अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच युद्ध , कहीं विश्वयुद्ध की आहट तो नहीं ?
ललित गर्ग
कोई बड़ी बात नहीं कि यह चिंगारी यूरोप के साथ समूची दुनिया को भी लपेट ले। विश्व के सबसे बड़े युद्ध क्षेत्र में हो रही यह लड़ाई चंद दिनों के अंदर विश्व युद्ध में तब्दील हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इस क्षेत्र में इजराइल बहुत आक्रामक हो ही चुका है।
कोरोना महामारी और आर्थिक अंधेरों से पैदा हुई चुनौतियों के बीच हमें इस बात का अंदाजा भी नहीं हो पाया है कि काकेशस क्षेत्र में दो पड़ोसी मुल्कों अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच पिछले एक हफ्ते से ज्यादा समय से भयानक युद्ध छिड़ा हुआ है। यह युद्ध ईसाईयत एवं इस्लाम के बीच है, ईसाईयत यानी आर्मीनिया पर इस्लाम यानी अजरबैजान का हमला हो चुका है। आर्मीनिया के साथ इजराइल, अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन व भारत आदि नाटो देश हैं तो अजरबैजान के साथ इस्लामिक जगत का स्वयंभू खलीफा तुर्की, पाकिस्तान ईरान, उत्तरी कोरिया व चीन जैसी ताकतें हैं। दोनों देश पूर्व सोवियत संघ से निकले हैं और इनके बीच कुछ इलाकों को लेकर पुरानी रंजिश है। इसी कारण झड़पें भी होती रहती हैं, लेकिन इस बार की जंग पिछले कई दशकों में हुई लड़ाइयों से ज्यादा गंभीर, विनाशक एवं चुनौतीपूर्ण बतायी जा रही है। इन युद्ध की स्थितियों से तमाम दुनिया के लोग डरे एवं भयभीत हैं और उन पर निराशा और हताशा के बादल मंडरा रहे हैं। विश्व जनमत युद्ध का अंधेरा नहीं, शांति का उजाला चाहता है।
काकेशस युद्ध में 100 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और सैंकड़ों अन्य घायल हैं। इतनी बड़ी संख्या तब, जब आंकड़े आधे-अधूरे एवं एक ही पक्ष के मिल रहे हैं। अजरबैजान ने अपनी तरफ हताहत होने वालों की कोई संख्या नहीं बताई है। मामला मूलतः करीब साढ़े चार हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र नागोर्नो-कारबाख से जुड़ा है, जो पड़ता है अजरबैजान में लेकिन वहां की ज्यादातर आबादी आर्मीनियाई है। 1994 में हुए समझौते के मुताबिक यह क्षेत्र अजरबैजान का हिस्सा मान लिया गया, लेकिन इस पर स्वायत्त शासन आर्मीनियाई अलगाववादियों का ही बना रहा और इसे लेकर खटपट भी चलती रही। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के बाद 40 देशों में बंटे खलीफा ऐ इस्लाम तुर्की (ऑटमन गणराज्य) को मित्र देशों ने युद्धोपरांत संधि के अंतर्गत सौ साल तक अपमानजनक संधि से बांधकर रखा हुआ था, जो अब पूरी होने जा रही है। इसीलिए मध्य एशिया में उबाल पूरी चरम स्थिति में है। कोई बड़ी बात नहीं कि यह चिंगारी यूरोप के साथ समूची दुनिया को भी लपेट ले। विश्व के सबसे बड़े युद्ध क्षेत्र में हो रही यह लड़ाई चंद दिनों के अंदर विश्व युद्ध में तब्दील हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इस क्षेत्र में इजराइल बहुत आक्रामक हो ही चुका है और अपने दुश्मन चीन समर्थक इस्लामिक देशों को निशाना बना ही रहा है। अमेरिकी पहल पर यूएई से संधि कर इजराइल ने इस्लामी जगत में दो फाड़ करवा दी है।
