प्रो लल्लन प्रसाद
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इसके विधाता निर्माता, सलाहकार सब कुछ आचार्य कौटिल्य थे। राज्य को उन्होंने एक सशक्त प्रशासनिक ढांचा दिया, विभागध्यक्षों में स्पष्ट कार्य विभाजन किया, उनकी कार्यशैली, आपसी सहयोग के नियम, उनके कामों के निरीक्षण की प्रणाली, उनको प्रोत्साहन तथा दण्ड के कानूनी प्रावधान आदि प्रबन्ध व्यवस्था के मूल सिद्धान्तों जिनके वे स्वंय भी जनक थे, के अनुरूप बनाया। उन्होंने लिखित राजाज्ञा को शासन की संज्ञा दी। राजा का आदेश अच्छी तरह सुनकर पूर्व प्रसंगों को दृष्टि में रखकर स्पष्ट अभिप्राय प्रकट करने वाली राजाज्ञा लिखी जाय। राजाज्ञा का लेखक इस काम के योग्य हों, आचार विचार का ज्ञाता एवं शीघ्र सुन्दर वाक्य योजना में निपुण हो। सभी अधिकारी राजाज्ञा का पालन करें। उनके अनुसार निर्णय लें। केवल आपात् स्थितियों में स्वयं निर्णय लें।
कौटिल्य लिखते हैं कि अधिकारियों की नियुक्ति योग्यता एंव कार्यक्षमता के आधार पर हो। समय समय पर उनके कार्यो का निरीक्षण और मूल्याकंन हों क्योंकि मनुष्य की चित्तवृत्ति एक सी नहीं रहती। पद पर काम करते हुए उसमें बदलाव आ सकते हैं। शान्त दिखाई देने वाला व्यक्ति भी उदण्ड हो सकता है। राजा को सभी उच्चाधिकारियों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिये। अधिकारियों के लिए अर्थशास्त्र में कहा गया है कि वे राजा के उनदेश्यनुसार एक दूसरे से द्वेष् न करते हुए अलग अलग रहकर अपना काम करें। अधिक व्यक्तिगत मेल मिलाप से राज्य के हितों की अनके अनदेखी हो सकती है। अधिकारी अपने अधीनस्थ संख्यानक यानी स्टेटिस्टीशियन, लेखक यानी क्लर्क, रूपदर्शक यानी मुद्राओं, कीमती चीजों के पारखी, नीवीग्राहक यानी स्टाकिस्ट और उत्तराध्यक्ष यानी सुपरिटेंडेंट के सहयोग से आफिस चलाये। उत्तराध्यक्ष आज्ञाकारी, कुशल औऱ सदाचरणशील कार्यकर्ता हो जो कर्मचारियों पर निगरानी रखें।
अधिकारी अपना काम ईमानदारी एवं निष्ठा पूर्वक करें। पदासीन होने पर पद और अधिकार का गर्व उन्हें उदण्ड बना सकता है। सरकारी धन के दुरुप्रयोग के लिए प्रेरित कर सकता है। चाणक्य ने इस बात को बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। वे लिखते हैं कि आकाश में उडऩे वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किन्तु धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधियों से पार पाना कठिन है। प्रशासनिक कुशलता और ईमानदारी, समय पर काम सम्पन्न करने की क्षमता, सरकारी धन का सदुपयोग और जनता के हित में काम की प्रवृत्ति जैसे मानदण्डों पर अधिकार का मूल्यांकन और उनके आधार पर सम्मान, पुरस्कार, पदोन्नति, दण्ड और पदच्युक्त करने का विशद विवरण अर्थशास्त्र में मिलता है। भ्रष्टाचार, सरकारी धन के गबन, अपहरण, जनता का शोषण करके सरकारी खजाने को बढ़ाने आय व्यय का व्यौरा ठीक से न देने और गड़बड़ी आदि के से कठोर दण्ड की व्यवस्था भी अर्थशास्त्र में है।
