पूज्य पिताश्री महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य जी की 23वीं पुण्यतिथि 13 सितंबर 2013 पर सारा ‘उगता भारत’ परिवार उन्हें हार्दिक श्रद्घांजलि अर्पित करता है। पिताश्री का आदर्श जीवन हमारे समक्ष सदा ही एक नजीर बनकर उपस्थित रहता है। 5 अक्टूबर 1911 से 13 सितंबर 1991 तक वह इस धर्म धरा पर विचरे। उनके विचार मोतियों से हमें प्रेरणा मिली और हमने जीवन पथ पर आगे बढ़ना आरंभ किया। आज उनको गये 22 वर्ष हो गये हैं। उनके आदर्श जीवन की आदर्श बातें रह रहकर याद आती हैं। उनके जीवन में गंभीरता, कर्त्तव्यभावना, समयपालकता, धैर्य, प्रसन्नता, आशावाद, तपोभावना, उत्साह-भावना, निर्भीकता, आस्तिकता, ईश्वरार्पण आदि का सुंदर समन्वय था। इन्ही गुणों को हमारे महामानवों ने मनुष्य जीवन को उच्च बनाने हेतु विशेष उपयोगी माना है।
प्रा. रामविचार एम.ए. कहते हैं कि
गंभीरता का गुण मनुष्य की शोभा बढ़ाता है। चंचल व्यक्ति का समाज में उतना सम्मान नही होता जितना गंभीर व्यक्ति का। चंचलता और स्थिरता का परस्पर विरोध होता है। चंचल व्यक्ति के वचन और कर्म विचारपूर्वक नही होते जबकि गंभीर व्यक्ति के वचन और कर्म विचार पूर्वक होते हैं। गंभीरतापूर्वक वचनों और कर्मों का परिणाम स्थायी होता है। गंभीरता भी महानता का एक लक्षण है।
कर्त्तव्य भावना और उत्तरदायित्व भावना भी मनुष्य को जीवन में बहुत ऊंचा उठाती है। मनुष्य यदि अपने कर्त्तव्य कर्म और उत्तरदायित्व को निष्ठापूर्वक निभाए तो निश्चित रूप से अपने व्यक्तित्व को ऊंचा उठाता है। अपने जिम्मे कोई कार्य ले लेने और उसको निष्ठापूर्वक निभाने से मनुष्य का सम्मान बढ़ता है। व्यक्ति कई बार बिना विचार किये ही उत्तरदायित्व को ले लेता है और उसे भली भांति नही निभाता तो उसका अपमान होता है। कर्त्तव्य का पालन न करने को ही प्रमाद कहते हैं।
समयपालकता का गुण भी व्यक्ति ऊंचा उठाता है। जीवन में समय का बहुत महत्व है। जो समय का पालन करते हैं उनके सब कार्य नियमबद्घ होते हैं। वे अपने समय और दूसरों के समय का महत्व समझते हैं। जो समय के महत्व को समझते हैं उन्हें समय नष्टï होते देखकर कष्ट होता है।धैर्य भी मनुष्य को ऊंचा उठाने का एक बहुत बड़ा साधन है। धैर्यवान व्यक्ति विपत्ति के आने पर मानसिक संतुलन को बिगड़ने नही देता। वह विपत्ति में अचल चट्टान की भांति खड़ा रहता है। वह डगमगाता नही है। वह किसी प्रकार की क्षुब्धता प्रकट नही करता। धैर्य उसके लिए तूफान से भरे हुए समुद्र में प्रकाश स्तंभ का काम करता है। वह व्यक्ति धैर्य के द्वारा ही विपत्तियों पर नियंत्रण प्राप्त करता है।
प्रसन्नता और आहाद की भावना मनुष्य के दुखों के निवारण का एक बहुत बड़ा कारण हुआ करती है। जो व्यक्ति हर समय प्रसन्न रहता है उसके दुखों का नाश हो जाता है। वह अपने दुखों पर विजय प्राप्त कर लेता है। प्रसन्नचित व्यक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।चिंता और शोक मनुष्य को चिता के समान भस्म कर देते हैं। जो व्यक्ति चिंता और शोक न करके विपत्ति के निवारण का समय सोचता है वह व्यक्ति आत्मजयी बन जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए दुख दुखरूप नही रहता।
आशावाद मनुष्य को प्रकाशस्तंभ की भांति सदा प्रकाश देता रहता है। ऐसा व्यक्ति सदा जीवन के उज्जवल पक्ष को ही देखता है। वह सदा प्रकाशवान रहता है। वह दुख में सुख की, हानि में लाभ की, पराजय में विजय की, अपमान में मान की और पतन में उत्थान की कामना करता रहता है। आशावादी व्यक्ति ही जीवन से दुख की तीव्रता को कम कर सकता है।तपोभावना मनुष्य को जीवन में बहुत ऊंचा उठाती है। तपोभावना का अर्थ है अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करते हुए कष्टो को सहन करना। जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करते हुए जितना कष्टो को वहन करता है उतना ही वह समादृत होता है। ऐसा व्यक्ति स्वर्ण से कुंदन बन जाता है।
