आधे-अधूरे न बने रहें
व्यक्तित्व में पूर्णता लाएँ
– डॉ. दीपक आचार्य
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वर्तमान पीढ़ी में वे लोग कम ही देखने को मिलते हैं जो अपने व्यक्तित्व को पूर्ण विकसित कर दिखाते हैं और जीवन में सफलता प्राप्त करने का श्रेय साथ लेकर जाते हैं। असली मनुष्य वही है जो कहीं भी अकेला छोड़ दिया जाए या अकेला रहने की विवशता हो तब भी उसे अपने किसी काम के लिए पराश्रित नहीं रहना पड़े और अपने सारे काम-काज खुद करने का हुनर उसमें कूट-कूट कर भरा हुआ हो।
पुराने जमाने में व्यक्तित्व की पूर्णता पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाता था। उन दिनों सिर्फ किताबी ज्ञान के बूते पैसा कमाने और पैसा बनाने के तौर-तरीकों तक ही शिक्षा सीमित नहीं थी बल्कि शिक्षा-दीक्षा ऎसी सर्वांग थी कि गुरुकुल से बाहर निकलने के बाद आदमी जहाँ कहीं होता वहाँ हर कर्म में अपनी दक्षता और परिपूर्णता का परिचय देते हुए छाप छोड़ता था।
आदमी के लिए अपनी दैनंदिन जरूरत का कोई सा स्वकर्म न त्याज्य था और न ही उपेक्षित। प्रत्येक आदमी अपने काम की सभी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं तथा गतिविधियों में इतना दक्ष था कि वह दूसरों के सहारे के बिना भी मस्ती के साथ जीवनयापन का आनंद पा लेता था।
उस समय के गुरुकुल और वहाँ की शिक्षा-दीक्षा पाठ्यपुस्तकों में ही कैद नहीं थी बल्कि व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन व्यवहार और निर्वाह की तमाम धाराओं का ज्ञान उसे कराया जाता था और वह भी व्यवहारिक। कठोर परिश्रम, निष्काम सेवा, परोपकार, स्वालम्बन, आत्मनिर्भरता और देशभक्ति के साथ ही राष्ट्रीय चरित्र और स्वाभिमानी जिन्दगी के सारे पहलुओं में दक्ष बनाने के बाद परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ही नई पीढ़ी को समाज के समक्ष जाने की इजाजत दी जाती थी। इस वजह से उस जमाने का आदमी जिन्दगी की किसी भी दौड़ में कभी पछाड़ नहीं खाता था, संघर्ष के हर मोर्चे का डटकर मुकाबला करता हुआ समाज और क्षेत्र में विलक्षण व्यक्तित्व की गंध फैलाता हुआ अनुकरणीय जीवन जीता था।
आज की पीढ़ी ठीक इसके उलट है। पढ़ाई के नाम पर दिन-रात भिड़े रहना और घर-गृहस्थी या जिन्दगी के किसी भी काम से दूर भागने की पलायनवादी प्रवृत्तियाँ हावी हैं। सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई-लिखाई, नौकरी या काम-धंधा और पैसे बनाने से लेकर भोग-विलास की सारी सामग्री एवं संसाधन जुटाकर उन्मुक्त उपभोग की स्वेच्छाचारिता से घिरी वर्तमान पीढ़ी को अपने जीवन का एक ही मकसद दिखता है, और वह है चाहे जिस तरह भी हो सके, पैसे कमाना और बनाना तथा अपने आपको दूसरों के मुकाबले अधिक प्रतिष्ठित करना।
इस उद्देश्य से आगे न कुछ हमें सूझता है, न हममें सामथ्र्य है। बात अपने से जुड़े काम-काज की हो, घर या परिवार के काम की अथवा समाज के दायित्वों की। पढ़ाई का बहाना हमारे सामने इतना पॉवरफुल है कि जैसे इसके सिवाय कोई सा काम करना हराम हो गया हो। बाईक पर तफरी करना, आवाराओं की तरह गलियों, चौबारों, चौरों और सर्कलों, दुकान की पेढ़ियों के आगे, पार्क और सार्वजनिक स्थलों पर डेरा जमा कर घण्टों बतियाना, बाईकिंग, पिकनिक, होटलों और रेस्टोरेंट्स में गुलछर्रे उड़ाना, दोस्तों के साथ फिजूल परिभ्रमण, मोबाइल और इंटरनेट में रमे रहना जैसे ढेरों काम ऎसे हैं जिन्हें हम रोजाना करते हुए आनंद की प्राप्ति करना चाहते हैं।
हमें इस सत्य का भान नहीं है कि इन्हीं सब में रमे रहेंगे तो भविष्य बिगड़ने वाला है ही। व्यक्तित्व विकास त्याग और समर्पण चाहता है, जहाँ ऎसा नहीं है वहाँ उपलब्धियां शून्य ही रहा करती हैं। लड़कें हो या लड़कियां, आजकल इनमें से अधिकांश पढ़ने वाले ऎसे हैं जिन्हें मनुष्य होने का स्वाभिमान तक नहीं है। मोटे चश्मे चढ़ाये, शारीरिक संतुलन को धत्ता दिखाते हुए हम कहाँ जा रहे हैं? आज की पीढ़ी में से कितने ही युवा ऎसे हैं जिन्हें कपड़े धोने, खाना-पीना बनाने, आतिथ्य सत्कार, आदर भाव, घरेलू काम-काज आदि तक नहीं आता। इन्हें रोजमर्रा की जिन्दगी में दूसरों का सहारा न मिले तो टेंशन के मारे पागल हो जाएं।
मौजूदा पीढ़ी को समझना चाहिए कि पढ़ाई से भी ज्यादा कई सारी बातें हैं जिनमें दक्षता पाए बगैर हमारे व्यक्तित्व को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि से हम सभी लोग आधे-अधूरे ही हैं। कोई पाव है, कोई अधपाव….। जीवन व्यवहार की दक्षता के बगैर हम मूल्यवान नहीं हो सकते, बल्कि कितना ही कमा लें, भार ही हैं।