ये आचरण लाते हैं

रोग-शोक और दरिद्रता

– डॉ. दीपक आचार्य

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समाज में पिछले कुछ वर्ष से पारिवारिक, सामाजिक और क्षेत्रीय समस्याओं का प्रसार तेजी से हुआ है और इसने आम आदमी की जिन्दगी में दखल डालते हुए सुकून से जीवनयापन की संभावनाओं को धूमिल कर दिया है। खूब सारे ऎसे लोग हैं जिनके लिए घर-परिवार की समस्याओं और परिवेशीय कुप्रभावों ने जीना मुश्किल कर दिया है।

बहुत बड़ी संख्या में लोग ऎसे हैं जिनके पास सब कुछ है पर जीवन का आनंद नहीं है, बीमारियों ने घेर रखा है, अंधियारों से घिर गए हैं या फिर अपने आपसे, अपने लोगों से और जिन्दगी, सभी से परेशान हैं। इन तमाम समस्याओं के कारणों की ईमानदारी से तलाश की जाए तो इसके मूल में और कोई नहीं, हम ही हैं जिनकी अनियमित, उच्छृंखल और उन्मुक्त जीवन शैली ने सारी जिन्दगी का कबाड़ा ही कर दिया है और हम जैसे-तैसे जीने का दंभ पाले हुए हैं।

बाहर से हम सभी लोग कितने ही मस्त, मुस्कान भरे और स्वस्थ भले ही दिखें, हममें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी इंसान किसी न किसी मानसिक या शारीरिक बीमारी, समस्या और जीवन की कठिनाइयों से परेशान जरूर हैं। दिखावे भर के लिए हम अपने चेहरे को कैसा ही सुन्दर और मुस्कुराता हुआ रखें, मगर अंदर की हकीकत तो यही है। रोजाना कितने ही फेसपैक लगाएं, ब्यूटी पॉर्लरों में घण्टों बैठे रहकर चेहरे का आकर्षण बहुगुणित करते रहें, सूरज की पावन रोशनी से अपने आपको बचाने के लिए चेहरे, हाथों और माथे पर कपड़ों के कितने ही अस्तर लगाए चलें, और सब कुछ कर लें जो चेहरे से लेकर बालों और शरीर के सौंदर्य को वाहवाही पाने लायक बना डालता है।

मगर इन सबके बावजूद इस हकीकत को कोई झुठला नहीं सकता कि हम आडम्बरपूर्ण जीवन जी रहे हैं और भीतर ही भीतर कितने भय-विषाद ग्रस्त हैं, किसी न किसी रोग के मारे परेशान हैं, कइयों के लिए इंजेक्शन और दवाइयों का साथ हमेशा के लिए हो चला है, और हमारे सामने कोई न कोई समस्या हमेशा स्वागत के लिए तैयार खड़ी रहती ही है।

अपनी सारी परेशानियों को सूचीबद्ध कर किसी दिन गंभीरता से गौर फरमाएं, तो हमें इस सत्य का साफ पता चल जाएगा कि हमारी इन सभी प्रकार की समस्याओं के लिए कोई और नहीं, बल्कि हम ही जिम्मेदार हैं। हमारी जिन्दगी में जिन आचरणों का हमें पालन करना चाहिए उन आचरणों को भूल गए हैं और वास्तव में यही हमारे दुःखों और सारी समस्याओं का निदान है।

हमें दिन की शुरूआत सूर्योदय से पूर्व अर्थात प्रातः 4 से 5 बजे के बीच उठकर करनी चाहिए ताकि उस समय का पूर्ण शांत माहौल, दिव्य ऊर्जामय हवाओं का संचरण तथा उषाकाल का ताजगी भरा परिवेश हमारी सारी व्याधियों का शमन कर सके। आम तौर पर हमारा शरीर रात 3 बजे बाद भले ही सोया पड़ा रहे मगर मस्तिष्क जागृत हो जाता है और जब उसे शरीर सुप्त पड़ा मिलता है तब मस्तिष्क सूक्ष्म रूप में दुनिया-ब्रह्माण्ड के चक्कर काटता रहता है। यही कारण है कि हमें इसी काल में स्वप्न ज्यादा आते हैं।

वे सारे लोग धार्मिक या सदाचारी नहीं कहे जा सकते जो सूर्योदय के वक्त सोये पड़े रहते हैं। जिन लोगों की रात्रिकालीन ड्यूटी है उन लोगों को छोड़कर जो भी सूर्योदय के बाद तक सोये रहते हैं उनके जीवन में दरिद्रता, रोग, आकस्मिक भय-संकट और अनिष्ट के साथ ही असमय शोक की स्थितियां आना आम बात है। रात दस बजे तक हर हाल में शयन हो जाना चाहिए लेकिन अधिकांश लोग टीवी, कम्प्यूटर, पार्टियों, डेरों, पेढ़ियों से लेकर गप्प स्थलों पर जमे रहकर या मनोरंजन का आनंद लेते हुए  देर रात यों ही निकाल देते हैं। ऎसे लोगों का शरीर बिगड़ेगा ही, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

इसी प्रकार दिनचर्या का जो निर्धारित क्रम है उसका उल्लंघन करने वाले लोगों के साथ भी यही होता है और ऎसे लोगों का पूरा जीवन संस्कारहीनता से भरा हुआ तथा भार स्वरूप ही बनकर रह जाता है। नियमित रूप से शौचादि के उपरान्त स्नान-ध्यान करने के बाद ही सांसारिक कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए लेकिन आजकल अधिकांश लोगों की स्थिति यह है कि इनके लिए सांसारिक काम और फालतू के काम प्राथमिकता पर होते हैं और ऎसे लोग स्नान जैसा नित्यकर्म भी काफी समय बीत जाने के बाद करते हैं। जबकि स्पष्ट कहा गया है – सहस्रं स्नानमाचरेत। अर्थात हर मनुष्य के लिए हजार काम छोड़कर पहले स्नान को प्राथमिकता देनी चाहिए।

खासकर जो गृहिणियां बिना नहाए खाना, नाश्ता और खान-पान सामग्री बनाती हैं उनके हाथ का खाने से निश्चित ही आलस्य आएगा। इसी प्रकार अधिकांशतया बच्चे बिना नहाये स्कूल चले जाते हैं, नाश्ता और खाना खा लेते हैं, ऎसे बच्चों के शरीर पर रात्रिकालीन आलस्य का साया तो होता ही है, दिन भर आलस्य की परतें आभामण्डल पर और चढ़ती जाती हैं। विद्या पाने के लिए पवित्रता जरूरी है और जहाँ यह नहीं होगी वहाँ किताबी ज्ञान तो आ जाएगा, असली ज्ञान कभी नहीं। ऎसे में इन बच्चों से विद्या पाने की अपेक्षा करना कितना उचित है? यही स्थिति हमारी रोजमर्रा की दिनचर्या पर है।

नित्यकर्म और जीवन निर्वाह का जो क्रम बना हुआ है उससे बंधे रहने वाले लोग ही जीवन में अनुशासित और संस्कारित रहकर कुछ कर पाते हैं। जो लोग ऎसा नहीं कर पाते हैं वे चाहे कितनी धन-दौलत और ऎश्वर्य पा लें, अपने जीवन में आरोग्य, सुख और शांति कदापि प्राप्त नहीं कर सकते। हम स्वयं इस आत्म अनुशासन को अपनाएं तभी हमारी आने वाली पीढ़ी भी अपनाएगी अन्यथा घर-परिवार और समाज का वर्तमान और भावी दिशाहीनता के उस दौर में पहुंचने वाला है जहाँ से उसे बाहर निकाल पाना किसी के बस में नहीं होगा।

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