भारतवर्ष में गुप्तचर प्रणाली की जड़ें अति प्राचीन
पूनम नेगी
किसी भी देश की सुरक्षा में वहां के गुप्तचर तंत्र का अहम योगदान होता है। आज हमारे देश की गुप्तचर प्रणाली अत्यन्त सशक्त व अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से संयुक्त है। पर यह जानना वाकई दिलचस्प होगा कि इस गुप्तचर प्रणाली की जड़ें हमारे देश में अति प्राचीन हैं। इसे भारतीय संस्कृति की ऐसी विलक्षण धरोहर माना जा सकता है जिसकी उपलब्धियां दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर कर देती हैं। विभिन्न स्रोत बताते हैं कि आदि भारत के विभिन्न राज्यों में सक्रिय, साहसी और मेधावी और प्रत्युत्पन्नमति संपन्न राष्ट्रनिष्ठ लोगों के ऐसे सुसंगठित खुफिया तंत्र तैनात थे, जिनकी जानकारियों के आधार पर राज्य की सुरक्षा के महत्वपूर्ण निर्णय व निर्धारण किये जाते थे।
विज्ञान के पदार्पण ने आज भले ही इस विद्या को अपेक्षाकृत सहज कर दिया है मगर प्राचीन काल में गुप्तचर्या पूर्णरूप से बुद्धि-चातुर्य पर ही टिकी होती थी। गुप्तचर का सर्वग्राह्य अर्थ है जिसके बारे में किसी को कोई भी गुप्त जानकारी न हो मगर जिसे स्थान, काल, पात्र सभी की पूरी जानकारी हो। गुप्तचर्या के सर्वप्रथम सूत्र वैदिक साहित्य में मिलते हैं। ऋग्वेद में जल के देवता को सहस्रनेत्र कहा गया है, उनके ये सहस्रनेत्र और कुछ नहीं अपितु एक हजार गुप्तचर ही थे, ऐसे उल्लेख आर्ष वांड्मय में मिलते हैं। वैदिक साहित्य में गुप्तचारिणियों यानी महिला गुप्तचर का भी विवरण मिलता है। ऋग्वेद में वृतांत है कि देवराज इन्द्र ने किन्हीं विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरमा नामक अप्सरा को अपनी दूती बनाकर पृथ्वीलोक भेजा था। जरा सोचिए कितनी उन्नत रही होगी आदियुग की भारतीय गुप्तचर प्रणाली। पौराणिक साहित्य में नारद मुनि को इस विद्या का पारंगत विद्वान माना गया है। पौराणिककालीन राजनय में उनका विशिष्ट स्थान माना जाता है। वाकपटुता व बुद्धि चातुर्य की विशिष्टता के कारण उन्हें तीनों लोकों में कहीं भी आ-जा सकने की पूरी छूट थी। वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच के राजाओं को एक दूसरे की सूचनाओं को आदान-प्रदान का कार्य करते थे मगर उनका उद्देश्य सिर्फ लोकमंगल था।
मनु की शासन व्यवस्था में ‘रक्षाधिकृत गुप्तचरÓ (पुलिस का एक रूप) उल्लेख मिलता है। यह रक्षाधिकृत गुप्तचर प्रणाली दो भागों में विभक्त थी। आज के संदर्भों में इसे प्रथम अपराध अनुसंधान विभाग दूसरे सामान्य पुलिस विभाग के रूप में देखा जा सकता है। प्राचीन काल में अपराध अनुसंधान का कार्य किस प्रकार किया जाता था, इस सम्बंध में कई विवरण मनु से संबंधित ग्रंथों में मिलते हैं।
मनुस्मृति की भांति शुक्रनीति में भी गुप्तचरों के बारे में व्यापक जानकारी दी गयी है। शुक्रनीति शत्रु की सेना में फूट डालकर परास्त करने और प्रजा को प्रसन्न कर उनका पुत्रवत पालन करने पर बल देती है। उपलब्ध विवरण बताते हैं कि त्रेता व द्वापर युगीन समाज में भी यह तंत्र पूर्ण सक्रिय था। रामायण काल की गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत उच्च कोटि की थी। मगर राम और रावण की गुप्तचर व्यवस्था में एक मूल अंतर था। जहां राम के गुप्तचर विद्वान और नीति का अनुसरण करते थे, वहीं रावण