युद्ध का ताजा माहौल 27 सितम्बर 2020 को शुरु हुआ, जब अजरबैजान ने कथित तौर पर आर्मीनियाई अलगवावादियों द्वारा कब्जा किए गए कुछ क्षेत्रों को छुड़ाने की कार्रवाई शुरू की। जो बात फिलहाल एक खास क्षेत्र तक सीमित इस युद्ध को गंभीर और संवेदनशील बनाती है वह यह कि आर्मीनिया की ज्यादातर आबादी ईसाई है जबकि अजरबैजान एक मुस्लिम बहुल देश है। यहां की मुस्लिम आबादी शिया है और उसकी भाषा तुर्की है। ऐसे में तुर्की अजरबैजान के अपने मुस्लिम भाइयों के समर्थन में है, दूसरी तरफ ईसाई आर्मीनिया को फ्रांस का सपोर्ट हासिल है। खतरा यह है कि कहीं यह लड़ाई मुस्लिम बनाम ईसाई का रूप न ले ले। इस युद्ध को संवेदनशील बनाने वाली एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां से होकर कई सारी तेल और गैस पाइपलाइन गुजरती हैं जो काकेशस से यूरोपीय देशों को तेल और गैस पहुंचाती है। इन पाइपलाइनों की सुरक्षा का सवाल सबकी चिंता का विषय है। कोरोना के कारण दुनिया में पहले ही वैश्विक तनाव, आर्थिक अस्थिरता एवं जीवन संकटपूर्ण बना हुआ है, विकास की गति मंद है, महंगाई बढ़ती जा रही है, मानव जीवन जटिल हो रहा है और असमानताएं बढ़ रही हैं। आर्थिक असंतुलन एवं जलवायु संकट बढ़ता जा रहा है।
काकेशस में युद्ध के कारण विश्व युद्ध का माहौल एवं स्थितियां उग्र होती जा रही है, इसका एक युद्ध-क्षेत्र दक्षिण व पूर्वी चीन सागर बनेंगे क्योंकि समुद्री खनिज व समुद्री व्यापारिक मार्गों पर कब्जे की लड़ाई यहाँ निर्णायक रूप लेती जा रही है और एक युद्ध का क्षेत्र दक्षिण एशिया है जो चीन को घेरने की पेंटागन की रणनीति में यह बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। जिस स्तर पर आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत युद्ध की तैयारी कर रहे हैं उससे स्पष्ट हैं कि चीन व उसके समर्थक देशों को घेरकर बुरी तरह निबटाया जाएगा। युद्ध की इन बन रही विभीषिका में बड़ी तबाही के साथ ही कई देशों के अस्तित्व ही बदल जाएँगे। आगे क्या होगा यह इसी पर निर्भर करता है कि हालात क्या मोड़ लेते हैं।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है वह चाहे कितना ही चीन के खिलाफ आग उगल ले, मगर युद्ध की पहल नहीं करेगा और चीन भी भारत पर हमला करने से परहेज करेगा क्योंकि विश्व युद्ध की स्थिति में वह कई मोर्चों पर उलझने से बचेगा। दोनों के बीच नूरा कुश्ती यानि सीमाओं पर झड़पें अवश्य चलती रहेंगी। अगर मजबूरी हुई तो भारत पाकिस्तान पर हमला बोलेगा और अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान का सर्वनाश निश्चित है चाहे चीन उसकी कितनी भी मदद कर ले।
अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका का भी युद्ध का मैदान बनना तय है क्योंकि यहाँ भी चीन की खासी घुसपैठ है और उत्तरी अमेरिका का प्रमुख देश यानि अमेरिका ही इस युद्ध को निर्देशित करेगा क्योंकि चीन के जैविक युद्ध (कोरोना वायरस) का सबसे बड़ा शिकार भी तो वो ही है। प्रश्न है कि इन स्थितियों में रूस कहाँ है? अजरबैजान और आर्मीनिया-ये दोनों देश युद्धरत हैं, वे पूर्व सोवियत संघ से ही तो जुड़े थे। सच्चाई तो यही है कि दुनिया के मिडिल मेन के रूप में उभरे रूस ने ही लड़ाई का मुद्दा दिया है। अब वह पूरी दुनिया को उसी तरह हथियार बेचेगा जैसे कि दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका ने बेचे थे। युद्ध के बाद निश्चित रूप से अमेरिका व चीन कमजोर हो चुके होंगे, ऐसे में दुनिया की सबसे बड़ी ताकत कौन होगा?
