विश्व को विश्वगुरू (भारत) ने दिया था राष्ट्र का वैज्ञानिक स्वरूप:भाग-2
गतांक से आगे…..
राकेश कुमार आर्य
इसीलिए महाभारत (अ. 145) में कहा गया है कि शासक को चाहिए कि भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन दुखियों पर अनुग्रह करे, कर्त्तव्य अकर्त्तव्य को विशेष रूप से समझे, तथा राष्ट्र हित में संलग्न रहे। सबको यह कामना करनी चाहिए कि राष्ट्र में पवित्र आचरण वाले ब्रह्म तेज धारण करने वाले विद्वान उत्पन्न हों और शत्रुओं को पराजित करने वाले महारथी बलवान उत्पन्न हों।यहां शत्रु से अभिप्राय राष्ट्रवासियों के सामूहिक अधिकारों में व्यवधान उत्पन्न कर अपने अधिकारों को वरीयता देने वाले लोगों अथवा लोगों के समूह से है। वस्तुत: हमारा राजधर्म यही था। जिन लोगों ने भारत में राष्ट्र की अवधारणा के न होने की भ्रांति पाल रखी है वो तनिक मनु स्मृति (81345, 346) के इस श्लोक पर भी ध्यान दें :-
वग्दुष्टा तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसात:।
साहसस्य नर: कर्त्ता विज्ञेय: पापकृत्तम:।।
साहसे वर्तमानंतु यो मर्षमति पार्थिव:।
स विनाशं ब्रजज्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।
अर्थात जो राष्ट्र के लिए अपमान जनक शब्द बोलता है, शस्त्रास्त्रों की या नशीले पदार्थों की तस्करी करता है, और निर्दोषों की हत्या करता है, ऐसे दुस्साहसी आतंकवादी को सबसे बड़ा पापी समझना चाहिए। जो राजा (आज के परिप्रेक्ष्य में- प्रधानमंत्री) ऐसे लोगों को सहन करता है, वह शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, और प्रजा में अपने लिए द्वेष तथा घृणा पैदा करता है।
मनुस्मति में ही कहा गया है कि जब राजा राजकाज की उपेक्षा करता है तो वह कलियुग होता है, और जब वह साधारण रूप से कार्य करता है तब द्वापर होता है। जब राजा सदा राज्य और प्रजा के हित में लगा रहता है तब त्रेतायुग कहलाता है, और जब राजा सभी कार्यों को तत्परतापूर्वक करते हुए अपनी प्रजा के सुख-दुख में सम्मिलित होता है तब वह सतयुग कहलाता है। वस्तुत: राजा ही युग बनाता है, इस प्रकार राजा युग-निर्माता होता है। इसीलिए भारत में वास्तविक राष्ट्रपुरूषों को अब तक ‘युग-निर्माता’ कहने की परंपरा रही है।
राष्ट्र निर्माता युग निर्माता होता है।
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्घ होता है कि राष्ट्र निर्माता ही युग निर्माता होता है। राष्ट्रनिर्माण और राष्ट्रधर्म की उपरोक्त सुंदर झांकी से उत्तम विचार विश्व के किसी भी देश के पास नही है। जिन इतिहासकारों ने हम भारतीयों के विषय में यह धारणा रूढ़ की है कि यहां राष्ट्रीय भावना का सदा लोप रहा है, वो असत्य कथन के अपराधी हैं। जिस राष्ट्र में राष्ट्र के लिए अपमान जनक शब्द बोलने वालों तक को सहन न करने की घोषणा की गयी हो, वहां से उत्तम राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय भावना भला कहां हो सकती है? यही कारण था कि जब कासिम, गजनवी और गौरी जैसे विदेशी आक्रांता यहां आए तो अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को बचाने के लिए इस देश की राष्ट्रवादी जनता ने 1235 वर्षों का रक्तिम संघर्ष किया। इसके उपरांत भी 1235 वर्षों के इस रक्तिम संघर्ष को विस्मृत कर स्वतंत्रता दिलाने का सारा श्रेय गांधी की अहिंसा को दे दिया जाए तो अपनी राष्ट्रीय भावना के साथ इससे बड़ा छल कोई और नही हो सकता?
