो सकती है? आनंद संसार में भी है, बस विदेह बनने की आवश्यकता है। अपने भीतर आमूल चूल परिवर्तन कर स्वयं को नये रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।