मधुर लोक व्यवहार को, लोग करें हैं याद

स्वजन संग प्रवास हो,
सत्पुरूषों का साथ।
स्वाश्रित हो जीविका,
नित सुख की बरसात ।। 302।।

मद्यपान स्त्रैणता,
भाषण देय कठोर।
राजा को शोभै नही,
अपयश पावै घोर।। 303।।

धन छीने विद्वान का,
हीनता के हों खयाल।
पर निंदा में खुश रहे,
निकट विनाश को काल ।। 304।।

इच्छित वस्तु की प्राप्ति,
प्रिय से बात-चीत।
स्वसमुदाय में उन्नति,
हर्ष के हैं नवनीत ।। 305।।

प्रज्ञा दम श्रुत कुलीनता,
मितभाषी और वीर।
दानी और कृतज्ञ हो,
यश की बहै समीर ।। 306।।

श्रुत से अभिप्राय अध्ययन विद्या से है।
त्रिस्थूणा का जाणिया,
जानै तन के द्वार।
पांच साक्षी कहे में,
कोई ब्रह्म का जाननहार ।। 307।।

व्याख्या:-जो विद्वान नवद्वार (दो आंख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक उपस्थेन्द्रिय, एक गुदा इत्यादि नौ द्वार) वाले, तीन स्थूणा, कफ पित्त, वात वाले, पांच साक्षियों, पांच ज्ञानेन्द्रियां जिनसे सांसारिक विषयों का ग्रहण होता है वाले क्षेत्रज्ञ जीवात्मा से अधिष्ठित इस शरीर रूपी घर को अच्छी तरह जानता है, वह श्रेष्ठ है, आत्मज्ञानी है, ब्रह्मïवित है।

कामी क्रोधी लालची,
मद्यप भूखा भयभीत।
ये नही धर्म को जानते,
अपनी राखै जीत।। 308।।

पापी और पर-नार से,
रहे हमेशा जो दूर।
मद्यपान करता नही,
सुख पावै भरपूर।। 309।।

मितभाषी क्षमाशील हो,
बढ़ावै नही विवाद।
मधुर लोक व्यवहार को,
लोग करें हैं याद ।। 310।।

अहंकार करते नहीं,
खोवें न स्वाभिमान।
श्रेष्ठ जन संसार में
रखते ये पहचान ।। 311।।

धैर्यवान को चाहिए,
कर्म का जानै ध्येय।
ताकत अपनी पहचानकै,
कदम आखिरी लेय।। 312।।

अहंकार करना नही,
धन, बल, विद्या रूप।
खोज सके तो खोज ले,
अन्तर्मुख होय स्वरूप ।। 313।।

ज्ञानेन्द्रियों के व्यसन में,
जो जग में फंस जाए।
चंद्रकलाओं की तरह,
विपदा बढ़ती जाए।। 314।।

विद्या, यश, बल, त्याग का,
करना नही गुमान।
ऊंचा कुल, धन, रूप तो,
सागर का तूफान ।। 315।। क्रमश:

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