हमने वचन भंग किया है
गांधी की अहिंसा को अपनी स्वतंत्रता का एकमेव कारण घोषित कर हमने विश्व समाज से किये गये अपने एक वचन को भंग किया है, और यह वचन था कि हम विश्व को वैश्विक शांति और व्यवस्था की नई दिशा देंगे, और विश्व को अपने आदर्शों से परिचित कराके नया बोध कराएंगे। स्वतंत्रता मिलने पर नेहरू जी ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए यह वचन राष्ट्र की ओर से दिया था। परंतु गांधी की अहिंसा ने हमें अत्याचार और शोषण को सहन करने की ओर प्रेरित किया। आश्चर्य है कि जिस देश की आत्मा ने 1235 वर्षों तक अत्याचार और शोषण के विरूद्घ अपनी आवाज को कभी शांत नही होने दिया, वह देश 66 वर्षों में ही अपना ‘राष्ट्रधर्म’ भूल गया।
श्री अरविंद जी ने 11 जून 1908 को ‘वंदेमातरम्’ पत्रिका में स्वदेशी लेख में लिखा था-’विदेशी शक्तियों द्वारा भारत के शोषण के विरोध के राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों ही पक्ष हैं। राष्ट्रीय आयाम यह है कि भारत को पर्याप्त अन्न, मकान और दूसरी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन चाहिए, जिससे यह देश और इस देश के लोग अपना विकास भली भांति कर सकें। वैश्विक पक्ष यह है कि भारत का पूरी मनुष्यता से वायदा है और वह है अध्यात्म के आधार पर नई व्यवस्था प्रस्तुत करना। यह आध्यात्मिक आधार समाजशास्त्रियों और राजनीति के पंडितों को नये क्षितिज कर लाएगा।’
सचमुच हमने मानवता के प्रति और अपने ‘विश्वगुरू’ की आत्मा के प्रति वचन भंग किया है। फलित विडंबनावश हम उसे शेष विश्व के सामने प्रस्तुत करने में ही लज्जा का अनुभव कर रहे हैं। यह राष्ट्र की हत्या है, राष्ट्र के मूल्यों की हत्या है। गर्व के स्थान पर शर्म, शोक और ग्लानि का विषय है।
गांधी को भी समझो
गांधी का राष्ट्रवाद भी समझने योग्य है। 1947 में जब पाकिस्तानी कबायलियों के रूप में पाक सेना ने भारत के कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था तो सरदार पटेल ने गांधी जी से कहा कि बापू अब आपका क्या विचार है? क्या सीमा पर कुछ चरखे सीमाओं की सुरक्षार्थ भेज दिये जाएं, या अहिंसा के स्थान पर हिंसा को अपनाया जाए? तब गांधी जी ने कहा था कि अहिंसा का अर्थ कायरता नही है-आज निश्चय ही करो या मरो की नीति पर काम करने का अवसर उपस्थित हुआ है?
हां, यह बात सत्य है कि गांधी को ‘करो या मरो’ का रहस्य अपने जीवन के अंतिम समय में समझ में आया। जबकि ये देश तो इस ‘करो या मरो’ के संकल्प को 1235 वर्षों से अपना राष्ट्रीय संकल्प बनाकर चल रहा था। एक ऐसा संकल्प जिसे विश्व के किसी भी देश ने इतनी देर तक अपना राष्ट्रीय संकल्प नही बनाया।
भारत में राष्ट्रीय भावना नही थी, ऐसी धारणा में जीने वाले ‘चुल्लू भर पानी में डूब मरें।’ तथ्यों की कहां तक उपेक्षा करोगे?
