इतिहास पर गांधीवादी की छाया , अध्याय – 7, कॉंग्रेस अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी

कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष और गांधीजी

1938 में हरिपुरा अधिवेशन के वार्षिक अधिवेशन के लिए सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था । वास्तव में कांग्रेस के द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष पद पर बैठाए जाने की यह घटना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण थी ,क्योंकि इसके पश्चात तथाकथित ‘गांधी युग’ समाप्त होकर कॉन्ग्रेस क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के युग में प्रवेश कर रही थी । जिससे ‘गांधीवाद का भूत’ कभी देश में पनपता ही नहीं । गांधी जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के संगठन अथवा कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद पर विराजमान होने की इस घटना से समझ लिया था कि उनके दिन तब ‘लद चुके हैं ।’

हरिपुरा में कांग्रेस अधिवेशन के समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना की । जिसके सदस्यों में बिङला,लाला श्रीराम, विश्वरैया सम्मिलित थे। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना कार्यभार संभाला तो गांधीजी धीरे-धीरे प्रभाव शून्य होने लगे । यद्यपि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का गांधीजी के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत श्रद्धा भावना वाला था , परंतु इसके उपरान्त भी गांधी जी को यह आभास होने लगा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रहते उन्हें ‘अपेक्षित सम्मान’ नहीं मिल पा रहा है। वैसे सच भी यही था , क्योंकि उस समय देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस सबसे अधिक लोकप्रिय नेता थे । इतना ही नहीं , कांग्रेस के भीतर भी लोग उन्हें ही सुनना चाहते थे , गांधी जी को नहीं। तब गांधीजी इस प्रतीक्षा में थे कि अगले वर्ष के अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को किसी भी स्थिति में कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनने देना है। गांधी जी अब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ‘राजनीतिक हत्या’ करने की योजना बनाने लगे थे । इससे पूर्व भी वह कई नेताओं की राजनीतिक हत्या कर चुके थे। भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि अनेकों समकक्ष नेताओं की राजनीतिक हत्या करने वाले गांधीजी को ‘अहिंसा का पुजारी’ मानकर महात्मा के रूप में पूजा जाता है।
भारतीय वांग्मय में मन, वचन ,कर्म तीनों से मनुष्य का अहिंसक होना अनिवार्य माना जाता है । जो व्यक्ति इस प्रकार की साधना में लीन रहता है या सफल हो जाता है , उसे ही अहिंसा का पुजारी कहा जाता है । गांधीजी न केवल वैचारिक हिंसा में अपितु कस्तूरबा गांधी के साथ तो शारीरिक हिंसा करने तक में भी अनेकों बार दृष्टिगोचर होते हैं। इसके उपरान्त भी वह ‘अहिंसा के पुजारी’ हैं। जो लोग हमारे मत से सहमत नहीं है वे पहले अहिंसा की वास्तविक परिभाषा को समझें । फिर गांधीजी की मानसिकता को समझते हुए यह विचार करें कि गांधीजी वास्तव में किस प्रकार अपने राजनीतिक विरोधियों की ‘हत्या’ करने में कुशल थे ?

गांधीजी ने किया नेताजी का खुला विरोध

1939 के त्रिपुरी कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस दूसरी बार अध्यक्ष पद के प्रत्याशी बने। वे गांधी की रुचि के प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैय्या को परास्त कर दूसरी बार अध्यक्ष चुन लिये गये। वास्तव में यह जीत नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कार्यों की जीत थी , उनकी विचारधारा की जीत थी, उनके द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर की गई राष्ट्रभक्ति की जीत थी। जिसे गांधीजी पचा नहीं पाए । वह जिस प्रकार उनकी ‘राजनीतिक हत्या’ की प्रतीक्षा में थे , उनका वह मनोरथ भी पूर्ण नहीं हो पाया । अतः गांधीजी उनकी जीत पर झल्ला पड़े । गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी व्यक्तिगत हार बताया।
सचमुच किसी ‘महात्मा’ के लिए ऐसा आचरण शोभनीय नहीं होता कि वह अपने राजनीतिक विरोधी की जीत को व्यक्तिगत हार बताए , परन्तु क्योंकि गांधीजी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की राजनीतिक हत्या की योजनाएं बना रहे थे, इसलिए उनका मानस दूषित और विकृत हो चुका था । उसी की स्पष्ट परछाई उनकी इस टिप्पणी में दिखाई दी कि पट्टाभिसीतारमैया की हार उनकी व्यक्तिगत हार है।

