विदेशी दासत्व के आगे बौने हैं
हिन्दी विकास के प्रयास
– डॉ. दीपक आचार्य
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देश का और हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य देखिये कि आज हमें अपनी मातृभाषा हिन्दी के लिए दिवस मनाना पड़ रहा है और हिन्दी को अपनाने, हिन्दी के विकास आदि के लिए चिल्ला-चिल्ला कर भाषण देने और संकल्प लेने की आवश्यकता पड़ रही है।
मातृभाषा का वजूद स्वीकारने और इसे अपनाने के लिए भी आज हमें संगोष्ठियों, बैठकों और संकल्प कार्यक्रमों की जरूरत है। हम हमारी मातृभाषा को सिर्फ एक दिन सिमटा कर दिया करते हैं, एक दिन भी चंद मिनट देकर हिन्दी की बातें करते हैं और फिर साल भर तक भूल जाते हैं।
मातृभाषा हिन्दी को जन-भाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में पूरे देश में प्रतिष्ठित करने का जो काम हमें स्वाधीनता पाने के तत्काल बाद कर लेना चाहिए था, वह हम नहीं कर पाए। स्वयं महात्मा गांधी और हमारे हिन्दी जगत के साहित्य चिंतकों ने हिन्दी के बारे में दशकों पहले खूब कहा-लिखा, आजादी से पहले और बाद में इसके लिए खूब प्रयत्न किए मगर सफल नहीं हो पाए।
हिन्दी की दुर्गति और उपेक्षा के लिए और कोई जिम्मेदार नहीं है, बल्कि हम ही दोषी हैं। हमने विदेशी दासत्व के बीजों को अपने मन और मस्तिष्क में यों ही पड़़े रहने दिया, जबकि आजादी पाते ही इन्हें कुचल कर निकाल फेंकना चाहिए था।
स्वाभाविक रूप से हम सदियों की गुलामी को झेलते हुए स्वत्व और भारतीय स्वाभिमान को भुला बैठे। यही नहीं तो जन-जन को एक सूत्र में पिरोने वाली हिन्दी भाषा को वह प्रतिष्ठा नहीं दिला पाए, जो अपेक्षित ही नहीं बल्कि अनिवार्य थी। एक देश-एक भाषा का सिद्धान्त अपनाने की बजाय हम विदेशियोें के अंधानुकरण को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं और यही कारण है कि हमारी सोच और व्यवहार से लेकर दैनिक जीवनचर्या तक में विदेशियों और विदेशी भाषाओं को प्रभाव स्पष्ट झलकता रहता है।
हमारे अपने आदर्श, मूल्य, गुणवत्ता, देश पर््रेम और स्वाभिमान से लेकर वो सब कुछ स्वाहा हो गया है जिस पर हमारी पुरानी पीढ़ियां गर्व किया करती थी, जिनकी वजह से हमें विश्वगुरु का गौरव प्राप्त था। हम उन सभी मामलों में अपेक्षित तरक्की प्राप्त नहीं कर पाए हैं जो हिन्दी की व्यापक प्रतिष्ठा से प्राप्त होती।
अंग्रेजी भाषा का विरोध करने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन जिन लोगों को हिन्दी की समझ है उन लोेगों तक सरकारी और गैर सरकारी, परिवेशीय जानकारी और वे तमाम प्रकार की सूचनाएं हिन्दी में पहुंचनी जरूरी हैं जो आम आदमी के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करती हैं।
हिन्दी में ही भाषा व्यवहार उन लोगों के लिए ज्यादा जरूरी है तो ठेठ देहात में रहते हैं, मध्यमवर्गीय परिवारों से संबंधित हैं या आम लोग हैं। यों तो देश में कई बोलियां, उप बोलियां, भाषाएं, उप भाषाएं आदि हैं लेकिन इन सभी में हिन्दी सर्वमान्य और लोक व्यवहार की भाषा है जिसे हर क्षेत्र और कार्य व्यवहार में स्थापित किया जाना भारतीय जनमानस के कल्याण के लिए नितांत जरूरी है। दूसरी भाषाओं और बोलियों के विकास का क्रम जारी रहे, इनमें साहित्य का सृजन होता रहे, अकादमियों और इनसे जुड़े राजमान्य लोगों के पद-कद और मद उत्तरोत्तर बढ़ते रहें, इनसे जुड़े साहित्यकारों और विशेषज्ञों को भरपूर सम्मान आदर एवं अभिनंदन मिलता रहे, प्रकाशन सहयोग एवं पुरस्कार प्राप्त होते रहें और इनके लिए पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था होती रहे, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन क्षेत्र विशेष की बोलियों को भाषा का दर्जा देने के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे लगता है कि हिन्दी आन्दोलन की जड़ें कमजोर हो रही हैं।
हिन्दी के प्रति जिनकी जरा सी भी श्रद्धा और आस्था है उन सभी लोगों को चाहिए वे अपने साहित्यिक वजूद और संभावनाओं की तलाश बनाये रखते हुए पहले हिन्दी को स्थापित करने के प्रयासों में भागीदार बनें, फिर चाहे जो करें।
आज हिन्दी राष्ट्रभाषा होने के साथ ही राष्ट्रीय विकास के लिए जरूरी भाषा है जिसके बल पर हम विश्व में अपनी विश्व गुरु की पहचान कायम कर सकते हैं। जो जहाँ कहीं हैं, वे सभी हिन्दी में कामकाज का संकल्प मात्र ग्रहण न करें बल्कि संकल्पों को ईमानदारी एवं श्रद्धापूर्वक साकार भी करें। यही आज की युगीन आवश्यकता और हमारा राष्ट्रीय फर्ज है। हिन्दी इस प्रकार स्थापित करने का प्रयास करें कि हर साल हिन्दी दिवस मनाने की आवश्यकता न पड़े बल्कि जन-मन में सर्वत्र हिन्दी प्रतिष्ठित हो और हर क्षण हिन्दी के प्रति हमारा स्वाभिमानपूर्ण चैतन्य भाव बना रहे।