हिंदी दिवस एक बार पुन: आ गया है। हर वर्ष हम 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाते हैं। हिंदी हमारी राजभाषा है, लेकिन राष्ट्रभाषा नही बन पायी है। स्वतंत्रता के बीते 66 वर्षों की यह दुखद उपलब्धि है कि हम आज तक हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा नही बना पाए, यद्यपि भारतवर्ष में ही नही अपितु विश्व में भी हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है कि जिसे सबसे अधिक बोला व समझा जाता है। अंग्रेजी केवल दो करोड़ लोगों की मातृभाषा है जबकि हिंदी लगभग 70-80 करोड़ लोगों की मातृभाषा है। इसके उपरांत भी हिंदी दासी और अंग्रेजी पटरानी बनी बैठी है। यह स्थिति कुछ कुछ वैसी ही है, जैसे किसी सरकार का गठन तो हो गया हो, परंतु उसका प्रधानमंत्री नही हो। स्पष्ट है कि ऐसी सरकार विसंगतियों का ही शिकार होगी।
हिंदी से पूर्व हमने संस्कृत को एक मृतभाषा बनाने की दिशा में कार्य किया है। इसे केवल धार्मिक रीति रिवाजों तक ही बनाकर रख दिया गया है। अधिकांश स्थानों पर देखा गया है कि पंडित जी को भी मंत्रों का अर्थ या आशय तक पता नही होता। संस्कृति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए क्षितीश वेदालंकार जी ने अपनी अपनी पुस्तक ‘चयनिका’ के पृष्ठ 161 पर लिखा है-’संस्कृत केवल भारत की थाती नही है। यह समस्त मानव जाति की चिर निधि है। संसार की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत में ही वह अद्भुत कोष सुरक्षित है, जो मानव जाति के पूर्वज मनीषियों ने और ऋषि मुनियों ने हजारों वर्ष तक अपने चिंतन मनन और स्वाध्याय के परिणामस्वरूप संचित किया था आज भी सारे भारत की राष्ट्रीय एकता का जैसा सामर्थ्य इस भाषा में है, वैसा किसी और भाषा में नही। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के प्रत्येक प्रदेश में आज भी संस्कृतज्ञों का सर्वथा अभाव नही है। किसी भारतीय भाषा का कोई प्रतिष्ठित साहित्यकार ऐसा नही होगा, जो अपनी भाषा के साथ साथ संस्कृत प्रेमी भी ना हो।
हमारा मानना है कि संस्कृत को देश की समस्त भाषाओं की जननी होने के कारण ‘जननी राष्ट्रभाषा’ का गौरवमयी संवैधानिक अधिकार मिलना चाहिए। जिससे हर भाषाविद अपनी शोध को संस्कृत से लेकर चले और भारत की किसी भी भाषा में उसे प्रकाशित कराने के लिए स्वतंत्र हो। इससे भाषाओं के विषय में पश्चिमी विद्वानों के द्वारा बनाया भ्रम समाप्त होगा और हम भाषा संबंधी ‘काल्पनिक परिवारों’ के भ्रम जाल से मुक्त हो सकेंगे। जननी राष्ट्रभाषा के उपरांत राष्ट्रभाषा हिंदी का स्थान होना चाहिए। हमारे मंदिरों को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बनना चाहिए। हर देश के और सम्प्रदाय के धर्मस्थल अपने लोगों को उपदेशात्मक साहित्य तथा शिक्षा अपनी भाषाओं में देते हैं। मंदिरों में जाने वाले भक्तों को संस्कृति का ज्ञान कराने का दायित्व मंदिरों को अनिवार्यत: संभालना चाहिए। संस्कृत का ज्ञान ना होने के कारण कोई भी भक्त मंदिरों में तो औपचारिकता पूरी करता है, परंतु वह अंग्रेजी में अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाता है, यद्यपि अंग्रेजी में अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान है ही नही, परंतु जो भी उसे मिलता है, उसे पूर्ण मानकर वह संतुष्ट हो जाता है। इस प्रकार अनजाने