जीवन्मुक्ति के लिए अपनाएँ
अनासक्त कर्मयोग
– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
हर प्राणी मुक्ति चाहता है। मनुष्य ही नहीं बल्कि हर प्राणी का स्वाभाविक भाव होता है मुक्ति। मनुष्य बुद्धिशाली होने की वजह से कुछ ज्यादा ही स्वतंत्रता चाहता है और कई बार यह स्वच्छन्दता की सीमा तक पसर जाती है। इंसान पक्षियों की तरह उन्मुक्त फड़फड़ाहट के साथ आक्षितिज पसरे हुए व्योम में उड़ना, घूमना, देखना और जानना चाहता है। इसीलिए आदमी अपनी सीमाओं को असीमित करना तथा कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुरूप पूरी दुनिया को पा जाने के लिए हमेशा उतावला बना रहता है।
संसार में रहते हुए संसार का पूर्ण उपभोग करते हुए लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से आता है कि इस स्थिति में मोक्ष या ईश्वर और संसार के बीच कोई एक मार्ग चुनना हो तो क्या उसके लिए वैराग्य अथवा संसार दोनों में किसी एक को त्यागना जरूरी है?
वर्तमान परिस्थितियों में धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करने की जरूरत है। न किसी को पकड़ने की जरूरत है, न किसी को छोड़ने की। आवश्यकता बस इतनी सी है कि अपने आपको सबसे पृथक मानकर सब कुछ करें। इसके लिए अनासक्त कर्मयोग को अपनाएं तथा अहर्निश ईश्वर का निरन्तर स्मरण बनाये रखें। वस्तुओं और व्यक्तियों पर अपनाउ अधिकार पूरी तरह त्याग दें और इन्हें ईश्वरीय व्यवस्था मानकर उपभोग-उपयोग करें। इसमें उपभोग से आनंद के सारे द्वार खुले रहते हैं लेकिन मोह और अंधकार से हम सदैव मुक्त रहते हैं। और यही कारण है कि आसक्ति भाव यमपाश की तरह जकड़न पैदा करता है और अनासक्त भाव हर तरह से मुक्त करता और रखता है जहाँ जड़ता की कोई कल्पना तक भी नहीं हो सकती।
ईश्वर को पाने के लएि वैराग्य या भगवे वस्त्र की जरूरत नहीं होती। मन से वैराग्य होता है। तभी कहा गया है – जल कमलवत होना। संसार के समस्त भोगों में पूर्णता पाने के समय से ही ईश्वर की ओर जाने या योग का मार्ग आरंभ होता है। आजकल गृहस्थाश्रम से बढ़कर साधना, योगसिद्धि और ईश्वर को पाने का कोई मार्ग है ही नहीं। असली वैराग्य की भावभूमि गृहस्थाश्रम में ही प्राप्त होती है। ये दोनों मार्ग एक ही हैं। भोग ऊर्जा का रूपान्तरण योग ऊर्जा में होना ही वास्तव में आत्म आराधना का मार्ग प्रशस्त करता है।
साधुत्व या वैराग्य वो नहीं है कि संसार से दूर भाग जाओ, दूर दिखाओ लेकिन मन में संसार बसा और डूबा रहे। साधुत्व या वैराग्य का अर्थ है हम कहीं भी रहें, ईश्वर का चिंतन हर क्षण बना रहे, सांसारिक कर्मों में रहते हुए संसार से र्निलिप्त रहें। संसार से मीलों दूर हो जाएं लेकिन मन में संसार बसा रहे, तब वह वैराग्य नहीं, कुण्ठा पैदा करता है। सांसारिक सभी प्रकार के सांसारिक भोग पूर्ण करें, पूरी मस्ती पाएं लेकिन किसी के प्रति आसक्त न रहें। असल में वैराग्य यही है।
संसार के सुखों को प्राप्त करते हुए, उनका आनंद पाते हुए, योग मार्ग का आश्रय ग्रहण करें और धीरे-धीरे वो स्थिति लाएं कि भोग से प्राप्त ऊर्जा और आनंद का रूपान्तरण योग या ईश्वरीय चिंतन में होने लगे। साधुत्व या साधक होने के लिए यह जरूरी नहीं कि घण्टों साधना करें। इसके लिए यह जरूरी है कि अपने मन में ईश्वर को पाने की तड़प लगातार बढ़ती रहे, यही तत्व ईश्वर या आत्म तत्व को अपनी ओर आर्कषित करता है। अनासक्त कर्मयोग से ही वैराग्य को दृढ़ किया जा सकता है, किसी वस्तु या विचार को सायास छोड़ कर नहीं।
जो लोग अनासक्त कर्मयोग और शरणागति भक्ति का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनके जीवन में न दुःख प्रवेश कर सकते हैं, न सुख। बल्कि इन सभी से ऊपर की अवस्था प्राप्त कर लेते हैं जहाँ हर स्थिति में मस्ती और आनंद छाया रहता है और कोई चाहते हुए भी न दुखी कर सकता है, न सुख पहुंचाने का श्रेय ले सकता है। वास्तव में यही जीवन के रहते हुए मुक्ति है जहाँ न मृत्यु का भय है, न किसी ओर का। यहाँ काल निष्प्राण हो जाता है और आनंद अनंग होकर हर क्षण पसरा रहता है।