मनु महाराज की मनुस्मृति में स्त्री की स्वतंत्रता
रवि शंकर
आधुनिक विद्वानों का सबसे प्रमुख शगल है स्त्री विमर्श। विषय कोई-सा भी हो स्त्रियों का मुद्दा उसमें जोड़ ही दिया जाता है। राजनीति से लेकर सेना तक और शिक्षा से लेकर व्यवसाय तक स्त्रियों को प्रमुखता देने, उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की बात की जाती है। ये बातें सकारात्मक और रचनात्मक हैं, इसलिए इनका स्वागत किया जाना चाहिए, परंतु इन बातों को करने के साथ-साथ एक हीनता का भाव भी भरा जाता है कि प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति काफी खराब थी और भारतीय शास्त्र विशेषकर मनुस्मृति स्त्रियों के अधिकारों और स्वतंत्रता के बड़े हननकर्ता रहे हैं। कहा और माना जाता है कि प्राचीन भारत में स्त्रियों को शिक्षा तक का अधिकार नहीं था। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण स्त्रियों को पुरुषों के आश्रय में रहना पड़ता था। परंतु यदि गंभीरता से भारतीय शास्त्रों का अध्ययन किया जाए तो स्थिति इसके ठीक विपरीत नजर आती है। यदि हम वेदों की बात अभी छोड़ दें तो भी मनुस्मृति जैसे स्त्रीविरोधी माने जाने वाले ग्रंथों में स्त्रियों के लिए ऐसे विधान किए गए हैं, जो आज भी उन्हें प्राप्त नहीं हैं या फिर जिनके लिए उन्हें न्यायालय में जाना पड़ रहा है।
मनुस्मृति के बारे में सबसे पहले दो बातें जानना आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि मनुस्मृति में आचरण-व्यवहार और अधिकारों व दंडविधानों की चर्चा अलग-अलग की गई है। उन्हें उनके संदर्भों में देखने से ही सही चित्र सामने आ सकेगा। दूसरी बात यह है कि मनुस्मृति में समय-समय पर लोगों ने काफी बड़े परिमाण पर प्रक्षेप किए हैं। प्रक्षेप यानी कि मनमर्जी के श्लोक बना कर डाले गए हैं जो वास्तव में मनु के नहीं हैं और जो अधिकांश मामलों में मनु के विधानों के विरोध में भी हैं। मनु स्मृति में प्रक्षिप्तों की बात तो कुल्लूक भट्ट प्रभृति मनु के पुराने भाष्यकार भी स्वीकार करते हैं और उन श्लोकों का प्रक्षिप्त होना प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार सहित अनेक विद्वानों ने भली भांति सिध्द किया है। इन प्रक्षेपों को छोड़ कर ही यहां मनु के विधानों की चर्चा की जाएगी।
सबसे पहले यह जानना महत्वपूर्ण है कि मनु ने सर्वत्र स्त्रियों को काफी सम्मान दिया है और स्त्री के प्रसन्न रहने में ही परिवार और कुल की सुख-समृद्धि बताई है। उनका एक प्रसिद्ध वाक्य है – जहां स्त्रियों का सत्कार और सम्मान होता है, वहां श्रेष्ठ लोगों व देवताओं का वास होता है। इसके आगे वे कहते हैं कि जिस समाज में स्त्रियां शोक व चिंताग्रस्त होती हैं, वह समाज शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहां स्त्रियां निश्चिंत और सुखी रहती हैं, वह समाज सदैव विकास करता रहता है। क्या यही कारण नहीं है कि आज हमारे समाज का पतन ही हो रहा है, उत्थान नहीं। धन संपदा के बढऩे पर भी परिवार भाव, सामाजिक दायित्वबोध और मानवीय मूल्यों में लगातार गिरावट आ रही है।
मनु ने शिक्षा का स्त्री-पुरुष के लिए अलग-अलग विधान नहीं किया है। शिक्षा के लिए उन्होंने केवल उपनयन संस्कार की चर्चा की है और उसमें वर्णानुसार संस्कार कराए जाने की बात कही है। यानी कि जो जिस वर्ण में जाने का इच्छुक हो, वह उसके अनुसार उपनयन कराए। वहां कहीं भी यह नहीं लिखा कि शूद्र या स्त्री का उपनयन संस्कार नहीं किया जाए। इसके विपरीत वहां इनकी कोई चर्चा ही नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि मनु किसी को भी शिक्षा से वंचित नहीं करते हैं। वर्णानुसार संस्कार कराने में भी मनु