उच्चधिकारियों को अपने विभाग से सम्बान्धित सभी कार्यों की जानकारी हो और वे उसे सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकें, इसके लिये विभागों की स्थापना और विभागध्यक्षों की जिम्मेदारी और जबाबदेही विस्तार से अर्थशास्त्र में दी गई है आर्थिक प्रशासन से सम्बन्धित विभाग के सर्वोच्च अधिकारी को अध्यक्ष की संज्ञा दी गई है जैसे सीताध्यक्ष, सूताध्यक्ष, पण्याध्यक्ष आदि। कुछ विभागों के अध्यक्षों का नामकरण उस काम से है। जैसे समाहर्ता आय-व्यय देखने वाले को कहते हैं तो सन्निधाता सरकारी कोष के संरक्षक को। आदि विभागों और अधिकारियों की संख्या चाणक्य के अपने समय की आवश्यकतानुसार थी। आज सरकारी विभागों की संख्या तबसे कही अधिक है जो प्रशासन की आज की आवश्यकतानुसार है।
सीताध्यक्ष — अन्न,फल,फूल, सब्जियों, जूट, कपास आदि के बीजों का संग्रह एवं जोताई बोवाई करवाना। भूमि का ग्रणवत्ता और मौसम के अनुसार खेती करवाना, बीज, खाद, कृषि उपकरणों को उपलब्ध कराना, सिंचाई की व्यवस्था कराना। खेतिहर श्रमिकों के उचित पारिश्रमिक एवं उत्पादन के बाद भण्डारण की व्यवस्था करना जो किसान सिचाई के साधन स्वयं विकसित करें। नहरें तालाब व कुएं खुदवाना आदि, उन्हें सहायता एवं प्रोत्साहन देना आदि।
सूत्राध्यक्ष — कपास, ऊन, रेशम, आदि की कताई बुनाई के लिये नियुक्तियां करना। स्त्रियों, विधवाओं सन्यासियों, वेश्याओं और अपंगों की विशेष ध्यान रखना, सूत की एकरस मोटाई और मध्यमता के आधार पर मजदूरी तय करना। स्त्रियों के साथ काम पर किसी तरह का अनैतिक व्यवहार करने वाले को कड़ी सजा दिलवाना वेतन लेकर भी काम ठीक से न करने वाले को दण्डित कराना आदि।
सुवर्णाध्यक्ष — सोने चांदी मोती माणिक आदि से आभूषण एवं अन्य सामानों के निर्माण का प्रबन्ध, इसके लिए अक्षशाला का निर्माण कराना, कारीगरों और कर्मचारियो की नियुक्ति और उनका प्रबन्ध। खान से निकले सोने के शुद्ध कराना, कसौटी पर जांच करवाना, कीमती वस्तुओं के रख रखाव और सुरक्षा। अक्षशाला में काम करने वालों पर निगरानी मिलाकर, चोरी गबन आदि करने वालों को सजा दिलाना आदि।
कुप्याध्यक्ष — जंगल से लकड़ी कटवाने गुणवत्ता के हिसाब से लकड़ी का वर्गीकरण करवाना। उनसे उपयोगी सामान बनवाना, जंगल से प्राप्त अन्य सामाग्रियों और औषधियों चमड़े, हाथी के दांत आदि का संग्रह कराना आदि।
आकराध्यक्ष — मिट्टी की गंध, रंग, रूप, चमक जलधाराओं के रंग के आधार पर जाँच कराना। विशेषज्ञों की मदद से खनिज पदार्थो की खोज कराना, खदानों से निकलवाना, शुद्ध कराने नाप तौल की व्यवस्था कराना, बिक्री की व्यवस्था कराना, शंख, बज्र, मणि, मुक्ता आदि सभी तरह के क्षारों की उत्पत्ति और बिक्री, नमक के निर्माण और बिक्री आदि का भी प्रबन्ध कराना, धातुएं चोरी करने वालों को दण्डित कराना आदि ही इसके काम हैं।
