बहस में समय न गँवाएं
रचनात्मक करें
– डॉ. दीपक आचार्य
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हमारा ‘यादातर समय बेकार की बहस में चला जाता है। दिन भर में हम कई बार बहस में उलझ जाते हैं जिसका न कोई लाभ होता है, न कोई निष्कर्ष सामने आ पाता है। कुल मिलाकर आजकर बहस का सीधा सा अर्थ टाईमपास और मनोरंजन तक पहुँच गया है।
टीवी न्यूज चैनलों से लेकर गाँव की चौपालों तक की बात हो या फिर फेसबुक से लेकर दूसरी ढेरों प्रकार की सोश्यल साईट्स, बहस का यह रोग इतना ‘यादा फैलता जा रहा है कि लगता है जैसे इस देश में बहस के सिवा कुछ और बचा ही नहीं है।
राजधानियों से लेकर गांव की पंचायत तक हर कोई भिड़ा हुआ है किसी न किसी तरह की बहस में। जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा बहस में रमा हुआ है। भले ही यह बहस उसके काम की हो या न हो। बहस की बदौलत सभी को काम-धंधा मिला हुआ है। बहस कराने वाले भी खुश हैं और बहस करने वाले भी। दोनों किस्मों को टाईमपास का सुनहरा मौका मिल रहा है और तथाकथित लोकप्रियता मिल रही सो अलग।
कोई दुकान-दफ्तर, घर-आँगन, गली-चौराहे, गांव-कस्बे, शहर-महानगर ऐसे नहीं बचे हैं जहाँ किसी न किसी प्रकार की बहस न हो रही हो। ये बहस ही है जो लोगों को अपनी विद्वता, श्रेष्ठता साबित करने और अपने आपको अन्यतम बताने का सर्वोपरि माध्यम बनी हुई है।जो लोग बहस को लोकप्रियता पाने का जरिया मान बैठे हैं उन्हें यह अ’छी तरह समझ लेना चाहिए कि बहस से पैदा होने वाली लोकप्रियता अपने आप में बहस का विषय हो जाती है। बहस कुछ समय के लिए लोकप्रियता का भ्रम जरूर दे सकती है लेकिन इससे होने वाला धु्रवीकरण न हमारे हित में होता है, न समाज के।
बात किसी विचार की हो अथवा सूत्र की, इनकी श्रृंखला का कोई अन्त नहीं होता, यह अपने आप में अनंत होती है। ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्नाÓ लोक जीवन का वह सर्वाधिक व्यापक फलक है जहाँ वैचारिक मतभेदों और विचारों का बहुमुखी होना स्वाभाविक ही है। फिर बात चाहे कैसी भी हो, इसका कोई अंत नहीं है।
हर व्यक्ति अपनी टाँग ऊँची रखना चाहता है और इसके लिए वह चाहता है कि उसके द्वारा कही बात को सभी स्वीकारें और मानें। लेकिन बहुधा ऐसा होता नहीं है। सर्वमान्य बात तभी संभव हो पाती है जबकि या तो वह स’चाई से भरी हो अथवा सभी के स्वार्थों से जुड़ी हुई हो। इंसान का स्वार्थ हो या अहंकार, सभी मामलों में पूर्वाग्रह और दुराग्रहों का होना सामान्य प्रक्रिया है और इसी से जन्म होता है बहसों का।
बहस चाहे कैसी भी हो, क्षणिक स्वीकार्यता और लोकप्रियता को छोड़ दिया जाए तो बहस का रोग हमेशा आदमी की सेहत और जीवन के लिए आत्मघाती ही रहता है। यों देखा जाए तो जो लोग मेधावी होते हैं वे बहस और फालतू के बकवास से सर्वथा दूर ही रहते हैं और धीर-गंभीर बने हुए अपने काम में तल्लीन रहते हैं लेकिन ‘यादातर लोग बहस करते हुए जीवन रस की प्राप्ति करते रहते हैं और इन लोगों के लिए बहस करना दिनचर्या का हिस्सा हो जाता है जो उन्हें ऐसा टॉनिक देता है जिससे वे स्वर्गीय आनंद का अहसास करते हैं।बहस करने के आदी लोग भले ही कितने स्वस्थ और मोटे-तगड़े लगें मगर उनकी सेहत को ठीक नहीं माना जा सकता है। बात-बात में क्रोधित होना, अपनी बात मनवाने के लिए दुराग्रह करना, भौंहें चढ़ाना, आँखें तैरना और दाँत कटकिटाने से लेकर मनोभावों और शरीर की मुद्राओं का बनना-बिगड़ना इस बात को सिद्ध करता है कि बहस करने वाला मनोरोगी होता जा रहा है।यही स्थिति सोश्यल नेटवर्किंग साईट्स पर वैचारिक बहस लिखते रहने के आदी लोगों की हो जाती है जो अपने विचारों की प्रतिक्रिया जानने और इनका जवाब देने दिमाग खपाते हैं और टकटकी लगाए रहते हुए घंटों गुजार देते हैं। यह भी अपने आप में मनोरोगों को जन्म देने की आरंभिक अवस्था कही जा सकती है।
जीवन का कोई सा क्षेत्र हो, बहस का रोग पालने से बचें। अपनी बात परोस दें। फिर यह प्रयास न करें कि कौन क्या कह रहा है, लिख रहा है या प्रतिक्रिया कर रहा है। वैसे देखा जाए तो जिन लोगों पर ईश्वर की कृपा होती है। संस्कारों से भरे हुए हैं, वे ही बहस के रोग से मुक्त रहते हैं। जो लोग फालतू के विषयों पर बहस करने के आदी हो गए हैं उनसे बचें और बहस के समय का मार्गान्तरण करते हुए इस समय को रचनात्मक गतिविधियों और समुदाय एवं क्षेत्र की सेवा में लगाएं। इससे बहस की छुआछूत भरी महामारी से बचे भी रहेंगे और जीवन में लोकसेवी कर्मों की सुगंध भी पसरने लगेगी। आज बहस से ‘यादा जरूरी है हमारी शक्ति, समय और मेधा का रचनात्मक उपयोग।