ओ३म्
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हमारा विश्व अनेक देशों में बंटा हुआ है। सभी देशों के अपने अपने मत, विचारधारायें तथा परम्परायें आदि हैं। कुछ पड़ोसी देशों में मित्रता देखी जाती है तो कहीं कहीं पर सम्बन्धों में तनाव भी दृष्टिगोचर होता है। दो देशों का तनाव कब युद्ध में बदल जाये इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। दो देशों में युद्ध आदि तो होते ही रहते हैं, अतीत में दो बार विश्व युद्ध भी हो चुके हैं जिसमें जान व माल की भारी क्षति हुई थी। वर्तमान में ऐसा कोई भी देश नहीं है जिसकी अपनी कोई समस्या न हों। वेदों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि समस्याओं की उत्पत्ति अज्ञान के कारण होती है। जब कोई मनुष्य या देश अविद्यावश लोभ व स्वार्थ से प्रेरित होकर छल व प्रपंच करता है, तो मनुष्यों व देशों में समस्तयायें उत्पन्न हो जाती हैं।
वेद ईश्वर प्रदत्त सब सत्य विद्याओं से युक्त ज्ञान है। वेद डंके की चोट पर घोषणा करते हैं कि इस संसार में इस संसार को बनाने वाला, चलाने वाला तथा इसकी प्रलय करने वाला एक ईश्वर ही है। वही ईश्वर इस संसार में प्राणी जगत व कृषि से उत्पन्न होने वाले उत्पादों को उत्पन्न करता है। यह सृष्टि सहेतुक है। इसके बनाने का प्रयोजन है। यह बिना प्रयोजन के न तो बनी है और न ही चल रही है। इसके बनाने का प्रयोजन ईश्वर में सृष्टि बनाने की शक्ति होने के साथ जीवों के कर्मों का न्याय करते हुए उन्हें सुख व दुःखी फल देना रूपी वा मुक्ति की व्यवस्था करना है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिये अनादि व नित्य परमात्मा अनादि व नित्य जीवों के लिये उपादान अनादि कारण प्रकृति से इस सृष्टि को बनाते व इसका संचालन एवं पालन करते हैं। मनुष्य जैसा कर्म करता है, ईश्वर अपनी न्याय व्यवस्था से, जो पूर्ण सत्य एवं पक्षपात रहित है, जीवों को उनके सभी कर्मों का जन्म व जन्मान्तरों में सुख व दुःख रूपी फल देते हैं। यह सृष्टि व व्यवस्था अनादिकाल से, जिसका कभी आरम्भ नहीं है, चल रही है और अनन्त काल, जिसका कभी अन्त नहीं होगा, चलती रहेगी। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह परमात्मा के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में प्रदत्त वेदों के ज्ञान को प्राप्त करें, उसे समझे व उसके अनुसार ही आचरण करें। स्वयं के जीनें व दूसरों को जीने दो, के अधिकार का सब पालन करें। जो इसमें बाधक हों उनको कड़ा दण्ड मिलना चाहिये। किसी के ऊपर बलात् अपना मत कोई न थोपे। इस प्रवृत्ति का विश्व स्तर पर विरोध होना चाहिये। यह प्रवृत्ति स्थानीय व विश्व स्तर पर अनेक समस्याओं एवं अशान्ति को जन्म देती है। सभी मनुष्यों को सत्य मत का ही आग्रही होना चाहिये। जो संस्थायें व संगठन किसी मत व सम्प्रदाय का प्रचार करते हैं, उनका कर्तव्य है कि वह अपनी मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कसें और वेद के आधार पर उन मान्यताओं की परीक्षा करके असत्य मान्यताओं व परम्पराओं को छोड़कर केवल सत्य मत का ही प्रचार करें। ऐसा देखने में नहीं आ रहा है। अतः इस कारण भी विश्व स्तर पर अनेक समस्यायें सामने आती रहती हैं। यदि वेद व वेदों में निर्दिष्ट ईश्वर के सत्यस्वरूप को विश्व के सभी लोग अपना लें तो पूरे विश्व में चमत्कार हो सकता है और अनेक बड़ी समस्याओं का हल निकल सकता है। आवश्यकता केवल असत्य को छोड़ने तथा सत्य को अपनाने की है जिसके लिये सभी मनुष्यों में दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
