राकेश कुमार आर्य
वेद का पुरूष सूक्त बड़ा ही आनंददायक है। वहां क्षर पुरूष प्रकृति जो कि नाशवान है, अक्षर पुरूष-जीव, जिसकी जीवन लीला प्रकृति पर निर्भर है, और जो इसका भोक्ता है, और अव्यय पुरूष पुरूषोत्तम-ईश्वर के परस्पर संबंध का मनोहारी वर्णन है। इसी वर्णन में कहीं राष्ट्र का ‘बीज तत्व’ छिपा है।वेद का ऋषि क्षर पुरूष को भूमि, अक्षर पुरूष को दशांगुल (पंचप्राण+मन+बुद्घि+चित्त +अहंकार+जीव) तथा अव्यय पुरूष को सहस्र शीर्षाक्षपाद कहता है। डा. कुसुमलता आर्या ने इस पुरूष सूक्त की व्याख्या करते हुए कहा है-
‘अपाणिपाद अव्यय पुरूष को यहां जो शीर्ष, अक्ष, बाहु, आदि से युक्त बताया गया है, उसका अभिप्राय ये है कि सृष्टि की प्रवृत्ति हेतु अव्यय पुरूष अनंत ज्ञान, अनंत ईक्षण, अनंत बल और अनंत क्रियावान हो जाता है।
राष्ट्रपुरूष भी तब सहस्र शीर्षाक्ष बाहुरूपाद बन जाएगा कि जब राष्ट्र का शीर्ष संन्यासी, अक्ष-ब्राह्मण, बाहु क्षत्रिय उरू-वैश्य तथा पाद शूद्र राष्ट्रपुरूष के अवयव बनकर कार्य करेंगे। तब सहस्रशीर्षाक्षबाहुरूपाद राष्ट्रपुरूष राष्ट्रभूमि को सब ओर से घेरकर दशांगुलम कर्म और कर्मफल का अतिक्रमण करके अनासक्त भाव से नारायण पद पर अवस्थित होगा।
राष्ट्र का अद्भुत चित्रण
इस प्रकार ऋग्वेद का पुरूष सूक्त राष्ट्र का एक अति उत्तम चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। इस सूक्त के अगले मंत्रों में बताया गया है कि कैसे इस सृष्टि का प्रारंभ यज्ञ से होता है और यज्ञ से ही वह कैसे आगे बढ़ती है? यज्ञ के प्रारंभ करने से पूर्व हम घर में यज्ञ की सारी सामग्री एकत्र कर लेते हैं। वैसे ही सृष्टि यज्ञ प्रारंभ होने से पूर्व सृष्टि संचालन की सारी सामग्री यथा पर्वत, नदी, पानी, हरियाली इत्यादि हमारे कल्याणार्थ उस अव्यय पुरूष पुरूषोत्तम ईशान ईश्वर ने एकत्र की। मानो, इस सामग्री के एकत्र होते ही सृष्टि यज्ञ प्रारंभ हो गया। यहां कोई स्वार्थ नही है, अपितु केवल परमार्थ है। परकल्याण के लिए सब मंगलगान कर रहे हैं।
ओ३म् की वह मधुर ध्वनि
इसी समय एक मधुर ध्वनि (ओ३म् की) चारों ओर गूंजती है। सारा वातावरण संगीत से भर जाता है। तनिक ध्यान दें कि हर संप्रदाय और संसार के वैज्ञानिक सृष्टि प्रारंभ में एक ध्वनि के उत्पन्न होकर प्रसरण की बात कहते हैं। वह ध्वनि ओ३म् की ध्वनि थी। इसी ध्वनि को एक साधक भोर में शंख के माध्यम से गुंजित करता है। हमें बताता है कि प्रात:काल के यज्ञ का समय हो गया है, खड़े हो जाओ। इसी को एक मौलवी अजान के माध्यम से अपने अनुयायियों को बताता है, जिसे वह तो नही जानता पर वह न जाना हुआ सबको बताता है कि भोर हो गयी है। इस प्रकार हर जगह एक ही बात को दोहराया जा रहा है। सृष्टि प्रारंभ में जब सृष्टि यज्ञ आरंभ हुआ तो वायव्य, आरण्य और ग्राम्य पशुओं का निर्माण होने लगा।
सभी प्राणी एक दूसरे के सहयोगी हैं, प्रतियोगी नही
