सन 1948 में भारत के चार पेंटर मिलकर एक ग्रुप बनाते हैं…प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप (PAG)।
शुजा, रजा, हैदर और फिदा। और इत्तेफाक देखिए….
वैसे कला का कोई धर्म नहीं होता…आमफहम जुमला।
देखते-देखते पैग आधुनिक भारतीय कला का परचम बन गया। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट, महाराष्ट्र स्कूल ऑफ आर्ट, कांगड़ा स्कूल ऑफ आर्ट, ओडिसा की पटुआ कला, राजस्थान की चित्रकला…अनगिनत भारतीय कला की धाराएं नेपथ्य में चली गईं। खत्म सी ही हो गई।
आज की युवा पीढ़ी में से ऐसे कितने हैं जो यामिनी राय, नन्दलाल बसु, डॉ आनन्द कुमार स्वामी, गणेश पाइन, विवान सुंदरम, यशवंत होलकर, विकास भट्टाचार्य जैसे बेशुमार नामों से, उनके काम से परिचित हैं ? या कभी सुना भी है ?
आज शायद ही इन भारतीय स्कूल्स की कला की खूबियों और इनके चितेरों के नाम हम भारतीयों की स्मृतियों में हों। जैसे-तैसे जीवित भले हैं, पर वैश्विक क्या राष्ट्रीय स्तर की कला में कहीं कोई जगह नहीं। कोई सम्मान या पहचान नहीं।
संभव है, कला जगत की व्यावसायिकता से अनजान नादान मित्र मधुबनी पेंटिंग का नाम लें…ऐसे मित्रों से एक छोटी सी जानकारी साझा कर लूं..पेरिस में जब मॉर्डन पेंटिंग प्रदर्शनी में पिकासो और डॉली के समानांतर एशियन पेंटर्स की कृति लगाने की बारी आई तो भारत से सिर्फ एक नाम चुना गया…मकबूल फिदा हुसैन का।
मित्रों की जानकारी के लिए यह भी बता दूं…इंदौर से निकला फिदा शुरुआत में कोलकाता में फ़िल्म के होर्डिंग पेंट किया करते थे।
पेंटिंग, सोने से भी बड़ा निवेश का क्षेत्र है। जैसे आमजन सोने से अपनी समृद्धि तौलते हैं…वैसे संसार का सबसे धनाढ्य समाज दुर्लभ पेंटिंग में निवेश करता है। सन 1990 में फिदा का यह हाल था, यदि मुंह में पान की पीक भरके कनवास पर थूक दे तो जहां तक छींटे जाए, 5000 ₹ प्रति स्कावयर इंच पेंटिंग की प्राइस लगती थी। वह भी न्यूनतम बता रहा हूँ।
खैर मूल मुद्दा है, क्या पैग के पेंटर अपनी खूबियों से वैश्विक पटल पर छा गए ? क्या भारत के तमाम “स्कूल ऑफ आर्ट्स” वैश्विक योग्यता नहीं रखते थे ? तो दोनों सवालों पर अपन कहेंगे…नहीं पता। क्योंकि यह कलाजगत की अंतहीन बहस का विषय है।
पर एक बात जरूर जानता हूँ…पैग जैसे ग्रुप को नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी सरीखे राजनेताओं और टाटा जैसे उद्योगपतियों ने खूब संरक्षण दिया। बाकी किसी को नहीं। यह दीगर है, दिवंगत ललित नारायण मिश्र ने मधुबनी को एक पहचान दिलाई। लेकिन इसे कला के विशाल सागर में एक नन्ही सी बूंद ही समझिए।
संस्कृति और सभ्यता के संघर्ष का पटल बहुत व्यापक होता है मित्रों। आप जब धर्म-धर्म की हुंकार लगाते हैं तो मेरी नजर खोखली बुनियाद पर रहती है। निष्क्रिय समाज पर रहती है।
वामपन्थ ने सिर्फ जीवन या राजसत्ता को ही नहीं, रचनाधर्मिता के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। आपकी तमाम बालसुलभ कल्पनाओं से भी परे जाकर…तमाम मानक ही बदल डाले। फिलहाल तो हम कहीं हैं ही नहीं।
लेखक : सुमन्त भट्टाचार्य