वेदों में संसार में एक ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन है। वेद प्रतिपादित ईश्वर सत्य एवं यथार्थ सत्ता है। वह ब्रह्माण्ड व विश्व में सदा सर्वदा से है और सर्वदा रहेगा। उसी ने ही इस सृष्टि को बनाया है। वही सब मनुष्यों व प्राणियों को जन्म देता व पालन करता है। वही सब मनुष्यों व जीवों के कर्मों का न्याय करता है, सबके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देता तथा साधकों व मुमुक्षुओं को मुक्ति का सुख देता है। यदि सब मनुष्य वेद प्रतिपादित ईश्वर के सत्य स्वरूप को जान लें और उसे स्वीकार कर लें तो वेद मत के अतिरिक्त किसी इतर मत-मतान्तर की आवश्यकता नहीं रहती। इससे संसार के सभी मनुष्यों व देशों के अनेक संघर्ष व हिंसा आदि पर नियंत्रण किया जा सकता है। संसार के सब मनुष्य वा प्राणी एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं। यह अकाट्य सत्य है। जब सब मनुष्य एक ईश्वर को मानेंगे, सत्य धर्म का पालन करेंगे, लोभ, स्वार्थ, इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध आदि प्रवृत्तिों से रहित होंगे तब ऐसा होने पर मनुष्य मनुष्य में संघर्ष कम व समाप्त हो जायेंगे और भिन्न भिन्न देशों के मध्य भी ऐसा ही होगा। धर्म लोगों से प्रेम तथा सहयोग करना तथा परस्पर दुःख बांटना, किसी को दुःख न देना, दूसरों के दुःखों को दूर करना, सबका सहायक होना, अविद्या व अज्ञान को नष्ट करना, सौहार्द बढ़ाना तथा द्वेष को सर्वथा नष्ट करने आदि उत्तम दैवीय गुणों की शिक्षा देते व प्रेरणा करते हैं। यही मनुष्यों में सहअस्तित्व को कायम रखने के लिये आवश्यक भी है। इन गुणों को बढ़ाने से ही मनुष्य समाज श्रेष्ठ समाज बनता है और इन गुणों के प्रचार व आचरण में न्यूनता होने पर सुख, शान्ति व समृद्धि के लक्ष्य की प्राप्ति में हानियां होती हैं। अतः सभी मनुष्यों व विश्व को वेदों की ओर लौटना चाहिये और वेदों की शिक्षाओं का लाभ उठाना चाहिये। वेद ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को मान्यता देते हैं। वेद मनुष्यों को मनुष्य व दैविक गुणों से युक्त मनुष्य जिसे देवता कहते हैं, बनने की प्रेरणा करते हैं और इसके साथ मनुष्य जीवन से असुरत्व व अदेवत्व के विचारों व प्रवृत्तियों को दूर करने की शिक्षा भी देते हैं। वेदों के द्वारा ही मनुष्य को सद्गुणों से युक्त तथा अवगुणों से रहित मनुष्य बनाया जा सकता है। ऐसा करने से मनुष्य लोभ रहित होकर पर द्रव्य व सम्पत्ति को मिट्टी के समान निरर्थक समझता है। यही प्रवृत्ति यदि सभी राष्ट्रों में आ जाये तो विस्तारवाद व मतवाद को बढ़ाने वाली कुचेष्टायें दूर हो सकती हैं। इस दृष्टि से वेदों का प्रचार प्रसार तथा वेदों का प्रत्येक मनुष्य को अपनाना आवश्यक है। वेदों के प्रचार से ही मनुष्य कर्म फल सिद्धान्त को समझ सकता है। असद् कर्मों के कारण ही मनुष्य को जीवन में दुःख प्राप्त होते हैं। दुःखों की निवृत्ति तथा आवागामन वा पुनर्जन्म से अवकाश भी वेदों की शरण में आकर और वेद की शिक्षाओं का पालन करने से ही प्राप्त होते हैं। अतः सत्य मार्ग को अपनाने, जीवन को दुःख मुक्त करने सहित विश्व में सुख व शान्ति का विस्तार करने तथा विश्व स्तर पर होने वाले सभी संघर्षों को समाप्त करने के लिये भी वेदों को अपनाने की आवश्यकता है। इस कार्य में वेद, विशुद्ध मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में राजनीति के जिन सत्य सिद्धान्तों का विधान व चर्चा है, उससे भी विश्व के नेताओं को लाभ उठाना चाहिये। हमने संकेत रूप में कुछ पंक्तियां लिखी हैं। विद्वान इस विषय पर विस्तार से चर्चा करके वेदों के विश्व शान्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने आदि महत्वपूर्ण विषयों को प्रतिपादित कर सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य