प्राचीन भारत के धर्मशास्त्रों में ‘मी टू’ जैसे अपराध के लिए था सज़ा प्रावधान
रवि शंकर
आज सोशल मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक मी टू की चर्चा खूब हो रही है। मी टू यानी मैं भी। ये कुछ प्रतीक शब्द हैं जिनके द्वारा यौन प्रताडऩा से गुजरी स्त्रियां आज अपनी आपबीती सुना रही हैं। इस आपबीती के खुलासे में बड़े-बड़े प्रसिद्ध नाम आ रहे हैं। फिल्म जगत से लेकर साहित्य जगत और राजनीति तक के अनेक लोगों पर आरोप लग चुके हैं। हालांकि इस मी टू अभियान का प्रारंभ हॉलीवुड से हुआ था, परंतु भारत में भी कई स्त्रियों ने अपनी व्यथा-कथा कहना प्रारंभ कर दिया है। इन आरोपों में कितना सच है और कितना दुष्प्रचार, यह तो न्यायालय और समय ही तय करेगा, परंतु यह एक सच्चाई है कि कार्यस्थलों तथा सार्वजनिक जीवन में यौन उत्पीडऩ की घटनाएं बड़े परिमाण में घटती हैं। यदि हम कुछेक राजनीतिक कारणों से लग रहे आरोपों को छोड़ दें तो भी इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि पिछले कुछ दशकों में ऐसी घटनाएं काफी बढ़ी हैं। दु:खद बात तो यह है कि ऐसे आरोपों पर खबरें तो बहुत बनती हैं, परंतु न्याय कम ही होता है। पिछले कुछ दशकों में राजस्थान की भँवरी देवी से लेकर दिल्ली की जेसिका लाल तक की विवादों में रही प्रमुख घटनाओं में ठीक से न्याय नहीं हुआ, जबकि इन मामलों में हत्याएं तक हुईं।
इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर प्राचीन भारत में धर्मशास्त्रों ने ऐसे मामलों पर क्या कहा है। मनुस्मृति के आठवें अध्याय (352—387) में ऐसे विवादों को स्त्री संग्रहण संबंधी विवाद कहा गया है। इस प्रसंग के प्रारंभ में मनु कहते हैं –
परस्त्रियों से बलात्कार और व्यभिचार करने में संलग्न पुरुषों को राजा शारीरिक प्रताडऩा दे कर देश से निकाल दे। 8/352
क्योंकि उस परस्त्री के साथ व्यभिचार और बलात्कार से लोक में वर्णसंकर पुत्र पैदा होता है जो धर्म के मूल को नष्ट करने वाला अधर्म सर्वनाश करने में समर्थ होता है अर्थात् समाज में अधर्म के संस्कार वृद्धि एवं शक्ति को प्राप्त करते हैं। 8/353
जो व्यक्ति पहले परस्त्री गमन सम्बन्धी दोषों से अपराधी सिद्ध हो चुका है, यदि वह एकान्त स्थान में पराई स्त्री के साथ कामुक बातचीत की योजना में लगा मिले तो उसको पूर्वसाहस (8.138) का दण्ड देना चाहिए। 8/354
किन्तु जो पहले ऐसे किसी अपराध में अपराधी सिद्ध नहीं हुआ है, यदि वह किसी परस्त्री से उचित कारणवश बातचीत करे तो किसी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि उसका कोई मर्यादा—भंग का दोष नहीं बनता। 8/355
जो व्यक्ति तीर्थस्थान, जंगल, छोटे वन अथवा नदियों के संगम स्थान पर पराई स्त्री से बातचीत करे, वह स्त्रीसंग्रहण के दोष का भागी होगा 8/356
विषयगमन के लिए एक—दूसरे को आकर्षित करने के लिए माला, सुगन्ध आदि श्रृंगारिक वस्तुओं का आदान—प्रदान करना, विलास क्रीड़ाएं, कामुक स्पर्श, छेडख़ानी आदि, आभूषण और कपड़ों आदि का अनुचित स्पर्श और साथ मिलकर अर्थात् सटकर एकान्त में बिस्तर आदि पर बैठना, साथ सोना, सहवास करना आदि ये सब बातें संग्रहण यानी विषयगमन में मानी गयी है। 8/357
यदि कोई पुरूष किसी परस्त्री को न छूने योग्य स्थानों स्तन, जघनस्थल, गाल आदि को स्पर्श करे अथवा स्त्री के द्वारा अस्पृश्य स्थानों को स्पर्श करने पर उसे सहन करे, परस्पर की सहमति से होने पर भी यह सब संग्रहण यानी काम सम्बन्ध कहा गया है। 8/358
ब्राह्मणेतर व्यक्ति यदि स्त्री संग्रह का अपराधी हो तो उसे प्राणहरण का दण्ड मिलना चाहिए, क्योंकि चारों वर्णों की स्त्रियां सदा रक्षा करने योग्य होती है। 8/359
भिखारी, चारण—भाट आदि, यज्ञ कराने वाले ऋत्विज् तथा रसोइया, ये बिना किसी रुकावट के स्त्रियों के साथ बातचीत कर सकते हैं अर्थात् इनका बातचीत करना संग्रहण दोष में नहीं आता। 8/360
स्वामी या अभिभावक द्वारा मना करने पर उसकी स्त्रियों के साथ बातचीत न करे, मना करने पर यदि कोई बातचीत करे तो वह एक सुवर्ण (8.134) दण्ड के योग्य है।। 8/361
स्त्रियों के साथ संग्रहण दोष का यह विधान नाचने—गाने वालों की स्त्रियों और अपनी पत्नी की वेश्यावृत्ति पर जीविका चलाने वालों की स्त्रियों पर लागू नहीं होता, क्योंकि वे तो अपनी स्त्रियों को स्वयं सजाते हैं और छुपकर वेश्यावृत्ति के लिए भेजते हैं। 8/362
उपरोक्त विधानों में कुछेक विधानों विशेषकर गैरब्राह्मण अपराधी को प्राणहरण का दंड देना और वेश्याओं के साथ हुए अपराध को अपराध न मानने वाले विधानों को अनेक व्याख्याकारों ने प्रक्षिप्त माना है। इसके आगे के श्लोकों में वर्णानुसार दंड विधान दिया गया है जो कि मनुकृत प्रतीत नहीं होता। उन विधानों में आर्थिक दंड का विधान है जो मनु के ही पहले विधान के विपरीत है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु ने आज से हजारों वर्ष पहले ही यौन शोषण के अपराधों की न केवल विस्तृत परिभाषा कर दी थी, बल्कि उन्होंने इसके लिए उपयुक्त दंड का भी विधान किया था। उन्होंने यौन अपराधों को इतनी गंभीर माना है कि सहमति से किए गए स्पर्शादि चेष्टाओं को भी उन्होंने दंडयोग्य बताया है। मनु के दंडविधान में यौन शोषण के अपराधी को दो प्रकार के दंड दिए जाने का उल्लेख है। पहला दंड शारीरिक है जिससे अपराधी व्याकुल हो जाए और दूसरा दंड है देशनिकाले का। वर्तमान न्याय व्यवस्था में शारीरिक दंड नहीं दिया जाता, केवल कैद, सश्रम कैद आदि दंड हैं। यदि तुलना की जाए तो शारीरिक दंड के स्थान पर सश्रम कैद का दंड होता है। इस प्रकार आज की भाषा में मनु के अनुसार यौन अपराधियों को सश्रम कैद मिलना चाहिए। इसी प्रकार आज देशनिकाले का दंड भी नहीं होता। इसलिए आज की व्यवस्था में इसके स्थान पर आजीवन कैद दिया जा सकता है जो प्रकारांतर से देशनिकाले के समान ही होगा। इस प्रकार मनु के अनुसार यौन अपराधों के लिए आजीवन सश्रम कैद ही उपयुक्त दंड होगा।
मनु के इन्हीं विधानों के आधार पर बाद के प्राचीन आचार्यों ने अपने-अपने समय में इस पर नियमादि बनाए। आचार्य चाणक्य ने मौर्य साम्राज्य में इस पर जो नियम बनाए हैं, वे आज भी काफी प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए चाणक्य स्पष्ट रूप से निर्देश देते हैं कि कार्य करने के लिए आई स्त्रियों के साथ किसी भी प्रकार का दुव्र्यवहार न हो, यह देखना सूत्राध्यक्ष की जिम्मेदारी है। चाणक्य लिखते हैं कि स्त्री का मुख देखने यानी घूरने या उनसे इधर-उधर की यानी अश्लील या दोहरी बातें करने वाले परीक्षक यानी अधिकारियों को प्रथम साहस का कठोर दंड दिया जाना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्रियों को घूरने पर दंड का विधान स्वाधीनता के कई दशकों बाद किया जा सका, जबकि चाणक्य ने यह दंडविधान आज से लगभग 3600 वर्ष पहले ही बनाया था।
चाणक्य स्त्रियों को अपनी इच्छानुसार घर से ही कार्य करने की छूट प्रदान करते हुए लिखते हैं कि यदि स्त्री चाहे तो वह अपने घर पर रह कर ही काम कर सकती है, उसे घर पर ही कार्य उपलब्ध करवाना और उस कार्य के लिए उपयुक्त भुगतान करना भी सूत्राध्यक्ष की जिम्मेदारी है।
आचार्य चाणक्य ने तो वेश्याओं तक के बारे में व्यवस्था दी है कि कामनारहित गणिकाओं से भी कोई बलात्कार करे तो उसे कठोर दंड दिया जाए। और यदि कोई कामनायुक्त गणिका के साथ बलात्कार करे तो उसे थोड़ा कम दंड दिया जाए। चाणक्य ने गणिकाओं के रूप को नष्ट करने वालों को भी कठोर दंड देने का विधान दिया है। आज एसिड फेंकने की घटनाओं से हम इसकी तुलना कर सकते हैं।
इसप्रकार हम पाते हैं कि भारतीय आचार्य स्त्रियों की मान सम्मान को लेकर काफी सचेत थे और वे समाज से इस प्रकार के दुराचारों को समाप्त करने के लिए व्यवस्थाएं भी बनाते रहे हैं। उनके इन्हीं प्रयासों का ही फल था कि राजा अश्वपति जैसा सम्राट भी इस देश में हुआ जिसने यह घोषणा की थी कि उसके राज्य में कोई व्यभिचारी पुरुष नहीं है, तो फिर व्यभिचारिणी स्त्री कहाँ से होगी।