4 मई 1907 को दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय गांधी जी ने भी कहा था-
हिंदुस्तान एक ईश्वरीय उद्यान है (जिसे वेदों ने और आर्य साहित्य ने देव निर्मित देश कहा है, आध्यात्मिक राष्ट्र कहा है, उसे गांधीजी ईश्वरीय उद्यान कह रहे हैं तो अंतर क्या है-कुछ नही, अपनी पुरातन मान्यता पर ही तो बल दे रहे हैं) खुदा का बनाया बगीचा है। इस बगीचे में सुंदर रमणीय झरने हैं। पवित्र नदियां हैं, और बड़े-बड़े तपस्वी पुरूषों द्वारा पवित्र बनाये गये वन और उपवन उपलब्ध हैं। हिंदुस्तान की रज मेरे लिए पवित्र है।
हिंदुस्तान में जन्मे अनेक वीर और पवित्र पुरूषों का रक्त मेरी नसों में बहता है। हिंदुस्तान में जन्मे ऐसे महापुरूषों की हड्डियों से ही मेरी हड्डियां बनी हैं।……….हर एक नर नारी को हिंदुस्तान के लिए अपनी जान और अपनी जायदाद कुरबान करनी चाहिए। हिंदुस्तानी भाई बहनों की सेवा ही मेरे जीवन का उद्देश्य है, और वही मेरा आधार है। इसलिए हे भारत माता तेरी सेवा करने में तू मेरी सहायता करना।
इस कथन में गांधी जी भारत के सनातन राष्ट्रधर्म को नमन कर रहे हैं, और इस राष्ट्र की पुरातन परंपरा के सामने नत मस्तक हैं। त्रुटि हमने की है कि इस देश को 15 अगस्त 1947 को जन्मा हुआ मान लिया। इससे पीछे यह क्या था, कैसा था, इसका इतिहास क्या था, क्या इस की परंपराएं थीं? ये सोचने का ही समय नही निकाला। बीते 15 अगस्त 2013 पर फेसबुक पर कई लोगों ने ‘हैप्पी बर्थ डे इंडिया’ का संदेश देकर अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन किया, और खेद का विषय है कि यह अज्ञानता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।
आज राष्ट्र गा रहा है-
मैं मूरख फल कामी….
क्षितीश वेदालंकर अपनी पुस्तक ‘चयनिका’ में पृष्ठ 112 पर लिखते हैं-यह अस्तित्वकाय जितना दृश्यमान जगत है, उसके सबसे उच्च शिखर पर यदि कोई आसीन है, तो वह ‘मैं’ हूं, ‘मैं’ उत्तम पुरूष हूं, ‘मैं’ पुरूषोत्तम हूं, ‘मैं’ नर के रूप में नारायण हूं, ‘मैं’ शक्ति का भण्डार हूं।
परंतु पौराणिक काल में अवैदिक विचारधारा भारत में फेल गयी। उसी समय सर्वत्र इस भावना का प्रसार हुआ।
पापोअहं पापकर्माहं पापात्मा पापसंभव:।
अर्थात मैं पापी हूं, पाप कर्म करने वाला हूं, पापात्मा हूं, और पाप के कारण ही मेरा जन्म हुआ। जो उत्तम पुरूष और पुरूषोत्तम था, उसकी इतनी अवमानना, उसका इतना पतन? समस्त वेदों और उपनिषदों में ऐसा एक भी वाक्य नही आया जिसमें मनुष्य के जन्म को पापमूलक बताया गया हो, जिसमें उसका इस प्रकार अपमान किया गया हो, जो अमृत का पुत्र है (श्वन्तु सर्वे अमृतस्य पुत्रा:) वह पाप की संतान कैसे हो गया?
