न्यायालय के निर्णय पर जब अटल जी ने कहा था…..
वाजपेयी जी ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायलय ने कहा है कि आप भजन कर सकते हैं, कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है और कीर्तन के लिए तो और भी लोगों की आवश्यकता होती है। भजन और कीर्तन खड़े-खड़े तो नहीं हो सकता। कब तक खड़े रहेंगे? वहां नुकीले पत्थर निकले हैं। उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता तो जमीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक करना पड़ेगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।
अब आप ही बताइये इसमें कहाँ किसी विवादित ढांचे को तोड़ने कहा गया है? अरे कोई पुरानी टूटी-फूटी, इस्तेमाल ना हो रही जगह थी! भीड़-भाड़ होती है तो कई बार बारात देखने के चक्कर में भी छज्जे टूट ही जाते हैं। ऐसे में किसी पुरानी ईमारत के ढह जाने पर किसी पर बेबुनियाद इल्जाम लगा कर उसे वर्षों तक मुकदमा लड़ने के लिए मजबूर करना कोई ठीक बात नहीं। अच्छा हुआ कि आज जो फैसला आया उसमें अडवानी जी और जोशी जी समेत सभी 32 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। इसे ही सही मायनों में सत्य की जीत कहते हैं।
बेकार सत्य पर अभियोग लगाकर उसे परेशान तो जरूर किया गया, लेकिन सत्य पराजित नहीं हुआ। अगर हाल में आई, (जनसत्ता में पत्रकार रह चुके) हेमंत शर्मा की किताब “युद्ध में अयोध्या” के हिसाब से देखें तो “प्रतीकात्मक कारसेवा की जगह से आडवाणी, जोशी और सिंघल को हटाकर टूटी बैरिकेडिंग की मरम्मत की गई” थी। इसके आगे हेमंत शर्मा ने लिखा है संघ के प्रमुख नेता एच.वी. शेषाद्रि, के.एस. सुदर्शन और मोरोपंत पिंगले, 3 दिसंबर से अयोध्या में थे, और इससे पहले संघ को अधिकारिक रूप से आन्दोलन में शामिल भी नहीं देखा गया था। ऐसे में विवादित ढाँचे के टूटने को पूर्वनियोजित साजिश बताना तो “खाता न बही, जो मैं बोलूं वो सही” जैसी बात होती है।
अट्ठाईस वर्षों, यानी करीब तीन दशक से चल रहे इस मुक़दमे में फ़िलहाल सीबीआई की अदालत ने फैसला सुनाया है। लखनऊ में ये फैसला सुनाते हुए स्पेशल जज एसके यादव ने भी कहा कि भाजपा के संस्थापक सदस्यों, एलके अडवानी और मुरली मनोहर जोशी ने तो असामाजिक तत्वों को किसी किस्म की तोड़-फोड़ करने से रोकने की कोशिश की थी! कुछ महाराष्ट्र की राजनीति में जा घुसे बड़बोले संपादक जरूर हाल में कहते सुने गए हैं की उन्होंने कोई ढांचा तोड़ा था। लेकिन फिर समस्या ये है कि जिनके “हरामखोर” का मतलब “नॉटी” होता है, उनके कहे का सही मतलब समझ पाना भी मुश्किल ही है। वैसे गिरोह चाहें तो अगला मुकदमा उन पर ठोक सकते हैं।
बाकी देश को इस तीन दशक पुराने मामले के दूसरे अध्याय के पटाक्षेप की बधाई तो दी ही जा सकती है। इतिश्री आर्यावर्तदेशे कलिकाले राममंदिरनिर्माण द्वित्तियोध्याय सम्पूर्णम्।
“युद्ध में अयोध्या” हेमंत शर्मा नाम के एक सेक्युलर पत्रकार की लिखी किताब है जो हाल ही में प्रकाशित हुई। पेपरबैक में करीब साढ़े चार सौ पन्नों और लगभग इतनी ही कीमत की इस किताब में तथ्यों से कोई छेड़छाड़ की गयी नहीं दिखेगी। इस किताब की समस्या है कि घटनाओं और तथ्यों के साथ वहां मौजूद एक “सेक्युलर” व्यक्ति क्या सोच रहा था इसे सामने रखा गया है। लिहाजा सौ ग्राम सच में कुछ सौ ग्राम झूठ और भावना मिलाकर इस किताब में एक किलो बनाया गया है।