में ही हमारे भीतर ‘संस्कृत द्रोह’ की भावना का विकास होता जाता है। मन से हम नही चाहते कि हम किसी अन्य संप्रदाय के अनुयायी बनें, पर बनते जाते हैं। यह दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति हमारे देश के उस वर्ग में अधिक बन गयी है जो इस देश का संपन्न वर्ग कहलाता है। वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मानसिक विकलांगता का शिकार हो चुका है। उसे धर्म संप्रदाय लगता है और वह कई प्रकार की भ्रांतियों का शिकार हो चुका है। मंदिरों को ऐसे लोगों ने अपने द्वारा दान की मोटी धनराशि चढ़ाने का एक स्थान मान लिया है और हमारे बहुत से मठाधीशों ने ऐसी मान्यता को बन जाने दिया है। क्योंकि उन्हें किसी व्यक्ति के भीतर धार्मिकता मापने के लिए उसकी दान के प्रति श्रद्घा या अश्रद्घा को देखना ही पर्याप्त लगता है।
ऐसी परिस्थितियों में मंदिरों के मठाधीशों को चाहिए कि सप्ताह में एक दिन (रविवार को) भाषा संबंधी ज्ञान अवश्य दिया जाए। उस दिन पूरा समय इसी विषय पर रहना चाहिए। शेष दिनों में छात्रों के लिए विद्याध्ययन चलना चाहिए। मंदिरों के मूल में भी यही उद्देश्य निहित रहा था। प्राचीन काल में किसी गुरूकुल के पास विद्यालय के प्राचार्य का घर होता था। गुरूकुल में अध्ययनरत अपने बच्चों की सुशिक्षा की व्यवस्था के लिए प्राचार्य महोदय को स्वेच्छा से कुछ लोग दान देकर आया करते थे। कालांतर में प्राचार्य का निवास मंदिर बन गया और उसमें आने वाले अभिभावक भक्त बन गये, परंतु गुरूकुल और गुरूकुल में अध्ययनरत विद्यार्थी काल प्रवाह में कहीं पीछे छूट गये। इस गौरवमयी परंपरा को आज पुन: जीवित करने का समय आ गया है। संगठन के रूप में पूरा हिंदू समाज यदि उठे तो सरकार को भी मंदिरों सेे मिलने वाली सांस्कृतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करने हेतु अनुदान देने के लिए बाध्य कर सकता है। साथ ही हमारे मंदिरों से राजस्व के नाम पर ‘कर’ लेकर उसे अन्य सम्प्रदायों के धर्मस्थलों पर व्यय करने की सरकारी नीति पर भी इससे प्रतिबंध लगेगा। हमने ‘स्वामी श्रद्घानंद’ और ‘पंडित मदन मोहन मालवीय’ बनाने छोड़ दिये, उन्हें उठाया और इतिहास की ‘वधशाला’ में फांसी पर लटका दिया। जबकि हमें उन्हें मैदान में लाकर ‘गुरूकुल कांगड़ी’ और ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ की पौध तैयार करनी चाहिए थी।
स्वामी श्रद्घानंद जी महाराज संस्कृत और हिंदी के प्रति कितने जागरूक थे-इसका पता उनके इस प्रसंग से चलता है जो कि उनके द्वारा अब से सौ वर्ष पूर्व 1913 में भागलपुर में दिये गये भाषण से लिया गया है। वह कहते हैं-’मैं सन 1911 में दिल्ली के शाही दरबार में सदधर्म प्रचारक का संपादक होने के अधिकार से सम्मिलित हुआ था। मैंने प्रैस कैंप में ही डेरा डाला। मद्रास के एक मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से एक दिन मेरी बातचीत हुई। उन सज्जन का आग्रह था कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती है। अंग्रेजी ने ही इंडियन नेशनल कांग्रेस को संभव बनाया है, इसलिए उसी को राष्ट्रभाषा बनना चाहिए। जब मैंने संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री आर्यभाषा हिंदी का नाम लिया तो उन्होंने मेरी समझ पर हैरानी प्रकट की। उन्होंने कहा कि कौन शिक्षित पुरूष आपकी बात मानेगा?