‘महात्मा’ को लगा गहरा झटका

चुनाव के बाद अधिवेशन में पारित प्रस्ताव द्वारा अध्यक्ष को गांधी जी की इच्छानुसार कार्य समिति के सदस्य नियुक्त करने को कहा गया, लेकिन गांधी पट्टाभीसीतारामय्या की हार से इतने अधिक दु:खी थे कि उन्होंने कोई भी नाम अपनी ओर से कार्य समिति के लिए देने से इनकार कर दिया। वैसे तो हमारे यहाँ महात्मा उस व्यक्ति को माना जाता है जो जय – पराजय , यश -अपयश , हानि – लाभ, दुख – सुख सभी में एक सा रहे और पक्षपातशून्य होकर लोगों के साथ न्यायशील व्यवहार करे। परंतु हमारे इस महात्मा का आचरण कुछ दूसरा ही था । क्योंकि वह मूल रूप में महात्मा नहीं थे , इसलिए उनके भीतर वे सारे विकार थे जो एक सामान्य व्यक्ति के भीतर होते हैं। यही कारण था कि उन्होंने पट्टाभिसीतारमैया की हार को अपने लिए ‘मानसिक आघात’ समझकर ऐसा आचरण किया।
मानसिक आघात से उपजे क्रोध मिश्रित आवेश को प्रकट करने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस से उन्होंने और नेहरू ने बोलना भी छोड़ दिया । ऐसा आचरण करते हुए गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि यदि वह नेताजी सुभाष चंद्र जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के साथ इस प्रकार का आचरण करेंगे तो वह पार्टी और पद को छोड़कर चले जाएंगे । बस , यही वह स्थिति होगी जब वह नेताजी की ‘राजनीतिक हत्या’ करने में सफल हो जाएंगे। सचमुच हुआ भी यही । गांधी और नेहरू पर इस प्रकार के आचरण से दुखी होकर सुभाष चंद्र बोस के लिए पार्टी संगठन को चलाना कठिन हो गया।

नेताजी ने दिया त्यागपत्र

अन्ततः सुभाषचंद्र बोस ने अप्रैल,1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सुभाष चंद्र बोस के स्थान पर नया कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। अब गांधीजी निश्चिंत थे । क्योंकि नेता जी के त्यागपत्र के पश्चात कांग्रेस में फिर से ‘गांधी युग’ लौट आया था । 3 मई 1939 को सुभाष चंद्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। इसके उपरान्त भी गांधी जी को यह भय था कि कहीं भविष्य में नेताजी सुभाष चंद्र बोस फिर कांग्रेस पार्टी में प्रवेश पाने में सफल न हो जाएं । इसके लिए उन्होंने नई योजना पर विचार करना आरम्भ किया। जिससे कांग्रेस में ‘गांधी युग’ को कोई चुनौती न रहे और ‘सुभाष युग’ कभी स्थापित भी न होने पाए । अपनी इसी योजना को सिरे चढ़ाते हुए गांधी जी ने अगस्त 1939 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तथा बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हटा दिया – साथ ही कांग्रेस के सभी पदों से उन्हें तीन वर्षों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।
जब डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को इस पद के लिए चुना गया तो उस समय भी कांग्रेस का बहुमत नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ था । परंतु ‘लोकतंत्र की हत्या’ कर गांधी और नेहरू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को अनैतिक और अवैधानिक रूप से पार्टी का अध्यक्ष बना दिया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद स्वयं नहीं चाहते थे कि उन्हें इस प्रकार अध्यक्ष बनाया जाए, पर वह गांधीजी के ‘आदेश’ को टाल नहीं पाए। वास्तव में गांधी जी ने यह सोच लिया था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के स्थान पर यदि डॉ राजेंद्र प्रसाद जी जैसे सौम्य और शालीन व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जाता है तो वह उनके दिशा निर्देशानुसार कार्य करेंगे और उनके अध्यक्ष बने रहने से उनकी अहिंसा को किसी प्रकार का संकट उत्पन्न नहीं होगा।