पण्याध्यक्ष — देश में निर्मित और विदेशों से आयातित वस्तुओं के विक्रय का ऐसा प्रबन्ध करना जो जनता के हित में हो। इसके लिये कीमतों और मुनाफाखोरी पर नियन्त्रण, राजकीय वस्तुओं को बेचने वाले व्यापारियों से नियमित रूप से हिसाब ले, बाहर से, जलमार्ग से आने वाले माल पर हुए खर्चों को ध्यान में रखकर कर लगाये, आवश्यक हो तो कर में छूट दे। ठेके देने में राज्य के हित को ध्यान रखें। व्यापार वृद्धि के लिये जन सम्पर्क पर भी ध्यान दें।
पौतवाध्यक्ष — शास्त्रोक्त विधि से तराजू बटखरे, अन्न और तरल पदार्थों के नाप के बर्तन बनवाये। उनकी बिक्री और व्यापारियों द्वारा सही उपयोग सुनिश्चित कराये। बिना सरकारी मुहर के अनधिकृत माप तौल के साधनों के उपयोग करने वालों को दण्डित कराए, तुला, बाट और बर्तनों का नियमित रूप से निरीक्षण करवाने की व्यवस्था करे, परीक्षण शुल्क इस्तेमाल करने वालो से ले।
कोष्ठागाराध्यक्ष — अन्न, घी, तेल, गुड़, समुद्री एवं सेधा नमक, शहद, फल, सब्जी, मसाले आदि के भण्डारण, नाप तौल, गुणवत्ता की जांच करने, पीसने पकाने आदि की व्यवस्था करना। कर्मचारियों, रसोइयों, पशुओं, पक्षियों के खाने की व्यवस्था, भोजनालय में आने वाली वस्तुओं की तालिका, भण्डारण और सुरक्षा की प्रबन्ध करना आदि।
गोस्ध्यक्ष — दूध देने वाली गायों, भैंसों के पालन दोहन, संरक्षण का प्रबन्ध, चरागाहों की व्यवस्था, सांड़ों,बैलों और बछडों की देख रेख, जानवरों को दागने और चिन्हित करने, उनका विवरण रखने, जानवरों के व्यापार करने वालों से कर वसूल करने, गोवध करने वाले को मृत्यु दण्ड दिलाने की व्यवस्था करने आदि की जिम्मेदारी इनकी होती है।
नावध्यक्ष — इनकी जिम्मेदारी है समुद्र और तटवर्ती नदियों के नौका मार्गों, झीलों, तालाबों और गांव के मार्गों का रखरखाव एवं निगरानी जल चुंगी पर आयी नौकाओं से कर वसूलना, बिना अनुमति के बाहर से आए नावों पर रोक लगाना, बाढ़ के दिनों के लिए विशेष नौकाओं का प्रबन्ध कराना, तूफान में फंसे नौकाओं को बचाना आदि।
सुराध्यक्ष — शराब बनवाना, सरकारी मदिरालयों के निर्माण, रख-रखाव, साज-सज्जा का प्रबन्ध कराना शराब की बिक्री का ठेका देना, अनधिकृत विक्रेताओं को दण्डित करना, विवाह-शादी और उत्सवों में शराब पीने का अनुमति पत्र जारी करना, सार्वजनिक जगहों पर पीने वालों को दंडित करना आदि इसके उत्तरदायित्व हैं।
समाहर्ता — सरकार की आय के सभी स्रोतों, दुर्ग, चुंगी, जुर्माना, आबकारी, कपड़े आदि, राष्ट्र यानी खेती, उपहार, व्यापार कर, जल-थल मार्गों के कर आदि, खनि यानी लोहा, तांबा, सोना चांदी, हीरा मोती आदि, सेतु यानी फूल, फल, मसाले आदि, बन यानी लकड़ी, हाथी के दांत, वन्य पशु, ब्रज यानी गाय, बकरी, भैंस, घोड़े, ऊंट, गधे आदि एवं वणिक्पथ यानी स्थल और जल व्यापार मार्गों से होने वाली आय और व्यय के सभी स्रोतों – धार्मिक कृत्य, अन्त:पुर, कोष्ठागार, अस्त्रागार, कृषि, पशु-पक्षियों, पैदल, हाथी, घोड़ा और रथ सेना राजा और राज्य । पर होने वाले खर्चों का प्रबन्ध करे।
सन्निधाता — कोषाध्यक्ष पर कोषगृह या खजाना, पण्यगृह यानी राजकीय बिक्री स्थलों, कोष्ठागार यानी भण्डारगृह, कुप्यगृह यानी अन्नागार, शास्त्रागार एवं कारागार के निर्माण की जिम्मेदारी होती है। निर्माण कार्य में विशेषज्ञों की राय और सही गुणवत्ता की सामग्री के उपयोग का उत्तरदायित्व भी उसे ही वहन करना पड़ता है। कोषाध्यक्ष के बारे में अर्थशास्त्र में कहा गया है – उसे जनपद और नगरों से होने वाली आय का अच्छा ज्ञान होना चाहिये। यदि सौ वर्ष पीछे का भी लेखा जोखा मांगा जाय तो तुरन्त दे सके, सभी स्रोतों से आयी रकम नियमित रूप से कोष में दिखाये।
शुल्काध्यक्ष — चुंगी का निर्माण, व्यापारियों से चुंगी योग्य माल का पूरा विवरण लेना, निर्धारित दर पर चुंगी वसूल करना, बिना चुंगी माल ले जाने वाले पर माल की दो गुनी कीमत दण्ड के रूप में वसूलना, विदेश से आने वाले माल पर शुल्क लेना, आवश्यक वस्तुओं पर कम और विलासिता की वस्तुओं पर अधिक चुंगी वसूलना करना।
लक्षणाध्यक्ष — सिक्के ढलवाने की जिम्मेदारी ढकसाल के अध्यक्ष की होती है। चार तरह के चांदी के सिक्के पर्ण अद्र्धपण, पादपण तथा अष्टभाग पण का विवरण, उसमें लगाने वाली धातुओं की मात्रा, बनाने की विधि आदि की जानकारी अर्थशास्त्र में दी गई है 16 माप का एक पण होता है। सिक्के में लगभग तीन चौथाई चांदी बाकी अन्य धातुएं लोहा, तांबा आदि होना चाहिये। कौन-सा सिक्का चलन में हो और कौन-सा खजाने में, इसका निर्णय विशेषज्ञों की राय से किया जाना चाहिये।
अक्षपटलाध्यक्ष — एकाउंट्स आफिस का निर्माण, खेती, कारखानों, खदानों आदि के उत्पादन का ब्यौरा, कर्मचारियों की नियुक्ति, उनके वेतन का हिसाब, सरकारी अनुदान से चलने वाली संस्थाओं, राजपरिवार पर होने वाले खर्चों आदि का व्यवस्थित ढंग से हिसाब-किताब रखना, जांच कराना, गड़बड़ी करने वाले कर्णिक यानी क्लर्क और अधिकारियों को दण्डित करने, उनसे हानि की क्षतिपूर्ति कराने की जिम्मेदारी अक्षपटलाध्यक्ष की होती है।
उपयुक्त विभागों के अध्यक्षों के अतिरिक्त कुछ और आर्थिक विभागाध्यक्षों की जिम्मेदारियों का विवरण भी अर्थशास्त्र में मिलता है। जिनमें प्रमुख है: अश्वाध्यक्ष, हस्त्याध्यक्ष एवं मुद्राध्यक्ष यानी राजकीय मुहर का अधिकारी। आर्थिक विभागों के अतिरिक्त सेना के विभिन्न विभागों के अध्यक्षों, गुप्तचार विभाग और न्यायपालिका से सम्बन्धित अधिकारियों का विशद विवरण भी अर्थशास्त्र में है।
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