ने लिखा है कि जो जिस वर्ण में जाने का इच्छुक हो उसके अनुसार उपनयन करवाए। इसका अर्थ साफ है कि मनु जन्म से किसी को ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य नहीं मानते हैं। यहां पर एक क्षेपक भी मिलता है जो स्त्रियों के लिए मंत्रहीन उपनयन संस्कार का वर्णन करता है और पतिसेवा को ही गुरूकुल में रहने के समान बताता है। यह विधान कई कारणों से क्षेपक सिद्ध होता है। एक तो यह उपनयन के विधान के पूर्ण होने के बाद केशांत आदि का वर्णन हो जाने के बाद आया है और दूसरे यह वेदानुकूल भी नहीं है। तीसरे, इसके अलावा कहीं भी मनु में स्त्रियों और पुरुषों के लिए ब्रह्मचर्याश्रम के अलग-अलग कर्तव्य नहीं बताया गया है। साफ है कि मध्यकाल में किसी ने इसे मिलाया है। आगे विवाह के प्रकरण में हम देखेंगे कि हमेशा मनु कन्या के योग्य वर की चर्चा करते हैं, वर के योग्य कन्या की नहीं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कन्या यानी कि स्त्रियों का शिक्षण होता था और मनु स्त्री शिक्षा के बड़े समर्थक थे।
शिक्षा पूरी करने के बाद विवाह के प्रकरण में यदि हम मनु की व्यवस्था को देखें तो बड़ी ही आश्चर्यजनक बात सामने आती है। मनु ने आठ प्रकार के विवाहों की चर्चा की है। ये प्रकार स्त्री अधिकारों की रक्षा करते हुए बनाए गए हैं। इन आठ प्रकारों को उन्होंने दो भागों में बांटा है – उत्तम और निकृष्ट। चार उत्तम विवाह हैं – ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य। इनमें से भी सबसे श्रेष्ठ प्रकार है ब्राह्म विवाह। इसका वर्णन करते हुए मनु कहते हैं कि जिस किसी विद्वान व सुशील पुरुष को स्त्री ने स्वयं पसंद और प्रसन्न किया हो, वस्त्राभूषण से अलंकृत करके उसका विवाह उस युवक के साथ कर देना ही ब्राह्म विवाह है। इस प्रकार यह विवाह स्पष्ट रूप से प्रेम विवाह है। इसकी पहली शर्त यही है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पसंद करते हों। यहां वर्ण, जाति, शिक्षा, व्यवसाय और संपदा किसी भी प्रकार के भेद की चर्चा नहीं है। साफ है कि मनु केवल स्त्री-पुरुष की परस्पर प्रसन्नता को ही सर्वाधिक महत्व देते हैं। यह विधान आज समाज को इसलिए भी बताए जाने की आवश्यकता है क्योंकि झूठे प्रमादवश लोग प्रेम विवाह करने पर युवक-युवतियों का बहिष्कार से लेकर हत्या कर देने तक का जघन्य अपराध कर रहे हैं। यदि उन्हें पता हो कि यह तो हमारे शास्त्रकारों का विधान है तो संभवत: वे इस महापातक से बच जाएं।
विवाह के अन्य प्रकार भी स्त्रियों के अधिकारों को सुरक्षित करते हैं। दैव विवाह सामूहिक विवाह जैसा ही है और उसमें भी बिना माता-पिता के दबाव के किया जाता है। इसमें भी स्त्री की इच्छा प्रमुख है। आर्ष विवाह में विधान है कि वर यदि किसी कन्या को पसंद करता हो तो वह एक जोड़ी गाय या बैल लेकर कन्या के पिता के पास जाए और तब कन्या का पिता उनका विवाह करवा दे। इसका तात्पर्य केवल वर की आर्थिक सामथ्र्य की जांच करना है। प्राचीन काल में और कमोबेश आज भी कृषि का प्रमुख आधार गाय और बैल ही हैं। जो एक-दो जोड़ी गाय या बैल अतिरिक्त रख सकता हो, वह अपेक्षाकृत समृद्ध ही माना जाएगा। प्राजापत्य विवाह में कन्या और वर के माता-पिता विवाह का निर्णय लेते हैं। इसमें स्त्री-पुरुष की इच्छा गौण है, परंतु यह चार उत्तम विवाहों में सबसे अंतिम प्रकार का विवाह है जिसका अर्थ है कि पहले तीनों प्रकार के विवाह की स्थिति न होने पर इस चौथे प्रकार से विवाह किया जाए। दुर्भाग्यवश आज समाज में यह चौथे प्रकार का ही विवाह सर्वाधिक स्वीकृत है। शेष विवाहों को हेय दृष्टि से देखा जाता है जबकि मनु इसको ही सबसे न्यून श्रेणी का विवाह मानते हैं। आज मनु के इन विधानों से समाज को अवगत कराए जाने की महती आवश्यकता है।