सूक्त का दसवां मंत्र हमें बताता है कि पुरूष-पशु के अन्य सहयोगी ग्राम्य पशुओं-अश्व, गौ, अजा, अवि को उत्पन्न किया। यहां स्पष्ट है कि अन्य पशुओं को मनुष्य का सहयोगी कहा गया है, ना कि प्रतियोगी। सहयोगी भावना से ही यज्ञ पूर्ण होता है। अत: सहयोगी भावना ही समाज और राष्ट्र का मूलाधार है प्रतिस्पद्र्घा नही इसलिए पश्चिम का यह चिंतन अज्ञानता का परिचायक है कि अस्तित्व के लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष कर रहा है। यह दृष्टि कोण का अंतर है। उन्होंने सृष्टि यज्ञ की परोपकारमयी भावना का चिंतन तक नही किया, इसलिए वह संघर्ष की बात करते हैं और संघर्ष को ही उन्होंने अपना लिया है। इसलिए वह जी नही रहे हैं, अपितु जीते हुए मर रहे हैं।
उन्हें सदा ही भय, अशांति, असुरक्षा का तनाव घेरे रहता है, वहां हर व्यक्ति अपने आप में अकेला है। जबकि भारत ने हर व्यक्ति को एक संस्था बनाने का संकल्प लिया, हर व्यक्ति को एक राष्ट्र बना दिया। उससे कह दिया कि सृष्टि का प्रत्येक प्राणी तेरा सहयोगी है, इसलिए उनसे प्रेम कर और उन्हें अपना मित्र बना। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे-वेद का कहना है कि प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र बनाकर, समझ कर देख। यही कारण रहा कि भारत में पशु हिंसा निषेध की बात कही गयी। हमने सृष्टि प्रारंभ में ही इस तथ्य को समझा कि प्रकृति के संतुलन को व्यवस्थित बनाये रखना है, उसे बिगाडऩा नही है। इस भावना से राष्ट्र उन्नत बनता है। वैश्विक शांति आती है। अब विज्ञान भी वेद के इस चिंतन के सामने नतमस्तक हो रहा है और कह रहा है कि विश्व में प्राकृतिक आपदाएं इसलिए आ रही हैं कि मनुष्य समाज हिंसक हो उठा है। उसने अन्य प्राणियों को विनाश करके भारी गलती की है।
समाज राष्ट्र का चित्रण
पुरूषसूक्त का 12वां मंत्र है-
ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
उरू तदस्य यदवैश्य: पदभ्यां शूद्रो अजायत्।
यहां समाज राष्ट्र का चित्रण है कि इसके अवयव क्या होंगे? सहयोग की भावना का अत्यंत उत्तम चित्रण करते हुए ऋषि कहता है की मुखवत कार्य करने वाला व्यक्ति समाज में ब्राह्मण, भुजाओं की भांति कार्य करने वाला क्षत्रिय, जंघा सदृश कार्य करने वाला वैश्य तथा पैरों की भांति कार्य करने वाला शूद्र होगा। तनिक इस सुंदर समायोजन पर विचार करें। यहां किसी वर्ग विशेष को ब्राह्मण या शूद्र नही कहा गया है। यहां कहा गया है कि मुखवत कार्य करने वाला व्यक्ति ब्राह्मण है। मुख सारी ज्ञानेन्द्रियों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, और ईश्वर की पवित्र व्यवस्था भी देखिए कि वह सारी ज्ञानेन्द्रियों के बीच में रखा गया है। मानो सारे ऋषि मंत्रीगण उसके पास ही उपस्थित हैं। जब यह मुख देववाणी का उच्चारण करता है तो इसे हम मुखारविंद कहते हैं। संस्कृत इसलिए देववाणी है, क्योंकि उसमें एक भी अपशब्द नही है। किसी के मुख से अपशब्द आते ही वह अपने ब्राह्मणत्व से पतित हो जाता है इसलिए ब्राह्मण वह है जो पतित नही है, निश्छल है, निभ्र्रान्त है, शांत है और ऊध्र्वगामी है, ऊध्र्वरेता (ब्रह्मचर्य से वीर्य को ऊपर चढ़ा लेने वाला है) ऐसा ब्राह्मण समाज का प्रवक्ता (मुख) बन जाता है। राष्ट्र ऐसे प्रवक्ता, वक्ता, प्रचेता और प्रणेताओं से ही महान बनता है। ऐसा महापुरूष अपने पैरों का सेवक होता है, शूद्रों का कल्याणकारक होता है, उनका स्वामी नही। जैसे राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रथम पुरूष होकर भी सबसे बड़ा सेवक होता है, वैसे ही ब्राह्मण भी सारी भूमि को क्षत्रिय को देकर सारी प्रजा में सुख