ओ३म्
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मनुष्य कोई भी काम करता है तो वह उसमें प्रायः अपनी हानि व लाभ को अवश्य देखता है। यदि किसी काम में उसे लाभ नहीं दिखता तो वह उसे करना उचित नहीं समझता। ईश्वर की उपासना भी इस कारण से ही नहीं की जाती कि लोगों को ईश्वर का सत्यस्वरूप व उपासना से होने वाले लाभों का ज्ञान नहीं है। यदि सब मनुष्यों को ईश्वर का सत्यस्वरूप एवं गुण, कर्म व स्वभावों का ज्ञान हो जाये तो निश्चय ही उनकी ईश्वर से मेल व मित्रता करने में प्रीति होगी जिसका परिणाम मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति के रूप में सामने आता है। ऋषि दयानन्द वेदों के विद्वान और परमात्मा को प्राप्त सिद्ध योगी व ऋषि थे। उन्होंने अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर नियम दिया है कि संसार का उपकार करना उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् सबकी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करना। जिस मनुष्य का शरीर पूर्ण स्वस्थ, निरोग व बलवान है, जो आत्म ज्ञान से युक्त है व तदवत् आचरण करता है तथा जो सामाजिक जीवन व्यतीत करते हुए समाज सुधार व उन्नति के कार्य करता है, वह मनुष्य सर्वांगीण उन्नति को प्राप्त मनुष्य कहा जा सकता है। ऐसा मनुष्य ही ईश्वर की उपासना करने सहित ईश्वर द्वारा सृष्टि के आदि में प्रदत्त चार वेदों का अध्ययन करने से बनता है। वेद प्रचार पर विचार करते हैं तो वह मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में अमोघ साधन प्रतीत होता है। जिस मनुष्य ने वेदों का सत्य तात्पर्य जान लिया और उसके अनुसार आचरण व व्यवहार करता है, वह मनुष्य ज्ञान व बल से युक्त होकर अपना व समाज का कल्याण करता है। यह लाभ उपासना व वेदों के स्वाध्याय सहित ज्ञान के अनुरूप आचरण करने से प्राप्त होते हैं।
ईश्वर की उपासना से मनुष्य की आत्मा का ज्ञान बढ़ता है। इसका कारण यह है कि ईश्वर ज्ञानवान वा सर्वज्ञ सत्ता है। वह सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी भी है। हमारी सूक्ष्म आत्मा से भी अत्यन्त सूक्ष्म व आत्मा के भीतर भी अखण्ड व एकरस होकर परमात्मा विद्यमान है। वह आत्मा की भावनाओं को जानता है। हम जो विचार करते हैं वह भी हमारी आत्मा में विद्यमान परमात्मा अपने अन्तर्यामी स्वरूप से जानता है। ईश्वर सर्वशक्तिमान भी है। उसी ने उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति से इस वृहद ब्रह्माण्ड को बनाया है व वही इसका संचालन व पालन कर रहा है। वह हमारी हमारे मन व आत्मा के विचारों को भी जानता है तथा उन्हें प्रेरणा करने की सामर्थ्य रखता है। इसी कारण से गायत्री महामन्त्र में ईश्वर से मनुष्य की बुद्धि को शुद्ध करने व उसे सन्मार्गगामी बनाने की प्रार्थना की जाती है। उपासना में मनुष्य ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी साथ-साथ करता है। स्तुति करने से परमात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान व परमात्मा में प्रीति होने से उससे मित्रता व मेल हो जाता है। प्रार्थना करने से मनुष्य निरभिमानी बनता है। ईश्वर की प्रार्थना से मनुष्य में अहंकार व अभिमान दूर हो जाता है। जिस प्रकार एक मित्र दूसरे मित्र का हित व रक्षा करता है, उपासना व ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना से परमात्मा से मित्रता हो जाने पर हमें ईश्वर से रक्षा व अपनी हित सिद्धि के सभी लाभ प्राप्त होते हैं।