…मनुष्य जनम को पाप मूलक मानने की प्रवृत्ति कदाचित बौद्घधर्म से पुराणों में आयी और बौद्घ धर्म से ही वह ईसाइयत और इस्लाम जैसे सैमेटिक मतों में गयी। मनुष्य जाति के अध:पतन का बहुत कुछ उत्तरदायित्व इस अवैदिक विचारधारा के सिर है। मैं कौन हूं? इसका उत्तर वेद ने यों दिया है-
अहम इन्द्रो न पराजिय इदच्छनम्।
न मृत्यवे अवतस्ये कदाचन।।
मैं इंद्र हूं, मेरा धन मुझे पराजित करके कोई नही छीन सकता। मैं अपने ऐश्वर्य के कारण कभी पराजित नही हो सकता, कभी मृत्यु को प्राप्त नही हो सकता।
यह था हमारा राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्य। पर आज हम गाये जा रहे हैं-मैं मूरख फल कामी….। पहले तो स्वयं को पाप की संतान माना और अब मूर्ख मान रहे हैं। ईश्वरोपासना की जाती है कि मुझे कोई पराजित न कर सके, मेरा विवेक और बौद्घिक कौशल सदा मेरी जय कराए और अब ईश्वरोपासना के पश्चात भी हम कह रहे हैं मैं तो मूर्ख के रूप में ही जन्मा हूं और मूर्ख ही हूं। जब तक राष्ट्रीय प्रार्थना-मुझे कोई पराजित नही कर सकता और मैं अमृत पुत्र हूं मैं कभी मर नही सकता, ऐसी रही, तब तक पूरा राष्ट्र राष्ट्रीय वीरोचित भावों से मचलता रहा और सदियों तक अपने स्वराज्य के लिए लड़ता रहा पर जब अमृत पुत्र मूरख बन गया तो अपने विषय में ही कहने लगा कि हमारे यहां तो कभी राष्ट्रीय भावना ही नही रही। शक्ति का केन्द्र पराभव को प्राप्त हो गया।
यदि भारत मूरख फलकामियों का देश होता तो स्वातंत्रय वीर सावरकर अपने काले पानी की सजा होने से ठीक पूर्व यह ना कहते-मातृभूमि अपने इस बालक की अल्पसेवा पूर्णत: सत्य जानकर स्वीकार करो, हम अत्यधिक ऋणयुक्त हो गये हैं। अपने स्तनों का अमृत तुल्य दूध पिलाकर तूने हमें धन्य कर दिया है। उस ऋण की प्रथम किश्त आज शरीर अर्पण करके चुकाता हूं। (उन्हें लग रहा था कि फांसी की सजा भी हो सकती है) मैं पुन: जन्म लेकर तेरे दास्य विमुक्ति यज्ञ में फिर से अपने देह की आहूति दूंगा। तेरा सारथी कृष्ण है तथा सेनानायक राम हैं। तेरी तीस करोड़ सेना है। मेरे बिना तेरा काम न रूकेगा। दुष्ट का दमन करके तेरे वीर सैनिक हिमगिरि की उत्तुंग चोटियों पर विजय पताका फहराएंगे। तथा प्रिय मां अपने अबोध बालक की अल्पस्वरूप सेवा को स्वीकार करो।
सावरकर जी के शब्द तो आज हमारे पास उनकी पुस्तकों के माध्यम से उपलब्ध हैं। इसलिए उनका राष्ट्रवाद और राष्ट्रबोध समझने में तो कोई कठिनाई नही आती परंतु ऐसे कितने ही ‘सावकर’ हैं जिन्होंने अपनी मौन आहुति राष्ट्र यज्ञ में दी और ना कुछ कहकर गये और ना ही कुछ लिखकर गये। अब जो पिता अपनी विरासत के प्रबंध के विषय में लिखकर नही जाता क्या उसकी विरासत को संभाला नही जाता? सपूत तो भावनाओं को समझकर ही पिता की विरासत की सुरक्षा करता है, उसके विचारों का और वैचारिक संपत्ति का प्रचार प्रसार करता है। तब हमें ‘मौन सावरकरों’ की मौन आहुतियों का और उनके राष्ट्रवाद का सम्मान करना भी सीखना होगा। अमृत पुत्रों ने अपने अमृत कलश से अमृत छलकाकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अमृत रस बिखेर रखा है, बस हमें तो उस अमृत रस को बंूद बूंद कर इकट्ठा करना मात्र है। तब देखना विश्व में कोई जाति या कोई देश हमसे अधिक समृद्घ होने का दावा करना भूल जाएगा। सचमुच विश्वगुरू अपने स्वरूप को पहचाने और अपने अमृत पद के लिए छलांग लगाने के राष्ट्रीय शिव संकल्प को धारण करके तो देखे, सारी दिशाएं इसके स्वागत के लिए हाथ फेेलाए खड़ी हैं। सर्वत्र भारत का मंगल गान हो रहा है, अमृतमयी रसधारा बह रही है। कमी केवल हममें है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत किये बैठे हैं।
स्वाति बूंद के ये वचन ध्यान धरने योग्य हैं-
मैंने अमावस्या की अंतहीन सर्पाकार रात्रि में टिमटिमाते तारों से पूछा-रात भर जागते क्यों हो?
उत्तर मिला-धरा की कुरूपता देखी नही जाती। मैंने खिलते हुए फूलों से पूछा-अपने सौरभ को यों बिखराते क्यों हो?