शांति देखता फिरता है कि कहीं अन्याय आदि तो नही हो रहे हैं। वह राष्ट्र को अपने उपदेशों से, आदेशों से, निर्देशों से सदा जगाता रहता है सावधान करता रहता है कि अन्याय या अत्याचार मत करना, अन्यथा अनिष्ट हो जाएगा। पाप हो जाएगा। छोटी सी चींटी को भी मत मारना, अन्यथा पाप हो जाएगा, क्योंकि उसकी चीख भी वातावरण को विषाक्त बनाएगी। इसके उपरांत भी यदि कहीं से कोई अन्याय या अत्याचार की बात आती थी, तो वह ब्राह्मण राष्ट्र के क्षत्रिय को, शासक को जगाता था और उसका शक्ति से दमन कराता था।
शूद्र की सम्मान जनक स्थिति
शूद्र पैर है तो इसका कोई अन्यथा अर्थ नही लेना चाहिए। जैसे सरकारी नौकरियों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी होते हैं, उनसे भी पवित्र स्थिति पैर की है। जब हम प्राणायाम् मंत्र का जाप करते हैं तो उस समय ओ३म् तप: कहकर जंघाओं का अथवा पैरों का स्पर्श किया जाता है। इसका अभिप्राय है कि तप हमारे पैरों में है। जिसके लिए हम कहते हैं कि हे ईश्वर हमें तपस्वी बना। मेरे पैर कहीं किसी गलत रास्ते पर ना जाएं। बात पैरों की हो रही है, और बोल रहा है मुख। इसी प्रकार शूद्रों के कल्याणार्थ ब्राह्मण साधनारत रहता है। इससे सुंदर राष्ट्र निर्माण की व्यवस्था संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है कि साधना मैं करूं और फल आपको मिले।
16 कलाओं से राष्ट्र निर्माण
वैदिक संध्या में वाक:वाक (2) प्राण:-प्राण: (4) चक्षु:-चक्षु: (6) श्रोत्रम्-श्रोत्रम् (8) नाभि: (9) हृदय: (10) कण्ठ : (11) शिर: (12) दोनों भुजाएं (14) दोनों हाथ (16) ये 16 कलाएं आती हैं। शरीर के ये अंग तब अंग ही कहे जाएंगे, जब इनको उत्कृष्टता में न ढ़ालकर निकृष्टता में पहुंचा दिया जाए। इनकी उत्कृष्टावस्था ही कला है, उन्नति है। इनका कहीं भी किसी भी प्रकार दुरूपयोग न करना ही उत्तमावस्था है। ऐसी सोच का व्यक्ति ही राष्ट्र का लघु रूप है। कृष्ण ने अपनी 16 कलाओं का प्रदर्शन किया अपने विशाल स्वरूप का अर्थात पुरूष के विशाल स्वरूप का प्रदर्शन किया तो राष्ट्र का वास्तविक रहस्य अर्जुन को समझ आ गया। इन्हीं 16 कलाओं की भांति ही हमारे उन्नत जीवन के लिए 16 संस्कार बनाये गये हैं। वेद के पुरूष सूक्त में, प्रश्नोपनिषद में बृहदारण्यक उपनिषद में व छान्दोग्य उपनिषद में भी मनुष्य की विभिन्न 16 कलाओं का ही वर्णन है। वास्तव में ये सारी कलाएं जहां हमारे ऋषियों के उत्कृष्ट चिंतन को दर्शाती हैं, वहीं राष्ट्र की उन्नतावास्था के लिए हमें प्रेरित भी करती हैं।
पश्चिम की गलत धारणा
हमारे ऋषियों की मान्यता थी कि पहले व्यक्ति को सुधारो, और राष्ट्र तो स्वयं सुधर जाएगा। वह घर से संसार की ओर को चले, जबकि पश्चिम का चिंतन संसार से घर की ओर को चलता है। सिरे से ही अनुचित और अतार्किक धारणा है ये।
भारत में राष्ट्र मरा नही
भारत में राष्ट्र मरा नही, अपितु वह जीवित रहा-भक्तों के गीत में, संन्यासियों के उपदेशों में, ब्राह्मणों के यज्ञ हवन रचाने में तथा कवियों की कविताओं में। वह जीवित रहा धर्मचिंतन में-इहलोक को उन्नत बनाकर परलोक सुधारने की साधना में, चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित कर मोक्ष पद पाने की अभिलाषा में। जिसकी धर्मवेदी-यज्ञवेदी पर ब्रह्मा प्रत्येक यज्ञमान को बताता था कि अन्याय और अत्याचार से मुक्त चक्रवर्ती साम्राज्य को स्थापित करो और विश्व को आर्य बनाओ, अच्छे उत्कृष्ट मानव समाज का निर्माण करो। आवाहन करो-उस विश्वशक्ति का कि वह हमें विश्व से हिंसा पापाचार और अनाचार को मिटाने में सहायता करे और हम पापमुक्त व दोषमुक्त होकर अंत में मोक्ष के अभिलाषी बनें।