के गुप्तचर मायावी और धोखेबाज। इसी तरह हरिवंश पुराण का बाणासुर प्रसंग कृष्ण युग की गुप्तचर कला की उत्कृष्टता को उजागर करता है। रामायण व महाभारत में राजनय की उपयोगिता से संबंधित कई उदाहरण मिलते हैं। यदि रावण के पक्ष की बात करें तो जब उसका गुप्तचार शुक जब पक्षी का रूप धरकर राम की सैन्य शक्ति की टोह लेने सागर पार उनकी छावनी में जाता है और विभीषण उसे पहचान लेते हैं तो राम उसके साथ दूत की मर्यादानुसार उचित व शिष्ट व्यवहार करते हैं। शुक राम की शीलता के आगे नतमस्तक हो जाता है और लौट कर रावण के समक्ष उन्हें श्रीराम का सम्मानजनक सम्बोधन देकर सीता जी को लौटाकर संधि का परामर्श अपने राजा को देता है।
अब मध्ययुग की बात करें तो मौर्य साम्राज्य को उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाने में आचार्य चाणक्य प्रणीत राजनय प्रणाली का ही मुख्य योगदान है। यह उन्हीं की नीतियों का सुफल था कि अखंड भारत का स्वप्न साकार हो सका। चाणक्य यानी कौटिल्य राजनय प्रणाली पर लिखने वाले प्रमुख भारतीय विद्वान माने जाते हैं। कौटिल्य व कूटनीति को एक दूसरे का पर्याय कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे सिकंदर के गुरु अरस्तु के समकालीन थे जिसका वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। उन्होंने 326 ई. पूर्व में सिकन्दर के आक्रमण से उत्पन्न आंतरिक अराजकता तथा हिन्दू समाज व्यवस्था में विघटन की स्थिति में मौर्यवंश के प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त के पद प्रदर्शन के लिए अर्थशास्त्र की रचना की थी।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र सही अर्थों में अपने ढंग की अनोखी पुस्तक है, जिसे भारत की राजनीति शास्त्र की प्रथम पुस्तक कहा जा सकता है। इस पुस्तक के प्रथम खंड के सोलहवें अध्याय में राजनय व राजदूतों के कार्यों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है तथा सातवां खंड विभेदनीति, संधियों और राष्ट्रीय हित के विषयों से सम्बंधित है। कौटिल्य की लेखनी सिकन्दर महान के आक्रमण से उत्पन्न अराजक स्थिति से प्रभावित थी इसलिए उन्होंने राज्य को आंतरिक उपद्रवों तथा बाह्य आक्रमण से सुरक्षा के सुदृढ राजयन प्रणाली पर बल दिया। वे अत्यन्त उच्च कोटि के राष्ट्रवादी थे जिनका एक मात्र स्वप्न था अखण्ड भारत निर्माण। उनका दर्शन था कि राष्ट्रहित में साम, दाम, भेद और दण्ड कोई भी उपाय अनुचित नहीं है।
कौटिल्य ने अरि, मित्र, मध्यम और उदासीन, प्रकार के दूतों का उल्लेख किया है। कौटिल्य इन गुप्त दूतों को चार श्रेणी में विभाजित करते हैं – निसृष्टार्थ, परिमितार्थ, शासनहार व आमात्यपद। इन चारों की नियुक्ति के नियत मापदंड थे। आमात्यपद की योग्यता वाला दूत निसृष्टार्थ, उससे तीन चौथाई योग्यता रखने वाला परिमितार्थ और आधी योग्यता वाला शासनहार कहलाता था। निसृष्टार्थ दूत का कार्य अन्य श्रेणी के दूत के भांति अपने राजा का संदेश दूसरे राजा के समक्ष प्रस्तुत करना होता था। उसको वार्ता के पूर्ण अधिकार था। इस प्रकार के दूत को हम वर्तमान काल के राजदूत सकते हैं। वे दूत के दो प्रकार के कार्यों का उल्लेख करते हैं- 1. शांतिकालीन कार्य व 2. संकटकालीन कार्य।