बोले दुर्गंध सही नही जाती।
नयनों में पानी की बूंदें लिए दूवंदिल से पूछा-यों आंसू बहाती क्यों हो? क्षीण वाणी में उत्तर दिया-विछोह देखा नही जाता।
मिटती श्वासों के तारों से पूछा-इस प्रकार रूक रूक कर आती क्यों हो? बोलीं-जिंदगी मुड़-मुड़ कर नही आती।
और खीजकर अंत में जैसे कुछ न समझते हुए अशांत मन से पूछा हर बात झुठलाते क्यों हो? संक्षिप्त उत्तर मिला-क्योंकि आशा बन बन रह जाती है।
यदि मैं और आप अपने अंतर्मन से पूछें कि इतने चिंतित क्यों हो? तो उत्तर यही मिलेगा कि अपने इतिहास के साथ इतना बड़ा छल देखा नही जाता।
मुक्ति के अभिलाषी हो गये दास
जो भारत प्राचीन काल से महामृत्युंजय मंत्र का जप करता आया है और मातृभूमि के ऋण से मुक्त होने के लिए अपने बड़े से बड़े बलिदान को भी सदा तुच्छ मानता आया है, जो मित्र के प्रति हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर पड़ी बर्फ सा पवित्र, निर्मल, उदार और ठंडक से भरपूर रहा तथा शत्रु के प्रति अपने तीनों ओर उफनते समुद्र की भांति ‘सूनामियों’ से भरपूर रहा उस भारत की आत्मा को पहचानने का प्रयास नही किया गया। जिस भारत ने अपने राष्ट्र का निर्माण ‘सूर्य्याचन्द्रम्साविव’ के आदर्श को लक्ष्य बनाकर रखा और प्रचारित किया कि सूर्य और चंद्रमा हमारे दोनों ही देवता हैं, हम सूर्य की भांति आग भी बरसा सकते हैं तो चंद्रमा की भांति शीतलता भी दे सकते हैं, उस भारत के इस राष्ट्रीय मूल्य को इतिहास से सर्वथा विलुप्त किया गया। इस राष्ट्र ने गायत्री मंत्र को अपनी राष्ट्रीय प्रार्थना बनाकर ईश्वर से केवल बुद्घि मांगी-धियो योन: प्रचोदयात। कहा-कि हमारी (सबकी, एक व्यक्ति की नही) बुद्घियों को सन्मार्गगामिनी बनाओ। इसी प्रार्थना ने भारत को भारत (आभा-ज्ञान की दीप्ति में रत) बनाया।
परंतु जैसे ‘मैं मूरख फल कामी’ का अज्ञानपूर्ण गीत हमने गाया वैसे मुक्ति के अभिलाषी रहे संतों ने अपने नाम के पीछे ‘दास’ लिखवाने की परंपरा प्रचलित की। मुक्ति का अभिलाषी जो सबको मुक्त कराने आया था वही ‘दास’ हो गया, वह इंद्र नही रहा, अपने नामों में से उसने आनंद (जैसे श्रद्घानंद, विवेकानंद) निकाल दिया तो राष्ट्र में अज्ञानान्धकार छा गया। सारी दुष्ट वासनाओं से मुक्त भारत का ब्राह्मण वासनाओं से युक्त हो गया। फलस्वरूप उसी का अनुकरण क्षत्रियादि वर्णों ने किया। तब मोहासक्त ‘धृतराष्ट्र’ उत्पन्न होने लगे, कामासक्त ‘पृथ्वीराज चौहान’ उत्पन्न होने लगे, परिणाम निकला कि ‘राष्ट्र धूर्त्तां’ का बन गया। राष्ट्र के मूल्यों का पतन हुआ, तो इसका अभिप्राय यह नही था कि यहां राष्ट्र ही नही था। हम इतिहास पर चिंतन कर रहे हैं तो पतन पर भी चिंतन करना होगा, परंतु इसका अभिप्राय यह भी नही है कि सर्वत्र निराशा ही निराशा थी। आशा का सूर्य सदा चमकता रहा। प्रकाश पुंज सदा बना रहा। अंधेरे में प्रकाशपुंजों का चिंतन ही मजा देता है। उन्हीं का चिंतन करो-आनंद आएगा।