इससे उदात्त राष्ट्रवाद की भावना, उदात्त कामना और पवित्र प्रार्थना भला और क्या होगी? हम और केवल हम ही हैं जो विश्व में आज भी यज्ञ रचाते हैं तो उस पर स्वस्तिवाचन और शांति प्रकरण के मंत्रों के माध्यम से वैश्विक सुख शांति की प्रार्थना करते हैं। यज्ञवेदी पर जब हम इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं तो वह केवल औपचारिकता भर नही होते, अपितु वह हमारे राष्ट्रवाद का सुंदर झरना होता है जो हमें अपने आदर्श से परिचित कराता है।
धर्मचिंतन राष्ट्र चिंतन का आधार है
अथर्व वेद काण्ड 12 सूक्त 1 के12 वें और 14वें मंत्र का पद्यात्मक अनुवाद करते हुए डा.सूर्यदेव शर्मा अपनी पुस्तक ‘धार्मिक शिक्षा’ में लिखते हैं-
हे मातृभु तब मध्य में आकाश में वा जो रहे।
मानव समूह बलिष्ठ हो तब हेतु सब संकट सहे।।
भूमि माता है हमारी पुत्र हम उसके सभी।
पर्जन्यपालक है पिता अन्न दे आनंद भी।।
हे मातृभू हम आपके ही पुत्र प्यारे हैं सभी।
वरदान दे माता हमें, हम हों न कटुभाषी कभी।।
प्रिय सत्य से संयुक्त वाणी में सुधा बहता रहे।
देशभक्ति माता पुत्र सेवा में सदा रहता रहे।।
इस प्रकार हमारा धर्म चिंतन हमारे राष्ट्रचिंतन का आधार है। कुछ विकृतियों और धर्म के नाम पर फेेलाए गये आडंबरों के रहते हुए भी हमारा यह धर्मचिंतन राष्ट्रचिंतन के रूप में सदा प्रबल रहा। पौराणिक मठाधीशों ने भी अपने-अपने इष्ट देव की मंदिरों में मूर्तियां स्थापित कीं, तो दुष्टात्माओं (आतंकियों या राष्ट्र को खण्ड-खण्ड करने वाली शक्तियों) के विनाश हेतु उन मूर्तियों के हाथ में शस्त्र देना न भूले। यह क्या था? यह वही चिंतन था कि शास्त्र की रक्षा भी शस्त्र से ही संभव है। शास्त्र यदि ‘सत्यमेव जयते’ कहता है तो उसकी जय के लिए शस्त्र भी आवश्यक है। ऐसे आर्यों को ही यह भूमि उपयोग के लिए ईश्वर ने दी है।
सोते हुए राष्ट्र को महर्षि दयानंद ने आकर जगाया
गलती पौराणिकों से तब हुई जब अपने इष्ट के हाथों में शस्त्र देने के रहस्य को भूल गये। शास्त्र शास्त्र तक सीमित हो गये। तब राष्ट्र व्याधिग्रस्त होने लगा। धीरे धीरे रोग इतना बढ़ा कि हृदय तक आ पहुंचा। तब महर्षि दयानंद आये और उन्होंने शास्त्रार्थ के माध्यम से राष्ट्र का अहित करने वाले इन पौराणिकों को लताड़ा और जगाया कि अनर्थ हो रहा है, हाथ में शस्त्र लो और भिड़ जाओ शत्रुओं से। सारा राष्ट्र मचल उठा, युवाओं की बाजुएं फडक़ने लगीं। शेर को अपने शेरत्व का ज्ञान हो गया।
महर्षि का पुण्य कार्य तो अत्यंत वंदनीय था ही, परंतु हम इस लेखमाला में जिस काल (1000ई के लगभग) की बात कर रहे हैं, उस समय भी और बाद में भी भारत की आत्मा कहीं आंदोलित रही और वह राष्ट्रवाद की भावना को बलवती किये रही। वह हमारे आलस्य और प्रमाद से कभी मद्घम पड़ी तो उसे हमारे बलिदानियों ने या राष्ट्र पुरूषों ने समय समय पर आकर और भी प्रचण्ड कर दिया।
