जगत मोहन
चारों तरफ शोर मचा है रुपया गिर गया। लेकिन क्या वास्तव में रुपया गिर गया है? अगर यह रुपया गिरा है तो किसके लिये गिरा है? क्या इसके बारे में आपको पता है? यदि हाँ, तो क्या जो लोग रुपये के गिरने के कारण बने हैं, उन पर कोई कार्रवाई हुई है? यदि नहीं, तो जिन लोगों को कार्रवाई करनी चाहिये थी अभी तक उन पर अभियोग चलाने के बारे में क्यों नही सोचा गया? क्या ये दोनों वर्ग रुपये का अवमूल्यन करने वाले और उन्हें सजा देने वाले एक ही वर्ग से तो नहीं आते? तो फिर शोर किसलिये? कहीं ये शोर देश की जनता को बरगलाने के लिये तो नही? क्योंकि जनता महँगाई से जूझ रही है, और सरकार इस महँगाई के मुद्दे से छुटकारा पाने के लिये महँगाई की पूरी गाज रुपये के अवमूल्यन पर डालकर अपना पीछा छुड़ाना चाहती हो? रुपये के अवमूल्यन के लिये वह पहले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार को जिम्मेदार ठहराती रही है। यह वैसा ही है, जैसे हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चौखा आये। अपनी जिम्मेदारियों से भी पीछा छूट गया और आगे जनता को बेवकूफ बनाने के और मौके भी मिल गये। चलो दोषारोपण खत्म करते हैं और इस रुपये के अवमूल्यन की वास्तविकता को जाँचते है। प्रसिद्ध अर्थचिंतक एस. गुरुमूर्ति ने अपने एक लेख में कुछ तथ्यों की चर्चा की है। जरा उन पर नजर डालते हैं-1. संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-अर्थात कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार) सरकार का पिछले 9 वर्ष का चालू खाता घाटा (जब निर्यात कम और आयात अधिक बढ़ जाता है उससे होने वाला घाटा) 339 अरब डालर है और 9 वर्ष का राजकोषीय घाटा (कमाई से ज्यादा जब हम खर्चा करते हैं अर्थात ‘कर कम इकटठा करते हैं और खर्चें ज्यादा करते हैं।)27 लाख करोड़ रुपये है-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
2. 2008 में जो मंदी आयी उससे बड़े उद्योगपतियों को उभारने के लिये सरकार ने उन्हें विभिन्न प्रकार के करों में छूट अर्थात प्रोत्साहन पैकेज दिये जो आज भी जारी हंै। इसके कारण जहाँ राजस्व में कमी आई वहीं खर्चें वैसे के वैसे ही बने रहे।
पिछले पाँच वर्षो में यह 16 लाख करोड़ तक पहुँच गया है-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
3. 2008 की मंदी से जहाँ सरकार को राजस्व में घाटा हुआ वहीं उद्योगपतियों को राजस्व की छूट से वे अपने व्यापार मे ही नही उभरे अपितु उन्हें पिछले वर्ष के लाभ से अधिक लाभ हुआ। इसे ऐसे समझते हैं-सरकार बजट में ऐसे राजस्व की चर्चा करती है जो किसी कारण से करदाताओं से नही मिला होता। 2008 के प्रोत्साहन पैकेज से पूर्व ऐसा घाटा प्रत्येक वर्ष में 2.6 लाख करोड़ रुपये था। जो इस पैकेज के कारण पाँच लाख करोड़ हो गया, जिसका सीधा फायदा बड़े उद्योगपतियों को हुआ है-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
4. 2008 के प्रोत्साहन पैकेज से देश को फायदा हुआ हो या नही लेकिन कुछ औद्योगिक घराने इससे जरूर मालामाल हुये, 2005-06 में इन औद्योगिक घरानों का सकल घरेलू उत्पाद में केवल 11 प्रतिशत हिस्सा था जो 2008-09 के बाद के सालों में 12.71 तक पहँुचा। लब्बोलुआब यह है कि जब देश घाटे में जा रहा था, उस समय भी औद्योगिक घराने मलाई खा रहे थे और यह सब सरकार की इनसे मिली भगत के कारण ही सम्भव हो रहा था-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
5. 2005-06 में मनमोहन सिंह और चिदम्बरम का यह सोचना था कि जो कर कटौती जारी है उसे खत्म करेंगे वह तो आज तक हुई ही नही साथ ही दिया गया प्रोत्साहन पैकेज के रूप में कर कटौती का तोहफा भी आज तक जारी है। देश को हो रहे इस घाटे पर का कौन जिम्मेदार है?-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
6. इस प्रोत्साहन पैकेज ने रुपये के अवमूल्यन में सबसे ज्यादा सहयोग दिया। 2008 से पहले हमारा आयात सीमा शुल्क के कारण 180 अरब डालर था जो प्रोत्साहन पैकेज के कारण मिले सीमा शुल्क की वजह से 407 अरब डालर तक पहुँच गया। इस आयात से जहाँ छोटे उद्योग प्रभावित हुये वहीं सीमा शुल्क में कटौती हुईर्। जब आयात 180 अरब डालर था उस समय हमें सीमा शुल्क के रूप में एक लाख करोड़ मिलते थे, वहीं आज 407 अरब डालर के आयात पर केवल 83 हजार करोड़ रुपये ही मिलते हैं। सीमा शुल्क 2.25 लाख करोड़ से घटकर आज यह 83 करोड़ डालर पर पहुँच गया है। वहीं इस घाटे के साथ हर छोटे बड़े विदेशी माल से हमारा बाजार पटा पड़ा है। जिससे छोटे उद्योग व्यापार बन्दी की कगार पर है। इसके कारण राजकोषीय घाटा ही नही बढ़ा अपितु चालू खाता घाटा भी बढ़ा-क्या रुपये के गिरने का एक कारण यह भी है?