मनु ने जो चार निकृष्ट विवाह बताए हैं, वे भी एक प्रकार से आपातस्थिति में स्त्री के साथ की गई ज्यादतियों के दुष्परिणामों से उसकी रक्षा के लिए हैं। गंधर्व विवाह तो आज के ‘लिव इनÓ संबंध के समान है। मनु ने इसे भी विवाह की संज्ञा दी है यानी कि लिव इन में रहने पर भी स्त्री को विवाहिता की भांति सारे अधिकार मिलेंगे। शेष तीन अपहरण, बलात्कार और नशा आदि खिला कर धोखे से किए गए दुष्कर्मों के कारण स्त्री को सामाजिक अपमान न झेलना पड़े, इसके लिए ये तीन निंदनीय विवाहों का विधान मनु ने किया है। यह साफ है कि मनु इन सभी में स्त्री की इच्छा का प्रधानता देते हैं। यह उन्होंने विवाह के पहले ही प्रकार में स्पष्ट कर दिया है। आगे नवें अध्याय में स्त्री-पुरुष संबंधों में राज्य नियमों यानी की कानूनों की चर्चा करते हुए इसका और विस्तार किया गया है।
नवां अध्याय स्त्री-पुरुष संबंधों में राज्य यानी कानून की व्यवस्था से संबंधित है। इस अध्याय के प्रारंभ में ही मनु यह बताते हैं कि स्त्रियां ही परिवार, कुल व समाज के सुख का आधार हैं और इसलिए उनके अधिकारों की रक्षा करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परंतु वे यह भी बताते हैं कि किसी भी प्रकार की जबरदस्ती या दबाव से स्त्रियों की रक्षा संभव नहीं है। मनु इससे आगे बढ़कर कहते हैं कि विश्वसनीय पुरुषों पिता, पति, भाई चाचा, मामा, आदि की निगरानी में घर में रोक कर रखी हुई स्त्री भी सुरक्षित नहीं होती, बल्कि जो अपनी रक्षा स्वयं करती हैं, वही सुरक्षित रहती हैं। मनु ने जो यह बात कही है, आज वही बात हमारी पुलिस और सरकारें भी कह रही हैं। घर में या फिर अपने संबंधी पुरुषों के संरक्षण में रहने मात्र से स्त्री की सुरक्षा को अनिश्चित कह कर मनु ने घरेलू हिंसा की समस्या की ओर भी ध्यान दिलाया है और स्त्रियों को पुरुष पर अवलंबित रहने से सावधान भी किया है। मनु यह मानते हैं कि स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के भाव को बढ़ाकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। वे अलग-अलग अध्यायों में स्त्रियों को प्रसन्न और संतुष्ट रखने की चर्चा करते हैं। कहीं भी बलपूर्वक उनसे कुछ मनवाने या फिर कोई बात थोपने की चर्चा नहीं है।
इस अध्याय में स्त्री के स्वयं से वर चुनने यानी कि प्रेम विवाह को कानूनी वैधता देते हुए मनु कहते हैं यदि योग्य वर न मिले तो चाहे जीवन भर कुंवारी रहे, परंतु कन्या का विवाह गुणहीन व अयोग्य वर से न करे। इसके बाद मनु कहते हैं कि विवाह योग्य होने के पश्चात् कन्या अपने लिए वर का चयन कर सकती है। अभिभावकों द्वारा योग्य वर न चुन पाने की अवस्था में यदि स्त्री अपने लिए स्वयं वर का चुनाव करती है तो इसमें कोई पाप यानी कि दोष नहीं है। इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु सर्वत्र स्त्री की स्वतंत्रता का भरपूर सम्मान करते हैं और उसे प्राथमिकता देते हैं। मनु ने विधवा विवाह को भी इस अध्याय में मान्यता दी है। वे कहते हैं कि यदि स्त्री के विवाह (वाग्दान) हो जाने के बाद उसके पति की मृत्यु हो जाए तो उसका दूसरा विवाह कर दिया जाना चाहिए। हालांकि मनु ने इस विधान में पति के छोटे भाई से विवाह की चर्चा की है, परंतु इससे इतना तो स्पष्ट है कि मनु विधवा स्त्री के दूसरे विवाह को अमान्य नहीं करते हैं।