स्वातंत्रय वीर सावरकर अपनी पुस्तक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम छह पृष्ठ के खण्ड तीन में महमूद गजनवी के आक्रमण के पश्चात सवा सौ वर्षों का उल्लेख करते हुए हमें बताते हैं कि-उस समय भी हमारी राष्ट्रीय भावना और धर्मचेतना के माध्यम से राष्ट्र चेतना का कार्य कैसे संभव हो सका था? वह लिखते हैं-‘शंकराचार्य के पश्चात भी बड़े बड़े आचार्य मठस्थापक, संत, महंत देवल सरीखे स्मृति कार, मेधातिथि से भाष्यकार इसी कालखण्ड में अवतरित हुए जो सारे भारतखण्ड का ही नही, अपितु बृहत्तर भारत का भी सांस्कृतिक नेतृत्व करते थे। संस्कृत ही सारे प्यारे भारत की प्रचलित देवभाषा थी, काशी ही हमारे भारत की सांस्कृतिक राजधानी थी। मौहम्मद गजनवी के उत्पातों से हमारे राष्ट्र के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर जो गहरे घाव हो गये थे, हमारे राजमंडल ने इसी कालखण्ड में पुन: उन्हें भर दिया। इधर सोमनाथ का मंदिर पुन: खड़ा किया गया तो उधर उड़ीसा से असम आदि प्रदेश तक भुवनेश्वर सरीखे नये देवालय एवं धर्मकेन्द्र स्थापित किये जा रहे थे । पूर्व, पश्चिम और दक्षिण समुद्र पर पूरब में मैक्सिको और पश्चिम में अफ्रीका तक हिंदुओं का शासन चलता रहा। वाणिज्य, व्यवसाय हजारों की संख्या में सैनिकों एवं कूटनीतिज्ञों का आवागमन अव्याहत गति से जारी रहा। इसी कारण उधर के विभिन्न द्वीपों में बसने वाले हिंदू राज्यों की भी इस संबंध की पूर्ति सहज ही हो जाती। फलस्वरूप उस समय बृहत्तर भारत का अपनी मातृभूति भारतखण्ड से अविच्छिन्न संबंध उत्तरोत्तर वृद्घिगत हो रहा था। क्या कोई हिंदू निंदक इतिहास लेखक यह लिखने का साहस कर सकता है कि ऐसे समय में ही हिंदुस्तान विदेशियों की राजनैतिक दास्ता में पचता रहा?’
सारे कथ्य, तथ्य और सत्य हमारे पक्ष में है पर हम ही नही मानते।
सारे राष्ट्र की चेतना विभिन्न स्वरूपों में मुखरित हो रही थी और भारत विदेशियों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए था। बृहत्तर भारत में सुख शांति फेेली हुई थी। इतिहास के विषय में यह ध्यान रखने वाली बात है कि ये कभी राजनैतिक घटनाओं का लेखा जोखा मात्र नही होता है अपितु यह राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति या अवन्नति का प्रामाणिक अभिलेख होता है। यदि किसी देश का वाणिज्य, व्यापार, कृषि, शिक्षा, उद्योग और शासन निर्बाध चलता रहे और उस पर बाहरी आक्रमण का कोई प्रभाव न पड़े तो आक्रमण के क्षणिक प्रभावों से ही वह देश पराधीन नही हो जाता है।
भारत का सनातन धर्मचिंतन
इस देश ने तो धर्मचिंतन दे देकर एक एक व्यक्ति को राष्ट्र जैसी संस्था की जीती जागती मूर्ति ही बना दिया था। लाखों ने दास बनकर बिकना स्वीकार कर लिया पर कह दिया कि देश नही बेचेंगे। लाखों ने कटना स्वीकार कर लिया पर कह दिया कि देश नही कटने देंगे। यह क्या थोड़ी बात है?
इस उदात्त राष्ट्रीय भावना के पीछे भारत का सनातन धर्मचिंतन ही था, जो इस समय राष्ट्र चिंतन में परिवर्तित हो गया था, और भारत की जवानी में मचल रहा था इस मचलन को जब तक भारतीय इतिहास में समुचित स्थान नही दिया जाएगा तब तक भारत का इतिहास अधूरा ही माना जाएगा। वास्तव में इसी मचलन ने ही तो कभी संपूर्ण भारत को पराधीन नही होने दिया था।
क्रमश: