प्राचीन भारत और गर्भ संस्कार
डॉ. उमंग जे. पंडया :आयुर्वेद को पांचवां वेद माना गया हैं। वेदों के इस नित्य नूतन एवं चिर सनातन विज्ञान में गर्भ संस्कार का काफी महत्व बताया गया है। आचार्य चरक, आचार्य सुश्रुत आदि ऋषि-मुनियों ने इसका वैज्ञानिक प्रतिपादन भी किया है। सभी आचार्यों ने अपनी संहिताओं के शारीरस्थान में इस विषय का विस्तृत वर्णन किया है। आचार्य चरक ने चरक संहिता के शारीरस्थान के आठ अध्यायों में से चार अध्यायों में गर्भसंस्कार का ही वर्णन किया है। इसके अंतर्गत स्त्री बीज, पुरुष बीज, बीजों की उत्तमता, गर्भावतरण, आत्मा व मन का इन बीजों से संयोग, गर्भाधान प्रक्रिया, गर्भ की मासानुसारशारीरिक एवं मानसिक वृद्धि, गर्भिणी का आहार-विहार, परिचर्या एवं उसका गर्भ पर प्रभाव, गर्भोत्पादक भाव, गर्भवृद्धिदकर भाव, गर्भोपघातकर भाव, उत्तम एवं श्रेष्ठ संतान उत्पत्ति हेतु पुंसवन कर्म, प्रसवक्रिया, प्रसवोपरांत संस्कार आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इन आठ अध्यायों में से दो अध्याय ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, अतुल्य गोत्रीय शारीर एवं जातिसूत्रीय शारीर।
अतुल्यगोत्रीय शारीर में विलक्षण जाति रचना का वर्णन है। इसमें उत्तम एवं श्रेष्ठ संतान उत्पत्ति के हेतुओं का मार्गदर्शन एवं इनका विस्तृत वर्णन है। जाति शब्द का तात्पर्य आज अंग्रेजी के रेस शब्द से लिया जाता है। विभिन्न जाति-प्रजातियों का वर्गीकरण एवं उनके मूल को जानना आज के समय में प्रमुख शोधकार्य हो गया है। आज जाति एवं उनके सूत्र की तुलना डीएनए व उसके क्रोमोजोम्स रचना के साथ की जाती है। चरक के जातिसूत्रीय शारीर अध्याय में इसी डीएनए व उसके क्रोमोजोम्स रचना के साथ-साथ आनुवांशिक विज्ञान का आयुर्वेद दृष्टिकोण से वर्णन किया गया है।
हिन्दू संस्कृति के प्रमुख धार्मिक ग्रंथ रामायण, महाभारत आदि जोकि गूढ़ एवं सूक्ष्म वैज्ञानिक ग्रंथ भी है, में भी गर्भसंस्कारों का वर्णन है। रामायण के बालकांड के अनुसार दिग्विजयी राजा दशरथ की तीन रानियां थी, परंतु इसके बाद भी वे नि:संतान थे। संतानोत्पत्ति हेतु ऋषि विश्वामित्र के मार्गदर्शन अंतर्गत ऋषि शाृंग ने पुत्रकामेष्टी यज्ञ का आयोजन किया था। उस वक्त राजा दशरथ की आयु 52 वर्ष की थी। पुत्रकामेष्टी यज्ञ में सम्मिलित राजा दशरथ एवं उनकी तीन रानियों के धार्मिक आचरण एवं सफल यजनकर्म से प्रसन्न होकर यज्ञकुण्ड से यज्ञपुरुष प्रगट हुए। उन्होने अपने हाथों में खीर से भरा कलश धारण किया हुआ था। उस कलश में से उन्होंने राजा दशरथ और उनकी तीनों रानियों को खीर खाने को दिया, जिसके सेवन से उनके यहां दिव्य संतानों की उत्पत्ति हुई।
यह एक गूढ़ भाषा में लिखित विज्ञान है। हमने डॉ. एम.यू. बहादुर के सान्निध्य में इसमें छिपे हुए गूढ़ार्थ एवं भावार्थ का अध्ययन किया। इसके साथ ही इस विषय पर और भी कई प्रकार से शोध किए। इन अध्ययनों व शोधकार्यों के बाद हमारी संस्था एशियाटिक सोसायटी फॉर ऑकल्ट साइंसेज ने इस विषय के आयुर्वेदिक एवं धार्मिक हेतु और महत्व को स्थापित करने के लिए लगभग चार वर्ष पूर्व 27 मार्च 2008 को जामनगर (गुजरात) में संतानकामेष्टी यज्ञ का आयोजन किया। यह एक विशिष्ट प्रकार का कार्य था जिसे प्रथम बार गुजरात में पूर्ण किया गया। इस संतानकामेष्टी यज्ञ में भाग लेने वाले स्वयं