इसी अध्याय में मनु ने स्त्रियों के लिए नियोग करने के अधिकार की भी चर्चा की है। नियोग यानी कि स्त्री को यह अधिकार होता था कि पति के अभाव में वह किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पन्न कर सकती थी। नियोग का विधान यह बताता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को किस हद तक स्वाधीनता दी गई थी। आज एक ओर जहां पुरुषों को यह छूट दी जाती है कि संतान न होने पर वे दूसरा विवाह कर लें, मनु ने स्त्रियों को यह छूट दी है कि यदि पति से संतान न हो रही हो तो वह दूसरे से संतान उत्पन्न कर ले। इस संतान पर किसका अधिकार होगा, इस पर मनु ने काफी चर्चा की है और व्यवस्था दी है कि सामान्यत: संतान पर स्त्री का ही अधिकार होगा, परंतु यदि दोनों ने मिल कर तय किया हो तो पुरुष का भी अधिकार हो सकता है। इस विधान में आज की सरोगेट माँ की व्यवस्था को भी देखा जा सकता है। विवाह की ही भांति नियोग की भी सार्वजनिक घोषणा होती थी। किससे नियोग करना है, इसमें स्त्री अपने बड़ों से मार्गदर्शन ले सकती थी। जिससे नियोग किया जा रहा है, संतान होने के बाद, उससे संबंध समाप्त करने होते थे। इससे साफ है कि नियोग करने वाली स्त्री की भी पूरी प्रतिष्ठा होती थी।
मनु स्त्रियों को आर्थिक अधिकार भी देते हैं। आमतौर पर समझा जाता है कि मनु स्त्री को हमेशा पुरुष पर आश्रित रहने वाली बात ही कहते हैं। इसके लिए एक श्लोक भी बताया जाता है कि बचपन में स्त्री पिता के आश्रय, युवावस्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के आश्रय रहती है। परंतु मनु इतने संकुचित नहीं हैं। मनु ने स्त्रियों को वे सारे अधिकार दिए, जो आज हम उसे देना चाहते हैं। परंतु मनु ही नहीं, सभी प्राचीन भारतीय विद्वानों का मानना था कि स्त्री को अर्थोपार्जन न करना पड़े तो अच्छा। उस पर परिवार को संभालने और संचालन करने का बड़ा दायित्व रहता है। यदि वह अर्थोपार्जन में जुट जाएगी तो परिवार ठीक से नहीं चल पाएंगे। इसलिए सामान्य स्थिति में यही श्रेयस्कर समझा गया कि स्त्रियां अर्थोपार्जन की चिंता से मुक्त रहें। परंतु आपात स्थिति में उन्हें अर्थोपार्जन करने से मना नहीं किया गया है। मनु कहते हैं कि यदि पति किसी कार्यवश परदेश जाए तो स्त्री की आजीविका का पूरा प्रबंध करके जाए। परंतु यदि वह ऐसा नहीं करता है तो अनिंदित शिल्प कार्यों से वह अपनी आजीविका का प्रबंध स्वयं करे। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण व्यवस्था है। इसके बाद मनु ने स्त्री को पति के परदेश जाने की अवस्था में नियोग करने का भी विधान किया है। वे कहते हैं – यदि पति धर्म के कार्य से विदेश गया हो तो आठ वर्ष, यदि विद्यार्जन या यश प्राप्ति के लिए गया हो तो छह वर्ष और यदि केवल पैसे कमाने के लिए गया हो तो तीन वर्ष तक उसकी प्रतीक्षा करे। उसके बाद वह नियोग करके संतान कर सकती है। हालांकि मूल श्लोक में नियोग शब्द वर्णित नहीं है, इसलिए इस विधान में नियोग के अलावा दूसरा विवाह करने की भी व्यवस्था मानी जा सकती है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु स्मृति में स्त्रियों के अधिकारों को पूरा-पूरा स्थान दिया गया है। मनु स्त्रियों की प्रसन्नता पर ही पूरे समाज के विकास को निर्भर मानते हैं। वे साफ-साफ शब्दों में कहते हैं कि जहां स्त्रियों का सम्मान और सत्कार होता है, वहीं दिव्यता आती है। हालांकि मनु में इन सकारात्मक विधानों के साथ ही इनके विरोधी विधान भी मिला दिए गए हैं, परंतु इन विधानों के आलोक में यदि हम मनु स्मृति को पढ़ेंगे तो इन प्रक्षेपों को समझ पाएंगे। कहा जा सकता है कि यदि मनु के वास्तविक विचारों को प्रक्षेपों से और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर समझने का प्रयास किया जाए तो समाज में न केवल स्त्रियों को उनका उचित स्थान मिल सकेगा, बल्कि हम यह भी गर्वपूर्वक कह पाएंगे कि प्राचीन भारत का समाज एक अति उदार और विकसित समाज था।