डॉ राजेंद्र प्रसाद को नहीं बोलने दिया गया

राजेंद्र प्रसाद पर यह भी आरोप लगे कि वे सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने पर प्रसन्न नहीं हैं। राजेंद्र प्रसाद ने भी माना कि वे सुभाष से बहुत सी बातों पर सहमत नहीं हैं। यद्यपि डॉ राजेंद्र प्रसाद ने यह भी स्पष्ट किया कि उनके और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मध्य कटुता जैसी कोई बात नहीं थी , जैसा कि तब के अखबार दावा कर रहे थे । राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष बनाए जाने की मांग उन्हें स्वयं भी रुचिकर नहीं लगी थी ।उन्होंने गांधीजी से कहा कि मैं अध्यक्ष नहीं बनना चाहता । तब गांधीजी जी ने राजेंद्र प्रसाद पर दबाव डाला कि तुम्हें अध्यक्ष बनना ही पड़ेगा। गांधीजी अपनी ‘ घृणा के केंद्र’ नेताजी सुभाषचंद्र बोस को पार्टी के अध्यक्ष पद पर देखना नहीं चाहते थे । वे यथाशीघ्र उन्हें पार्टी से चलता कर देने की योजना पर अर्थात उनकी ‘राजनीतिक हत्या’ कर देने पर काम कर रहे थे । 
अखिल भारतीय कमेटी की पहले दिन की बैठक समाप्त होने के पश्चात इस बात पर पांडाल में हंगामा हो गया । गोविन्दवल्लभ पन्त और कृपलानी के साथ दुर्व्यवहार किया गया । मारपीट तक की स्थिति आ गई थी । दूसरे दिन सुभाष चन्द्र बोस राजेंद्र बाबू की के कारण अधिवेशन में नहीं आए और उन्होंने अपना त्यागपत्र भेज दिया । अगले दिन जैसे ही राजेंद्र प्रसाद बोलने के लिए खड़े हुए, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के के समर्थकों ने शोर मचाना आरम्भ कर दिया । क्योंकि जो भी कार्यवाही आरम्भ की गई थी ,वह सब अवैधानिक और अनैतिक थी । उसमें केवल एक ही योजना पर काम हो रहा था कि जैसे भी हो सुभाष चंद्र बोस को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाया जाए और गांधी के चहेते राजेंद्र प्रसाद को इस पद पर बैठा दिया जाए ।
राजेंद्र प्रसाद चुपचाप खड़े रहे और हंगामे के शान्त होने की प्रतीक्षा करते रहे। हंगामा शान्त होने पर राजेंद्र प्रसाद ने सभा समाप्त कर दी । जब वहाँ से जाने लगे तो कुछ लोगों ने उनको पकड़ लिया और खींचतान करने लगे । दूसरे लोग उन्हें बचाने के लिए आए. राजेंद्र प्रसाद को चोटें तो नहीं आईं, लेकिन उनके कपड़ों के बटन टूट गए। किसी तरह उन्हें गाड़ी तक पहुँचाया गया । इस बात से राजेंद्र प्रसाद बहुत आहत थे कि उन्हें बहुमत के विरोध के उपरान्त भी अध्यक्ष बनाया गया है । पर उनकी अंतरात्मा इतनी ‘विद्रोही’ नहीं हो पाई कि वह गांधी जी की बात को काटकर अपना ‘राज्याभिषेक’ स्थगित करा देते , और सिंहासन के वास्तविक उत्तराधिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उनका ‘सिंहासन’ सौंप देते। इतना भी नहीं कर सकते थे तो वह कह देते कि मैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के ‘वनवास’ का विरोध करता हूँ और ‘पिता तुल्य’ गांधीजी के ‘आदेश’ का सम्मान करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ओर से उनकी चरण पादुकाओं को सिंहासन पर रखकर वैसे ही शासन करूंगा जैसे वनवासी राम की अनुपस्थिति में भारत ने शासन किया था । इससे गांधी जी के ‘रामराज्य’ की रक्षा भी हो जाती और साथ ही उनके अहम की तुष्टि भी हो जाती।
आज जो कांग्रेस हमें लोकतन्त्र के पाठ पढ़ाती है, यह वही पार्टी है जिसमें लोकतंत्र की इसी प्रकार अनेकों बार हत्या की गई है। पार्टी के किसी परिवार या किसी विशिष्ट व्यक्ति की इच्छा के सामने पार्टी में ‘लोकतन्त्र की हत्या’ करके किसी व्यक्ति को पार्टी का दायित्व दिया गया है ।  इतना ही नहीं भारत वर्ष में जितने भी गांधीवादी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल हैं , उनके भीतर भी गांधीवाद के इसी अवगुण को प्रश्रय दिया जाता है कि एक व्यक्ति के सामने सारी पार्टी नतमस्तक रहती है । किसी एक ही व्यक्ति के हाथ में पार्टी की सारी बागडोर रहती है । वह जिसे चाहे अध्यक्ष बनाए और जिसे चाहे चलता कर दे । गांधीवाद का यह कुसंस्कार लोकतंत्र में घुन की तरह प्रविष्ट हो चुका है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बाद यहां अनेकों बार अनेकों राजनीतिक दलों में कितने ही ‘सुभाष चंद्र बोसों’ की ऐसी ही राजनीतिक हत्याएं की गई हैं । भारत को गांधीवाद की यह बहुत बड़ी देन है।
यद्यपि राजेंद्र प्रसाद बहुत ही शान्त स्वभाव के और सम्मानित नेता थे , परन्तु पार्टी का उन्हें उस समय बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था। पार्टी के लोग क्रान्तिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ थे और चाहते थे कि पार्टी क्रान्तिकारी रास्ते को अपनाकर देश की आजादी के लिए क्रान्तिकारी ढंग से कार्य करे । आज के इतिहास में कांग्रेस के भीतर बैठे बहुमत के उन लोगों की आवाज दबा दी गई है ,जिसमें उस समय पार्टी का बड़ा वर्ग पार्टी को क्रान्तिकारी ढंग से काम करने के लिए उस पर दबाव बना रहा था। यदि सुभाष को सही ढंग से काम करने दिया जाता और गांधी – नेहरू उनसे बोलना न छोड़कर उन्हें अध्यक्ष पद पर यथावत सुशोभित रहने देते या कार्यसमिति के लिए उन्हें सदस्यता का आमंत्रण देकर कांग्रेस को आगे बढ़ाते तो भारत का इतिहास कुछ दूसरा ही होता।