उन्होंने गुप्तचरों को विरोधी राज्य में वैद्य, व्यापारियों, ज्योतिषी, तीर्थशास्त्री, राजा के सेवक, रसोईये तथा साधु आदि के अलावा वेश्याओं और नर्तकियों के रूप में भेजने की व्यवस्था दी है। कभी-कभी गुप्तचारिणियां राजमहल में स्त्रियां तांबूल या छत्र वाहिकाओं का पद भी प्राप्त कर लेती थीं ताकि राजा के समीप रहकर राज्य की अंतरंग गतिविधियों का भेद जान सकें । कौटिल्य ने राज्य शिल्प के अंतर्गत छह प्रकार की नीतियों यथा शांति (संधि), विग्रह (युद्ध), शासन (तटस्थता), यान(अभियान), सश्रय(मैत्री) और द्वैधिभाव (छल कपट) का उल्लेख किया है। उन्होंने प्रत्येक मान्य संधि को महत्वपूर्ण तथा अनुल्लंघनीय बताते हुए संधि की पवित्रता कायम रखने के लिए शपथ का विधान बनाया तथा उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था भी दी है।
यह कौटिल्य की सुदृढ़ राजनय व्यवस्था का ही प्रताप था कि मौर्य राजवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। मौर्य काल में दूतों को भेजने की प्रथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक भाग बन चुकी थी।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आधुनिक गुप्तचर प्रणाली के जनक मेकियावेली ने अपनी पुस्तक प्रिन्स में राजा को राज्य की सुरक्षा तथा आंतरिक शांति को बनाये रखने के लिये वही परामर्श दिये हैं जो सालों पूर्व कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र दिये थे। कौटिल्य और मेकियावेली के गुप्तचर प्रणाली सम्बंधी विचारों में काफी समानता है। दोनों की दृष्टि में राष्ट्रहित सर्वोपरि था। दोनों ही चिंतक गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अधिक उपयुक्त मानते थे और व्यवहारिकता के आधार पर राजहित पर बल देते थे। दोनों ही युद्ध के विरोधी थे और उनका विश्वास था कि सफल राजनय के माध्यम से युद्ध को रोका जा सकता है परन्तु एक बार युद्ध होने पर दोनों ही युद्ध को सफलता के अंत तक ले जाने के समर्थक थे। भारतीय राजनय के इस कालजयी ग्रन्थ के कई आधारभूत सिद्धांत आज भी भारत के विभिन्न देशों के साथ राजनय सम्बंधों को मौर्यकाल की भांति दिशा देते हैं।
विज्ञान के विकास ने आज गुप्तचर तंत्र को काफी संपन्न बना दिया है जिस कार्य को करने में पहले लंबा समय लग जाता था, वह जासूसी उपकरणों के माध्यम से अब स्वल्प समय में ही हो जाते हैं इससे समय, श्रम और शक्ति की तो बचत होती ही है, अवांछनीय कार्यों में जुटे लोगों की संलिप्तता प्रमाण जुटा पाना भी सरल हो गया है। फिर भी इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति जैसे विभिन्न पुरा भारतीय साहित्य में भारत की गुप्तचर्या विद्या की अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं तथा कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो भारतीय इतिहास की ऐसी विलक्षण धरोहर है जिसकी नीतियां आज भी पूर्ण प्रासंगिक है।
वस्तुत: गुप्तचर्या एक विशेष हुनर है, वैज्ञानिक आविष्कारों से उसमें निखार आया है। पर यह निखार निष्कलंक तभी बना रह सकता है, जब उसमें हर एक के लिए मंगलकामना निहित हो। विद्वेषजन्य भावना, शांति और सुव्यवस्था के स्थान पर अराजकता की प्रेरक बन जाती है; यह खतरनाक स्थिति है। जिस दिन इस से विधा पूर्णरूपेण सदुपयोग आरंभ हो जाएगा वह दिन राष्ट्र के सुरक्षित भविष्य का शुभसंकेत होगा और मानवी उत्कर्ष का ब्रह्ममुहूर्त भी।