दूसरे दिन वे संपादक महोदय अपने कहार को भंगी समझकर अपनी अंग्रेजी नुमा तमिल में उसे सफाई करने की आज्ञा दे रहे थे। कहार कभी लोटा लाता, कभी उनकी धोती की ओर दौड़ता। उसकी समझ में कुछ नही आ रहा था। मिस्टर एडीटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गुजरा। वे भागते हुए मेरे पास आये और बोले-हे मूर्ख यह मेरी बात नही समझता। इसे समझा दीजिए कि जल्दी से शौचालय साफ कर दें। मैंने हंसकर कहा-अपनी प्यारी राष्ट्रभाषा में ही समझाइए, इस पर वे लज्जित हुए। मैंने कहार को मेहतर बुलाने के लिए भेजा किंतु एडीटर महोदय ने इसके पश्चात मुझसे आंख नही मिलाई।
भागलपुर आते हुए मैं लखनऊ रूका था। वहां श्रीमान जेम्स मैस्टन के यहां मेरी डा. फिशर से भेंट हुई थी। वे बड़े प्रसिद्घ शिक्षाविद और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं, भारतवर्ष में पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य बनकर आये हैं, उन्होंने कहा कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थियों को पढ़ाया है। वे कठिन से कठिन विषय में भी अंग्रेज विद्यार्थियों का मुकाबला कर सकते हैं परंतु स्वतंत्र विचार शक्ति उनमें नही है। उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा कि यदि आप मेरे साथ गुरूकुल चलें तो इसका कारण प्रत्यक्ष दिखा सकता हूं, कहने से क्या लाभ? जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नही होगी तब तक इस अभागे देश के छात्रों में स्वतंत्र और मौलिक चिंतन की शक्ति कैसे पैदा होगी?’
स्वामी श्रद्घानंद और पं. मदनमोहन मालवीय ने राष्ट्र सेवा का एक एक पौधा लगाया कालांतर में उन पौधों ने बड़े बड़े मीठे फल हमें दिये पर हमने इस परंपरा को आगे नही बढ़ाया। हम मुस्लिम मदरसों या ईसाई चर्चों की बढ़ती संख्या पर तो चिंता व्यक्त करते हैं परंतु कभी यह नही सोचा कि इस समस्या की चिकित्सा तो हमारे दो महामानव एक शताब्दी पूर्व ही करके गये थे, हमने उस चिकित्सा का लाभ क्यों नही उठाया?
हमारे मंदिरों में तो बहुत से सुलफेबाजों, नशेड़ियों और भंगेड़ियों का कब्जा हमें हो गया है, उनकी योग्यता केवल इतनी ही होनी चाहिए कि वे कितनी देर एक चिलम के नशे में रह सकते हैं? जब धर्म ही भांग पीकर सो जाएगा तो देश को कौन धारण करेगा, और कौन राष्ट्र का नेतृत्व करेगा? हमारे मंदिर तो संस्कृति रक्षक के रूप में स्थापित किये गये थे। इन का धन धन नही होता था अपितु लक्ष्मी (राष्ट्रोन्नति के लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक होने के कारण) और उससे भी बढ़कर श्री (सारे विश्व को आश्रय=आर्य बनाकर देने वाला होने के कारण) होता था। आज हमें ‘हिंदी दिवस’ को भी ‘संस्कृति दिवस’ के रूप में महिमामंडित करने और तदानुसार उसका गौरव बढ़ाने का संकल्प लेने की आवश्यकता है। इसलिए इस दिवस को भी हिंदी दिवस ना कहकर ‘संस्कृति दिवस’ कहा जाए। हिंदी दिवस तो संस्कृति दिवस से कहीं छोटा है।