भविष्य में कौन ताकतवर बन कर उभरेगा, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अजरबैजान और आर्मीनिया के युद्ध से जुड़ा एक दिलचस्प कोण इजराइल का भी है। दुनिया भर में भले ही उसकी मुस्लिम विरोधी छवि बनी हुई हो लेकिन यहां वह अजरबैजान को हथियारों की सप्लाई कर रहा है। इससे नाराज होकर आर्मीनिया ने इजराइ से अपना राजदूत वापस बुला लिया है। बहरहाल आज जब दुनिया इतिहास के एक चुनौती एवं संकटपूर्ण दौर से गुजर रही है, तब दो देशों के बीच ऐसे युद्ध को लंबा खिंचने देना खतरनाक हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र की हालात ऐसी नहीं रह गई है कि उससे ज्यादा उम्मीद की जा सके। युद्ध के लिये तत्पर राष्ट्र भी युद्ध नहीं चाहते, लेकिन उनका अहंकार उन्हें न केवल स्वयं को बल्कि दुनिया को नष्ट करने पर तुला है। इन जटिल एवं संकटकालीन स्थितियों को देखते हुए शांतिकर्मी शक्तियों को इस स्तर तक मुखर होना चाहिए कि बड़ी शक्तियों एवं युद्ध के लिए अग्रसर राष्ट्रों को इनके दुरुपयोग से रोका जा सके, अन्यथा एक मर्यादा लांघने के बाद सर्वनाश की शुरूआत हो जाएगी।
वैज्ञानिक इस बात की घोषणा कर चुके हैं कि युद्ध में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने वाले कम और दुष्परिणामों का शिकार बनने वाले संसार के सभी प्राणी होते हैं। युद्ध वह आग है, जिसमें मानव के लिये जीवन-निर्वाह के साधन, पर्यावरण, साहित्यकारों का साहित्य, कलाकारों की कला, वैज्ञानिकों का विज्ञान, राजनीतिज्ञों की राजनीति और भूमि की उर्वरता भस्मसात् हो जाती है। शांति के लिए सब कुछ हो रहा है- ऐसा सुना जाता है। युद्ध भी शांति के लिए, स्पर्धा भी शांति के लिए, अशांति के जितने बीज हैं, वे सब शांति के लिए, यह वर्तमान विश्व नेतृत्व के मानसिक झुकाव की भयंकर भूल एवं त्रासदी है। बात चले विश्वशांति की और कार्य हों अशांति के तो शांति कैसे संभव हो ? विश्वशांति के लिए अणुबम आवश्यक है, यह घोषणा करने वालों ने यह नहीं सोचा कि यदि यह उनके शत्रु के पास होता तो। इसलिये युद्ध का समाधान असंदिग्ध रूप में शांति, अहिंसा और मैत्री है। कोई भी राष्ट्र कितना भी युद्ध करे, अंत में उसे समझौते की टेबल पर ही आना होता है। यह अंतिम शरण प्रारंभिक शरण बने, तभी दुनिया राहत की सांस लेगी। मंगल कामना है कि अब मनुष्य यंत्र के बल पर नहीं, भावना, विकास और प्रेम के बल पर जीए और जीते। अंधकार प्रकाश की ओर चलता है, पर अन्धापन मृत्यु की ओर।