मुझे पता नहीं कि ये किताब कितनी बिक रही, या कैसी बिक रही है। हाँ मेरी समझ में ये जरूर आता है कि ये आने वाली पीढ़ियों को धीमा जहर देने का एक तरीका है। इसके साथ मुझे ये भी दिखता है कि इस किताब के विमोचन में कौन लोग थे। इन लोगों और इनके चेले-चापटियों के बारे में ऐसा माना जाता है कि इन्हें पढ़ने से बैर होता है। ये जमीनी बातें करते हैं किताबों से पढ़ते-लिखते नहीं। वैसे इनकी शैक्षणिक योग्यताओं के बारे में पता किया जाए तो ये बात कपोलकल्पित सिद्ध हो जाती है।
फिर सवाल उठता है कि ये पढ़े लिखे, जमीनी स्तर पर भी जानने-समझने वाले लोग ऐसी किताब के विमोचन में क्यों हैं? जो किताब उन्हें ही हिंसक, नफरत की खेती करने वाला, उनकी विचारधारा को ओछा, निकृष्ट कहती हो, उनके प्रति हर दुर्भावना से भरी हो, उसके प्रचार में ये क्यों खड़े हैं? शायद इसका कारण सच से डर लगना है। उन्होंने बरसों ढिंढोरा पीटा है कि किताबों से कुछ नहीं होता। वो पूछते रहे हैं कि “किताब से चार वोट आयेंगे क्या?” वो साहित्य के योगदान को सिरे से नकारने वाले लोग हैं।
ऐसा कहते समय वो भूल जाते हैं कि कभी जर्मन भाषा में एक चालीस पन्ने का मैनिफेस्टो नहीं लिखा गया होता, तो उन्हें वर्गशत्रु कहने वाला कोई आयातित विचारधारा का पैरोकार होता ही नहीं। उन्हें सबसे ज्यादा डर जिस गिरोह से लगता है, उसका अस्तित्व सिर्फ काले अक्षर पर ही टिका है। आज जो #अर्बन_नक्सल का जुमला इस्तेमाल किये जाने से उनके शत्रुओं की भावना बेन फ़ौरन आहत हो जाती है वो और कुछ नहीं एक किताब ही है। एक किताब का असर नहीं होता, तो दांडी मार्च के करीब हर सत्याग्रही के हाथ में भगवद्गीता क्यों थी?
इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि ये लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार मान चुकी बिरादरी के लोग हैं। भ्रष्टाचार विरोध के मुद्दों पर ठीक है, विकास के दावों पर भी कुछ हद तक इनका समर्थन सही होगा। नीतियों में बदलावों के लिए इन्हें समर्थन दिया जा सकता है। हिन्दुओं के हित में इनके लिए मतदान क्यों किया जाए ये समझना थोड़ा मुश्किल है। सोशल मीडिया जैसे माध्यमों की वजह से हिन्दुओं ने अपने हितों के लिए आवाज उठाना जरूर शुरू कर दिया है, लेकिन एक राजनैतिक या गैर राजनैतिक “दल”, “समूह”, अथवा “संगठन” के तौर पर इनका योगदान न्यूनतम रहा है।
राम मंदिर जैसे हिन्दुओं की भावना से जुड़े मुद्दों पर सिर्फ एक ही पक्ष की बात क्यों सुनाई देती है, ये भी सोचने का मुद्दा है। इस विषय पर मुझे राम मंदिर बनने के समर्थकों की तरफ से लिखी गई कोई किताबें भी याद नहीं आती। वो इन्टरनेट पर या दुकानों में सहज उपलब्ध होंगी, इसपर भी संदेह है। राम मंदिर के समर्थन में लिखी किन्हीं किताबों का नाम याद आते हों तो प्रयास कीजिये और उनका नाम बताइये।
✍🏻 आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित