यह सब इतिहास होते हुए भी तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के मात्र 3 वर्ष के उपरांत, 1975 मे भारतीय गणतंत्र के काले अध्याय के रूप मे आपात्काल घोषित कर विरोधी दलों के कार्यकता, नेता, जनप्रतिनिधी इन्हे जेल मे बंद कर दिया । इसी 21 महिनों के आपात्काल मे 1976 मे इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना मे संशोधन कर उसमे ‘सेक्युलर और समाजवाद’ यह शब्द जोड दिये । डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान मे संशोधन करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 368 मे किये प्रावधानों का तथा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का यह अपमान था, अर्थात असंवैधानिक रूप से की गयी कृती थी । संविधान की प्रस्तावना अर्थात 1949 मे संविधान का स्वीकार करते समय जनता का शपथपूर्वक वचन था । इस वचन मे 1976 मे बदलाव करने का अधिकार जनता ने तानाशाह के रूप मे कार्यरत इंदिरा गांधी को नही दिया था । ‘सेक्युलर और समाजवाद’ शब्द संविधान मे जोड दिये; परंतु उनके अर्थ आज तक अधिकृत रूप से परिभाषित नही किये गए । इसी कारण आज ‘सेक्युलर’ शब्द का मूल अर्थ पंथनिरपेक्ष होते हुए भी राजनीतीक लाभ उठाने के लिए उसे धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव, निधर्मी ऐसे अनेक शब्दों से प्रचारित किया जा रहा है ।
‘सेक्युलर’ शब्द का मूल अर्थ राज्य को धर्म से अलग करता है । अर्थात् सेक्युलर सरकार किसी भी धर्म/पंथ विशेष के आधार पर अलग कानून नही बना सकती, उन्हे सरकारी अनुदान नही दे सकती, ना उन्हे कोई विशेष अधिकार दे सकती है । जब सेक्युलर सरकार को भारत के सभी धर्मों को समानता से देखना अपेक्षित है, तो धार्मिकता के आधार पर किसी मजहब को अल्पसंख्य समुदाय की मान्यता देना, उनके हज-जेरुसलेम की धार्मिक यात्रा को अनुदान देना, मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधानिक मान्यता देना तथा उनके मदरसा आदि शिक्षासंस्थानों को सरकारी अनुदान देकर वहांसे धर्म की शिक्षा देना असंवैधानिक हो जाता है । एकही साथ संविधान सेक्युलर भी रहे और उसमेही धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक तय करके उन्हे विशेष अधिकार भी दिए जाए, यह संभव नही हो सकता । इसलिए इस स्थिती पर अब न्यायविद़् तथा समाजविद़् इन्हे एकत्रित कर चर्चा-विमर्श की आवश्यकता है । कुछ भी हो आज यह सेक्युलरवाद अल्पसंख्यकों को पुष्ट करते समय बहुसंख्यक हिंदू समाज पर अन्याय कर रहा है, इतना तो सुनिश्चित है ।
– *रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिंदु जनजागृती समिति (संपर्क : 9987966666)*
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