वेद प्रतिपादित ईश्वर के सत्य स्वरूप में विश्वास से जीवन की सफलता
ओ३म्
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मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य का जानने वाला होता है परन्तु अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह तथा अविद्या आदि दोषों के कारण वह सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। ऐसा होने पर मनुष्य की भारी हानि होती है। मनुष्य को सत्य को पकड़ कर रखना चाहिये और असत्य मार्ग पर कदापि नहीं चलना चाहिये। असत्य में झुकने के कारण मुख्यतः स्वार्थ व असत्य प्रयोजन की सिद्धि, मनुष्य का हठ, दुराग्रह, अविद्या व अज्ञान ही हुआ करते हैं। यह बात ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में बताई है जो कि निर्विवाद एवं असत्य है। असत्य में प्रवृत्त होने के इन चार प्रमुख कारणों को मनुष्य को अपने जीवन से दूर करना चाहिये। इसका उपाय वेदों का अध्ययन तथा वेद प्रतिपादित ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखना होता है।
यदि हम वेदों का स्वाध्याय करते हैं तो इससे हम संसार की अनेकानेक सच्चाईयों से परिचित होते जाते हैं जो वेदेतर वेदों से अनभिज्ञ मनुष्यों के साहित्य में नहीं मिलती। सत्य ज्ञान की शिक्षा वही दे सकता है जो सत्य ज्ञान को प्राप्त हो। संसार में सभी जीव, मनुष्य व महापुरुष अल्पज्ञ सत्तायें हैं। सभी मनुष्य शरीरधारी मनुष्य ही हुआ करते हैं। सभी जन्मधारी मनुष्यों का ज्ञान अल्पज्ञता की कोटि का होता है। संसार में विगत 1.96 अरब वर्षों में ऐसा कोई मनुष्य उत्पन्न नहीं हुआ जो सर्वज्ञ हो अथवा जिसका ज्ञान ईश्वर के समान व तुल्य हो।
मनुष्य एकदेशी व ससीम होने से अल्पज्ञ ही रहता है, सर्वज्ञ कदापि नहीं होता। सर्वज्ञता का गुण सर्वव्यापक, सर्वान्तयामी तथा सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान उसी सर्वव्यापक परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है। यह ज्ञान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में से चार सर्वाधिक योग्य ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। इन ऋषियों से ही ब्रह्माजी व इनके द्वारा सृष्टि के सभी मनुष्य ज्ञान सम्पन्न वा ज्ञानयुक्त हुए थे। परम्परा से वेदज्ञान आज भी सुलभ है जिससे आज भी करोड़ों की संख्या में मनुष्य लाभान्वित होते हैं। वेद संस्कृत भाषा में हैं। वेदों की संस्कृत लौकिक संस्कृत भाषा से किंचित भिन्न है। वेद के पद व शब्द यौगिक होते हैं। निरुक्त की वेदार्थ प्रक्रिया से वेदों के सत्य अर्थ किये जाते हैं। वेदार्थ करने के लिये मनुष्य का सर्वथा निष्पक्ष तथा प्राचीन वैदिक साहित्य सहित वेदांगों से परिचित व इनका मर्मज्ञ होना आवश्यक होता है। शुद्ध हृदय, मन, मस्तिष्क व आत्मा से युक्त ज्ञानी मनुष्य जो संस्कृत भाषा व वेदांगों का ज्ञानी है, वही वेदों के मंत्रों के सत्य अर्थ कर सकता है। इस दृष्टि से ऋषि दयानन्द ऐसे ऋषि व मनुष्य हुए हैं जो वेदोगों का ज्ञान रखने के साथ वेदार्थ करने वाले विद्वान के सभी गुणों से युक्त थे। इसलिए उनका किया वेदभाष्य ही सत्य, उत्तम व ग्राह्य है। विद्वानों का कर्तव्य है कि वह ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य का अध्ययन करने के बाद ही वेदभाष्य करने की दिशा में कार्य करें। वेदांगों व प्राचीन वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों व इनमें निहित वेद विषयक मान्यताओं की उपेक्षा कर कोई मनुष्य वेदों के सत्य अर्थ व भाष्य नहीं कर सकता। मनुष्य जीवन की सार्थकता जीवन के लिये आवश्यक सभी उचित कार्यों को करते हुए वेदाध्ययन वा वेदो के स्वाध्याय सहित योगाभ्यास, ईश्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, परोपकार एवं दान आदि करने में ही होती है। ऐसा करने से ही मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास होता है और वैदिक कर्म फल सिद्धान्त के अनुसार भी वह मनुष्य अपने जीवन में सुख व कल्याण को प्राप्त करने साथ परजन्म में भी आत्मा की उन्नति व उत्तम परिवेशों में मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है।
वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्राप्त होता है। ईश्वर का अस्तित्व भी जीवात्मा व सृष्टि की भांति ही सत्य व यथार्थ है। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति संसार में तीन अनादि व मौलिक पदार्थ हैं। जीव व प्रकृति पर परमात्मा का पूर्ण नियंत्रण है। ईश्वर का सत्यस्रूप वेदों के अध्ययन से सामने आता है। ईश्वर के उस वैदिक स्वरूप का ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों सहित वेदभाष्य में भी उल्लेख किया है। आर्यसमाज के प्रथम तीन नियमों में ईश्वर के सत्यस्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। यह नियम हैं ‘1- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका (सृष्टिगत सभी पदार्थों का) आदि मूल परमेश्वर है। 2- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। 3- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’ ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सब विद्याओं का जानने वाला है। वह सभी जीवों का स्वामी, पिता, माता, बन्धु, सखा, हितैषी, दयालु तथा न्यायधीश है। जीवों को जन्म व मरण परमात्मा से ही प्राप्त होते हैं जिसका कारण व आधार जीवों के पूर्वजन्मों के वह कर्म होते हैं जो उसने किये तो होते हैं, परन्तु उनका भोग करना शेष रहता है। ईश्वर ही वेद ज्ञान का देने वाला तथा जीवों को मुक्ति प्रदान करने वाला है। इसके लिये जीवों को ईश्वर की वेदाज्ञाओं का पालन करना आवश्यक होता है। वेद विरुद्ध आचरण करने वाले मनुष्यों को दुःख रहित वह जीवन जो सुखों व कल्याण से पूरित हो, प्राप्त नहीं होता। वेद विरुद्ध आचरण करने से मनुष्य का परजन्म वा पुनर्जन्म भी प्रभावित होता है। अतः ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने से ही मनुष्य को लाभ होता है। वह सत्य वेद ज्ञान के अनुरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए सद्बुद्धि व ऐश्वर्य आदि को प्राप्त कर सकता है। इससे उसका जीवन सुखी व कल्याण को प्राप्त होता है। इससे मनुष्य निजी रूप से तो स्वस्थ, बलवान, निरोग व सुखी होता ही है, इससे समाज में भी उत्साह से युक्त स्वस्थ व उन्नति का वातावरण बनता है। इसी कारण सृष्टि के आरम्भ से वेदानुकूल वैदिक व्यवस्था प्रचलित थी जो महाभारत युद्ध तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्षों तक प्रचलित रही। यही व्यवस्था देश व विदेशों में अविद्यावधि प्रचलित रहती यदि महाभारत युद्ध के बाद देश में अव्यवस्था उत्पन्न होकर आलस्य व प्रमाद उत्पन्न न होता और हमने वेदों के अध्ययन व उसके सत्य अर्थों के अनुसंधान के कार्य को न छोड़ा होता। महाभारत के बाद आर्यावर्त भारत में वेदों के पठन पाठन में अवरोध से ही अविद्या उत्पन्न हुई जिससे संसार में अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की उत्पत्ति हुई। इसी के परिणाम से संसार में समय समय पर अनेक संघर्ष हुए हैं और आज भी विश्व सर्वत्र शान्ति व सुख के लक्ष्य से कोसों दूर है।
वेदाध्ययन करने से मनुष्य की अविद्या व अज्ञान दूर हो जाता है और वह पूर्ण विद्या व ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। उसे ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व कार्य सृष्टि का ज्ञान होने सहित मनुष्य के सभी कर्तव्यों, सुखों व दुःखों के साधनों का भी ज्ञान हो जाता हैं। वेदाध्ययन से मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों का जो सुख प्रदान करते है, उनका भी ज्ञान होता है। वह ईश्वर की प्राप्ति हेतु प्रतिदिन अपने दैनिक कर्तव्य ईश्वर उपासना व अग्निहोत्र यज्ञ को करता है। इससे ईश्वर व आत्मा विषयक उसके ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। वह ईश्वर के अस्तित्व व उसके वेद वर्णित गुण, कर्म व स्वभावों के प्रति आश्वस्त व सत्य आस्था वाला हो जाता है। उसे ईश्वर व उसके विधानों पर भी पूरा पूरा विश्वास हो जाता है। कर्म फल सिद्धान्त में भी उसकी अटूट आस्था उत्पन्न होती है। वह वेद निषिद्ध किसी अकर्तव्य को नहीं करता जिससे उसकी अशुभ व पाप कर्मों को न करने से होने वाले दुःखों की भी निवृत्ति होती है। वैदिक जीवन पद्धति के पालन से ही मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है। वह बलवान व दीर्घजीवी हाते है। उत्तम व शुभ कर्मों के संचय से वेद व ईश्वरवासी मनुष्य का परजन्म भी सुधरता व उत्तम होता है। मनुष्य जब तक जीवित रहता है उसका ज्ञान व अनुभव बढ़ते जाते हैं। शुभ कर्मों का संचय भी बढ़ता जाता है जिससे उसका यह जीवन सुखों से पूरित तथा मृत्यु के बाद का जीवन अर्थात् पुनर्जन्म व परजन्म भी सुखों व कल्याण से युक्त होता है। इसी मार्ग पर हमारे देश के सभी ऋषि, मुनि, विद्वान, योगी तथा सभी गृहस्थी चलते थे। हम जिस रामराज्य की कल्पना करते हैं, वह वेदों पर आधारित शासन ही था। वैदिक काल में लगभग वेदों के आधार पर ही देश व विश्व का शासन चला है जिससे सर्वत्र सुख व सन्तोष का वातावरण रहता था। आज भी वेद एवं वेदों की सभी शिक्षायें प्रासंगिक एवं आचरण करने योग्य हैं। वेद हमें ईश्वर का सत्यस्वरूप बताते हैं जिसका अध्ययन करने से मनुष्य ईश्वर सत्यस्वरूप में दृढ़ आस्थावान व स्थिर हो जाते हैं। सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर पर विश्वास करने व उसकी उपासना करने से मनुष्य का सर्वविध कल्याण होता है। अतः मनुष्य जीवन की सफलता के लिये वेदों का स्वाध्याय, वेदों के ऋषियों के ग्रन्थों यथा उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेद भाष्यों का अध्ययन करना चाहिये। इसी से ईश्वर व आत्मा सहित सृष्टि का सत्य स्वरूप जाना जाता है और जीवन व जन्म-जन्मान्तरों में आत्मा की उन्नति होती है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य