सरकार इस समस्या से अभी तक कैसे निकलती रही है? इस पर भी गुरुमूर्ति ने अपने लेख में चर्चा की है। जरा उस पर ध्यान देते हैं। गुरुमूर्ति के अनुसार सरकार ने व्यापारिक बैंको और रिजर्व बैंक को बॉण्ड जारी करके साथ ही विदेश से कर्ज लेकर उसने राजकोषीय घाटों की पूर्ति की। जबकि सरकार चाहती तो भारत के अन्दर से ही कर्ज लेकर इस घाटे की पूर्ति कर सकती थी, क्योंकि भारतीय अपनी बचत को सुरक्षित बैंको में रखते हैं। यह राशि सालाना लगभग 10 लाख करोड़ रुपये तक होती है जिससे भारत अपने आपको आंतरिक दिवालियेपन से बचाता है। लेकिन चालू खाते के घाटे से कैसे निपटा जाये? यह एक अलग समस्या है। लेकिन इससे बचने की भी एक अलग कहानी है जो हमें चौंका सकती है। विदेशों में रह रहे भारतीयों द्वारा अपने परिवारों को भेजा जा रहा धन और प्रवासी भारतीयों के खाते से स्थानीय निकासी ने बाहरी दिवालियेपन से भारत को बचाया है। संप्रग सरकार के नौ सालों के शासन काल में भारतीय परिवारों ने 335 अरब डालर मुद्रा का सहयोग सरकार को किया है। यह वो डालर के रूप में राशि है जो न तो बाहर जाती है और न ही इस पर किसी प्रकार का ब्याज देना पड़ता है। और यह राशि लगभग उतनी ही है जितना हमारा चालू खाते का घाटा है। यह हमारी सांस्कृतिक पारिवारिक धरोहर है जो हमें विरासत में मिली है, परिवार के साथ अटूट सम्बन्ध। जिसे हमारी सरकार संरक्षित करने के बदले धराशायी करने पर उतारू है। इस सबके बाद भी हम रुपये के अवमूल्यन को नही रोक पाये जरा इस पर और विचार करें। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. भरत झुनझुनवाला के अनुसार 2002 से 2008 तक विश्व की अर्थव्यवस्था सिथर थी और उस समय एक डालर के मुकाबले में रुपये की कीमत 45 रुपये थी। 2008 से 2012 तक विश्व में मंदी के बावजूद रुपये की कीमत 45 रुपये ही रही है। ऐसे में जब भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 15 अगस्त 2013 को लालकिले से अपने भाषण में यह कहते है कि वैशिवक मंदी के कारण रुपये का अवमूल्यन हो रहा है तो बात कुछ जमती सी नजर नही आती। क्योंकि अर्थशास्त्री होने के नाते कम से कम वे इन सब तथ्यों से अवगत तो होंगे ही। जब वे अवगत है तो उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वो अपनी योग्यता के आंकलन को किनारे रख अपनी राजनीतिक बयानबाजी को आगे बढ़ा रहे है? डा. भरत झुनझुनवाला के अनुसार रुपये के अवमूल्यन के कारण कुछ और है, विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा एक सम्बन्ध आयात और निर्यात से बनता है। वैशिवक संकटों के समय हमें आयात से लाभ मिलता है, इसे ऐसे समझ सकते हैं। 2007 में तेल के दाम 145 डालर प्रति बैरल की ऊँचाई को छू गये थे। 2008 का संकट पैदा होने पर ये 40 डालर पर आ गये। रुपये के अवमूल्यन का कारण कुछ और ही है। वैशिवक मंदी का इससे कुछ लेना देना नहीं है। विभिन्न अर्थ चर्चाओं में एक बात बड़ी तेजी से उभर कर आयी है वह है भारत का निर्यात घटना और आयात का बढ़ना। जिसके कारण डालर के संचयन में कमी होती गयी और चालू खाते में घाटा बढ़ता गया। परिणामस्वरूप रुपये का अवमूल्यन जारी है। मित्रों, ऊपर के पैराग्राफों से एक बात तो समझ में आती है कि यह सारा गड़बड़ घोटाला न तो आम लोगों के कारण पैदा हुआ है न ही इससे इसका कुछ लेना देना है। लेकिन यह उसकी जिन्दगी पर प्रभाव जरूर डाल रहा है। इसका पहला प्रभाव आम आदमी की जिन्दगी पर महँगाई से पड़ रहा है और दूसरा उसके रोजगार पर। सरकार और उधोगपतियों के इस गठबंधन ने जो गड़बड़ घोटाला किया उसमें वे लोग फायदे में रहे और नुकसान आम आदमी का हुआ। सीमित पगार में जीने वाला व्यकित हर महीनें महँगाई के झटके कैसे झेलता है इन लोगों को समझ में नही आता क्योंकि इनका सम्बंध आम आदमी से तभी पड़ता है जब एक वोट के लिये आता है और दूसरे को सेवादारों अर्थात मजदूरों की आवश्यकता होती है। दोनो ही अपने लाभ के लिये जीते है। इसलिए रुपया गिरता नही है बल्कि कुछ लोगों के स्वार्थपूर्ति के लिये रुपया गिराया जाता है। क्या न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोग उन लोगों को सजा देंगें जो साजिशन रुपये के साथ देश की साख के साथ भी खेल रहे हैं?
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