भी जामनगर के एक प्रतिष्ठित शिशुरोग विशेषज्ञ डाक्टर थे। उनकी माता जी भी जामनगर की एक प्रतिष्ठित स्त्री एवं शिशु रोग विशेषज्ञ हैं। वह स्वयं इस यज्ञ में सपत्नीक यजमान बने। यह दंपति स्वस्थ एवं गर्भाधान हेतु रोगमुक्त था। लेकिन आत्मा का अवतरण नहीं होने से वे संतानयोग से विमुक्त थे। सभी पेथोलोजिकल रिपोर्ट सामान्य होने और अन्य ऐलौपैेथिक चिकित्सा करवाने के बाद भी गर्भाधान संभव नहीं हो रहा था। संतानकामेष्टी यज्ञ में सम्मिलित इस दंपति को यज्ञ के फलस्वरूप पुत्र की प्राप्ति हुई। उनके अनुसार परिवार में अभी तक हुई सभी संतानों में यह संतान शारीरिक एवं मानसिक भावों से सबसे श्रेष्ठ है। एक ऐसे डाक्टर जिन्होंने खुद कइयों के प्रसव करवाये एवं अनेक शिशुओं की चिकित्सा की, के परिवार में पहली बार ऐसी स्वस्थ, उत्तम एवं श्रेष्ठ संतान का जन्म हुआ। यह आयुर्वेद विज्ञान की सफलता है।
गर्भसंस्कार का अगला संस्कार है पुंसवन। गर्भाधान के बाद ढाई मास तक की अवधि में उत्तम एवं श्रेष्ठ संतान के लिए पुंसवन संस्कार किया जाता है। यह पुंसवन संस्कार गर्भाधान संस्कार के बाद दूसरा संस्कार है। उत्तम एवं श्रेष्ठ संतान उत्पत्ति एवं गर्भस्थापन व गर्भ के स्थिरीकरण हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। पुंसवन संस्कार से ही राजा दिलीप राजा दशरथ जैसे पुत्र, राजा दशरथ को राजा राम जैसे और राजा राम को लव-कुश जैसे पुत्र प्राप्त हुए थे। पुंसवन संस्कार के द्वारा विविध वर्ण, विविध विशेषतायुक्त बालक का जन्म होता है, ऐसा आयु्र्वेदीय शास्त्रों में कहा गया है।
इसमें दिव्य वनस्पतियों के औषध योग-प्रभाव द्वारा कार्य करते हैं। शास्त्रों में सुवर्ण आदि प्रशस्त धातुओं के योगों का भी प्रयोग वर्णित है। पुष्य आदि श्रेष्ठ नक्षत्र में विविध प्रकार के औषध योग का प्रयोग किया जाता है। पुंसवनोपरांत गर्भिणी को मासानुमासिक परिचर्या ध्यान में रखते हुए अनेकविध अन्न-पान प्रयोगों का वर्णन किया गया है। गर्भधारण की नौ मास तक अवधि में तृतीय मास के बाद शिशु का मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि का विकास होता है। अन्य शास्त्र सिर्फ शारीरिक विकास को चिह्नित कर पाते है; जबकि आत्मा, मन, बुद्धि एवं इन्द्रियों के विकास को चिह्नित करना ही आयुर्वेद की विशेषता है। प्रसवोपरांत नवजात को तृतीय संस्कार जातकर्म के अंतर्गत सुवर्णप्राशन का प्रयोग किया जाता है। सुवर्ण काफी प्रसिद्ध एवं आत्म-चेतना से संलग्न धातु है। हिरण्यगर्भ से अवतरित सृष्टि में चेतनावर्धक, ओजवर्धक हिरण्य अर्थात सुवर्ण ही है। साथ ही यह हृदय में संग्रहित होकर विष आदि के प्रभाव को नष्ट करके स्वस्थ एवं उत्तम बालक को निर्माण करता है।
गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण और कर्णवेध, सोलह में से ये नौ संस्कार बाल्यावस्था में ही किये जाते हैं। मानव जीवन के सोलह संस्कार में से प्रथम तीन संस्कार गर्भाधान से प्रसव के दौरान होता है, प्रसव समय में जातकर्म संस्कार तथा नामकरण से लेकर अन्नप्राशन संस्कार एक वर्ष की आयु तक और अन्य संस्कार बाल्यावस्था में किया जाता है। इस तरह उत्तम एवं श्रेष्ठ संतति पाने के लिए नौ संस्कारयुक्त गर्भसंस्कार किया जाता है।
(साभार)
प्रस्तुति – उगता भारत ब्यूरो
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