विनोद कुमार सर्वोदय
देश के संविधान की मूल आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के आग्रहों का सम्मान करते हुए शासन को “समान नागरिक संहिता” पर गम्भीरता से चिंतन करना चाहिये। अनेकता में एकता का राष्ट्रव्यापी विचार बिना एक समान कानून के अधूरा है। सबका साथ,सबका विकास व सबका विश्वास पाने के का सशक्त सूत्र है “समान नागरिक संहिता”। इसके लिए शीर्ष नेतृत्व को अपनी दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़ना होगा। राष्ट्रहित में आज केंद्रीय शासन जिस कार्यकुशलता व निर्णायक क्षमता से समस्याओं का समाधान करने के लिये संघर्षरत है उससे सभी देशवासी उत्साहित है। ऐसे सकारात्मक वातावरण में शासन को सबका साथ, विकास व विश्वास पाने के लिए सबको एक समान कानून के अंतर्गत लाकर इस बहुप्रतीक्षित कार्य को मूर्त रुप देना चाहिये।
सामान्यत: यह विचार क्यों नहीं किया जाता कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सन् 1985, 1995, 2003 और 2019 में बार बार समाज में घृणा, वैमनस्य व असमानता दूर करने के लिए समान कानून को लागू कराने आवश्यकता जतायी है तो फिर अभी तक कोई सार्थक पहल क्यों नहीं हो पायी? वर्षों पूर्व किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 84 % देशवासी इस कानून के समर्थन में थे। जबकि इस सर्वे में अधिकांश मुस्लिम माहिलायें व पुरुषों की भी सहभागिता थी।अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने भी सन् 2000 में समान नागरिक व्यवस्था अपनाने के लिए भारत सरकार से विशेष आग्रह किया था।
“समान नागरिक संहिता” (Uniform Civil Code ) का प्रावधान धीरे-धीरे लागू करने की अनुशंसा हमारे संविधान के अनुच्छेद 44 में आरम्भ से ही है। परन्तु मुस्लिम वोट बैंक के लालच व इमामों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु जी ने अनेक विवादों के बाद भी “समान नागरिक संहिता” के प्रावधान को संविधान के मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर “नीति निर्देशक तत्वों” में डलवा दिया। परिणामस्वरूप यह विषय न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया और वह अब केवल सरकार को इस क़ानून को बनाने के लिए परामर्श दे सकती हैं, बाध्य नहीं कर सकती। अनेक विवादों के बाद भी सुधार के लिए हिन्दुओं के पर्सनल लॉ होने के उपरांत भी उसके स्थान पर 1956 में उन पर हिन्दू कोड बिल ( Hindu Code Bill ) थोपा गया था। परंतु अन्य धर्मावलंबियों के पर्सनल लॉ को यथावत् बनाये रखने की क्या बाध्यता थी जबकि उनमें भी आवश्यक सुधारों की आवश्यकता जब भी थी और अब भी बनी हुई है। निसन्देह मुस्लिम पर्सनल लाँ के यथावत बने रहने से मुस्लिम कट्टरता के दु:साहस ने देश में घृणा के वातावरण को ही उकसाया है।
विश्व के किसी भी देश में धर्म के आधार पर अलग अलग कानून नहीं होते, सभी नागरिकों के लिए एक सामान व्यवस्था व कानून होते हैं। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ अल्पसंख्यक समुदायों के लिए पर्सनल लॉ बने हुए हैं। जबकि हमारा संविधान अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, लिंग, क्षेत्र व भाषा आदि के आधार पर समाज में भेदभाव नहीं करता और एक समान व्यवस्था सुनिश्चित करता है। लेकिन संविधान के अनुच्छेद 26 से 31 में कुछ ऐसे व्यवधान हैं जिससे हिंदुओं के सांस्कृतिक,शैक्षिक व धार्मिक संस्थानों एवं ट्रस्टों को विवाद की स्थिति में शासन द्वारा अधिग्रहण किया जाता रहा है। जबकि अल्पसंख्यकों के संस्थानों आदि में विवाद होने