उत्साह भाव व्यक्ति को कर्मशील बनाता है। उत्साही व्यक्ति कभी आलसी और प्रमादी नही बन पाता। वह सदा कर्मपरायण बना रहता है। वह किसी कार्य को आगे नही टालता। वह कार्य को पकड़ता है और पूर्ण करता है।निर्भीकता का गुण भी व्यक्ति को बहुत ऊंचा उठाता है। इसी निर्भीकता के कारण ही व्यक्ति योद्घा और विजेता बनते हैं। साहसी और निर्भीक व्यक्ति ही राज किया करते हैं, साहसहीन और कायर व्यक्ति नही। व्यक्ति जितना निर्भीक होता है वह उतना ही संसार के किसी शक्तिशाली व्यक्ति से नही डरता। वह किसी भ्ज्ञी घातक वस्तु से नही डरता। साहसी और निर्भीक व्यक्ति सदा यश को प्राप्त करता है। इतिहास में जिन्हें अमरता प्राप्त हुई है उनमें साहसी और निर्भीक व्यक्ति भी हैं।
आस्तिकता मनुष्य का आभूषण है और नास्तिकता दूषण। मनुष्य जन्म पाकर ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करना, मनुष्यता का घोर अपमान है। आस्तिकता की भावना से सुसज्जित व्यक्ति ही आध्यात्मिक ऊंचाईयों तक पहुंच सकता है। उसी का लक्ष्य ही आत्म साक्षात्कार, परमात्म साक्षात्कार और मोक्ष हो सकता है। नास्तिक भाग्यवाद तक ही रह जाता है। इससे ऊपर उठता है तो नैतिकता तक ही उसकी पहुंच होती है।
ईश्वरार्पण की भावना को अपनाकर व्यक्ति समत्वयोगी बनता है। वह सुख दुख, हानि लाभ, विजय पराजय, मान अपमान, उत्थान पतन और जन्म मृत्यु को समान समझता है। इन द्वंद्वों से ऊपर उठकर वह समत्व को नही खोता। वह चिंता और शोक से ऊपर उठ जाता है। वह नैतिकता और आध्यात्मिकता की चरम सीमा तक पहुंच जाता है।
मानसिक भावों के परिष्कार के पश्चात मानवता का दूसरा लक्षण वाक संयम है। वाणी के द्वारा भी व्यक्ति की उत्कृष्टता और निकृष्टïता को पहचाना जाता है। वाणी के गुण हैं-थोड़ा बोलना, सोच समझकर बोलना, प्रेमपूर्वक बोलना (क्रोधपूर्वक एवं आवेशपूर्वक न बोलना) पीठ पीछे किसी की निंदा, आलोचना और उपहास न करना, न करना, किसी के सम्मुख किसी का दिल दुखाने वाले वचन न कहना, वचन पूर्ति का ध्यान रखना, किसी को गाली न देना, अश्लील बातें न करना, सत्य बोलना, लड़ाई झगड़ा कराने वाली बात एक दूसरे को न बताना, जो आगे कहना वही पीछे कहना (यदि सामने कहने की हिम्मत न हो तो पीछे चुप रहना) गोपनीयता (जिस बात को किसी ने कहने के लिए रोका हो उसे न कहना) और आत्मश्लाघा न करना। जो व्यक्ति वाणी का वशीकार करता है वह व्यक्ति संसार में सम्मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। मानव का निर्माण साधना से होता है और यह साधना आत्म निरीक्षण से होती है। आत्मनिरीक्षण के पश्चात जागरूकता एवं सावधानी की आवश्यकता होती है ताकि उन नियमों का दृढृतापूर्वक पालन किया जा सके। संसार में सबसे कठिन काम मनुष्य का निर्माण है। काश, आज का मनुष्य अपना निर्माण कर सके। निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि मनुष्य का मनुष्यत्व उसके मानसिक भावों की ऊंचाई में होता है तथा वाणी एवं शरीर उन्हीं मानसिकता भावों के पीछे चलने वाले होते हैं। अपने उस तपस्वी और मनस्वी पूज्य पिताश्री को आज उनकी 23वीं पुण्यतिथि के अवसर पर पूरे परिवार की ओर से श्रद्घासुमन अर्पित करते हुए यह लेख समाप्त कर रहा हूं कि उनकी आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे और वो जहां भी हों आनंद मय और प्रसन्नता पूर्वक रहें।
-सूबेदार मेजर
वीर सिंह आर्य