परमात्मा सर्वज्ञ एवं सब गुणों का अजस्र स्रोत है। मनुष्य की आत्मा एकदेशी व ससीम होती है। यह अल्पज्ञ होती है। उसे अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए एक सर्वज्ञ सत्ता की आवश्यकता होती है। वह सत्ता संसार में एकमात्र ईश्वर ही है। अतः ईश्वर की उपासना से ईश्वर की संगति होती है। इस संगति से मनुष्य की आत्मा के दोष दूर होते हैं और उनका स्थान ईश्वर के सद्गुण लेते हैं। उपासना करने से आत्मा के दुर्गुण व दुव्र्यसन दूर होते जाते हैं और ईश्वर के श्रेष्ठ व उत्तम गुण आत्मा में प्रविष्ट होते जाते हैं। इससे मनुष्य श्रेष्ठ व उत्तम गुणों से युक्त ज्ञानवान व बलवान बनता है। यह लाभ कोई छोटा लाभ नहीं है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर के सत्यस्वरूप व सत्य गुणों आदि को जानकर उसकी नित्य प्रति, दिन में दो बार, प्रातः व सायं समय में उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे हमारे सभी दुर्गुण व बुराईयां दूर हो जायेंगी और हम एक गुणवान, पुरुषार्थी तथा ईश्वर के सच्चे उपासक व सद्ज्ञान से युक्त मनुष्य बन सकेंगे।
मनुष्य जब ईश्वर की उपासना करता है तो उपासना के एक अंग स्वाध्याय पर भी ध्यान देता है। इससे मनुष्य को ईश्वर व आत्मा सहित संसार के सब सत्य रहस्यों का ज्ञान हो जाता है। इस ज्ञान का प्रभाव मनुष्य के आचरण पर पड़ता है। वह ईश्वर की उपासना सहित मनुष्य, समाज व देश के लिये हितकारी यज्ञीय कर्मों को करता है। इससे मनुष्य पुरुषार्थी बनकर देश व समाज का उपकार करता है। वेद मनुष्य को सदाचार की शिक्षा देते हैं। हमारे सभी ऋषियों व योगियों सहित वैदिक विद्वानों के जीवन सदाचार से युक्त आदर्श जीवन हुआ करते थे। सदाचार से युक्त जीवन के अनेक लाभ होते हैं। जितना सुख व शान्ति एक सदाचारी मनुष्य के जीवन में होती है, उतने सुख व सन्तोष से युक्त जीवन का अनुमान ईश्वर उपासना व ईश्वर के सत्य ज्ञान से रहित मनुष्य के जीवन में नहीं होता है। ईश्वर ज्ञान व उपासना से रहित जो मनुष्य भौतिक इन्द्रियों के सुख का जीवन व्यतीत करता है, वह जीवन परिणाम में दुःखदायी ही होता है। इन्द्रिय भोग से मनुष्य का शरीर निर्बल हो जाता है जिससे रोग होकर मनुष्य को दुःख होते हैं। अतः एक उपासक का जीवन ही ऐसा जीवन होता है जिसमें रोग नहीं होते अथवा अत्यन्त न्यून मात्रा में होते हैं। उपासक के जीवन में सुख व सन्तोष की असीम मात्रा होती है या उसे उत्पन्न किया जा सकता है जो अन्यथा नहीं होती।
ईश्वर की उपासना व वेदों के स्वाध्याय से मनुष्य को सत्कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। सत्कर्मों में परोपकार व दान आदि भी सम्मिलित होते हैं। जीवनयापन के लिये मनुष्य व्यवसाय तो करता ही है परन्तु उपासना से युक्त मनुष्य का व्यवसाय सदाचार व सदाचारण से युक्त होता है। वेदों में कहा गया है कि अविद्या व सद्कर्मों से ही मनुष्य मृत्यु से पार जाता है। वेदों में यह भी कहा गया है कि ईश्वर को जानकर मनुष्य मृत्यु से पार जाता है। यह दोनों बातें परस्पर समान है। इसका अर्थ है कि सद्ज्ञान व ज्ञानयुक्त आचरण व व्यवहार दोनों को साथ साथ करने से ही मनुष्य मृत्यु से पार जाता और मोक्ष को प्राप्त होता है। अतः उपासना और सद्कर्मों से मनुष्य को मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है तथा अमृतमय मोक्ष की प्राप्ती भी होती है। उपासना से होने वाले इस लाभ का भी महत्व संसार में सबसे बढ़कर है। अतः सभी को उपासना करते हुए ईश्वर से प्राप्त प्रेरणा के अनुसार सत्कर्मों वा परोपकार एवं दान आदि यज्ञीय कार्यों को करते रहना चाहिये।
उपासना व स्वाध्याय से ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि के ज्ञान सहित मनुष्य के कर्तव्यों का बोध होता है। इससे मनुष्य असत्य मार्ग का त्याग कर दुःखों से बचता है तथा सन्मार्ग पर चलकर मनुष्य जीवन के लक्ष्य मुक्ति के लक्ष्य की ओर बढ़ता व प्राप्त होता है। उपासना से मनुष्य को आनन्द की प्राप्ति होती है जो अन्य किसी उपाय व साधन से नहीं होती। ईश्वर आनन्दस्वरूप है। उपासना में मनुष्य का आत्मा परमात्मा से संयुक्त हो जाती है। इससे परमात्मा का आनन्द जीवात्मा को अनुभव होता है। यदि उपासना नहीं करेंगे तो परमात्मा के आनन्द को न तो जान पायेंगे और न अनुभव ही कर पायेंगे। परमात्मा से हमें पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा भी मिलती है। परमात्मा कभी विश्राम नहीं करते। वह संसार के कल्याण के लिये प्रत्येक पल व क्षण कार्य करते हैं। उन्होंने सारे ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है। संसार में सभी नियमों का पालन होता हुआ देखने को मिलता है। सूर्य समय पर उदय व अस्त होता है। समय पर सभी ऋतुएं आती व जाती हैं। मनुष्य जन्म व मरण तथा जीवन के सुख दुःख भी ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार मनुष्यों को प्राप्त हो रहे हैं। अतः ईश्वर के सतत क्रियाशील, गतिशील व पुरुषार्थ से युक्त जीवन को देखकर उपासक को भी सत्कर्मों व परोपकार की प्रेरणा मिलती है।
ईश्वर की उपासना से मनुष्य पाप कर्मों को करने से बचता है। उपासक पाप नहीं करता। यदि करता है तो ईश्वर उसे पाप करने से बचाता है। यदि कोई मनुष्य उपासना करने के साथ पाप कर्मों का व्यवहार भी करता है तो उसकी उपासना में खोट व कमी होती है। संसार में ऐसे भी मत व सम्प्रदाय हैं जो पुण्य व पाप कर्मों में अन्तर ही नहीं कर पाते। वह मांसाहार रूपी पाप कर्म का विरोध नहीं करते। वह दूसरे निर्दोष प्राणियों व मनुष्यों को भी अकारण कष्ट व दुःख देते हैं। ऐसे लोग धार्मिक व उपासक कदापि नहीं हो सकते। वैदिक आधार पर उपासना करने से मनुष्य पापों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। पाप से मुक्त तथा धर्म कर्मों को करने से मनुष्य की प्रवृत्ति सुख प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति में हो जाती है। मनुष्य मोक्ष मार्ग पर भी आगे बढ़ता है। उपासना व धर्म करने से मनुष्य का परजन्म व पुनर्जन्म तो निश्चय ही सुधरता है। जो मनुष्य शुद्ध मन व हृदय से परमात्मा की उपासना करेगा वह निश्चय ही पुरुषार्थी होगा, सद्कर्मों को करेगा, पुण्य कर्मों का संचय करेगा जिससे उसका आगामी व भावी जन्म श्रेष्ठ व उत्तम मनुष्य योनि सहित धन धान्य व सुखों से युक्त वातारण में होगा। इन सब कामों को करते हुए उपासक व साधक को आवश्यकतानुसार धन भी प्राप्त होता है जिसका त्यागपूर्वक भोग करते हुए उपासक उसको दूसरों को दान देकर उनकी सहायता व उन्नति में सहयोगी भी बनता है।
ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य को लाभ ही लाभ हैं। मनुष्य की सभी सद्इच्छायें व शुभ कामनायें ईश्वर की उपासना से पूर्ण होती है। मनुष्य को उपासना व साधना करने के साथ वेद एवं सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सहित ऋषि दयानन्द के जीवन चरित का अध्ययन भी करना चाहिये। इससे उपासना में सफलता सहित मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति के अनेक लाभ प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य