लाहौर अधिवेशन में पटेल के साथ भी हुआ था ऐसा ही

हमने ऊपर स्पष्ट किया है कि त्रिपुरा अधिवेशन में जो कुछ नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ हुआ था , वह अकेले उनके साथ ही नहीं हुआ था अपितु कांग्रेस में उनसे पूर्व भी कई लोगों के साथ ऐसा हो चुका था । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन की बात करें तो उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए 3 प्रत्याशियों का नाम प्रमुखता से चल रहा था । जिनमें महात्मा गांधी स्वयं ,सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू का नाम था । उस समय कांग्रेस में पिछले 8 वर्षों से हर बार पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव लाया जा रहा था , जिसके गांधीजी विरोधी थे। गांधीजी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला । जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। इस अधिवेशन के विषय में कई लोगों का यह भी विचार है कि लाहौर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ था , किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया। कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि गांधीजी ने 1929 में सरदार पटेल की भी बलि ली थी । इतना ही नहीं आगे चलकर उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल को देश का प्रधानमंत्री बनने से रोक कर भी अपनी हठधर्मिता का परिचय दिया था।
तनिक कल्पना करें कि यदि गांधीवाद की ये हठधर्मिताएं हमारे इतिहास का अंग नहीं होतीं तो हमारे देश का इतिहास कैसा होता ?

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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