पर शासन कोई हस्तक्षेप नहीं करता, यह भेदभाव क्यों ? इसके अतिरिक्त एक और विचित्र व्यवस्था संविधान में की गई कि अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ने व पढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता हैं,जबकि बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए यह धारणा मान ही ली थी कि वह तो अपनी धर्म शिक्षाओं को पढ़ाते ही रहेंगे। अतः हिन्दू धर्म शिक्षाओं को पढ़ाने का प्रावधान संविधान में लिखित रूप में नही किये जाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि आज तक हिन्दुओं को उनके धर्म शास्त्रों की शिक्षा की कोई अधिकारिक व्यवस्था नहीं होने से वे अपने धर्म मार्ग से विमुख होते जा रहे हैं। आज तक हिन्दू समाज इस अन्याय के प्रति आक्रोशित तो हैं परन्तु संवैधानिक विवशता से बंधा हुआ हैं।
हमारे संविधान में अल्पसंख्यकों को एक ओर तो उनको अपने धार्मिक कानूनों (पर्सनल लॉ) के अनुसार पालन करने की छूट है और दूसरी ओर संवैधानिक अधिकार भी बहुसंख्यकों के बराबर ही मिले हुए है। फिर भी विभिन्न राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियां जैसे परिवार नियोजन, पल्स पोलियो, राष्ट्रगान, वन्देमातरम् आदि पर इस सम्प्रदाय विशेष का आक्रामक व्यवहार बना ही रहता है। इनके पर्सनल लॉ के अनुसार उत्तराधिकार, विवाह, तलाक़ आदि के सम्बंध में मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न को रोका नहीं जा सकता।वर्तमान शासन ने मुस्लिम महिलाओं पर एक साथ “तीन तलाक़” कहने की वर्षो से चली आ रही अमानवीय प्रथा को समाप्त करके एक सराहनीय कार्य अवश्य किया। परंतु बहुविवाह का चलन अभी भी बना हुआ है जिससे मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा को समझना कठिन है। साथ ही प्रजनन द्वारा बच्चे जनने की कोई सीमा न होने से इन महिलाओं को विभिन्न गंभीर बीमारियों को झेलना पड़ता है।अधिकाँश कट्टरपंथी व उनके सहयोगी कहते हैं कि सरकार को हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। परंतु सरकार का अपने नागरिकों को ऐसे अमानवीय अत्याचारों से बचाने का संवैधानिक दायित्व तो है। आज के वैज्ञानिक युग में जब आधुनिक समाज चारों ओर अपनी अपनी प्रतिभाओं के अनुसार निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है तो उस परिस्थिति में हलाला, मुताह व बहुविवाह जैसी अमानवीय कुरीतियों को प्रतिबंधित करके मुस्लिम महिलाओं को व्याभिचार की गंदगी से बचा कर उनके साथ न्याय तो होना ही चाहिये।
“समान नागरिक संहिता” का विरोध करने वाले कट्टरपंथी मुल्लाओं में इन मज़हबी अमानवीय कुरीतियों के प्रति कोई आक्रोश नहीं, क्यों ? बल्कि कट्टरपंथी मुल्लाओं ने “समान नागरिक संहिता” से मुस्लिम समाज में एक भय बना रखा है मानो कि भविष्य में उनके शवों को भी दफनाने की प्रथा के स्थान पर कहीं जलाने की व्यवस्था न हो जाय ? इस प्रकार के अज्ञानता से भरे रुढिवादी समाज को “अपना विकास, सबका साथ और सबका विश्वास” तो चाहिए परंतु उसको ठोस आधार देने वाली “समान नागरिक संहिता” स्वीकार नहीं, क्यों ? यह कहाँ तक उचित है कि देश में सुधारात्मक नीतियों का विरोध केवल इसलिए किया जाय कि कट्टरपंथी मुल्लाओं की आक्रमकता बनी रहे और अमानवीय अत्याचार होते रहे ? जबकि मुसलमानों को अनेक लाभकारी योजनाओं से लाभान्वित किया जाता है। फिर भी वे अपनी दकियानूसी, रूढ़िवादी व धार्मिक मान्यताओं से कोई समझौता तो दूर उसमें उन्हें कोई दखल भी स्वीकार नहीं।
यहाँ एक और विचारणीय बिंदु यह भी है कि मुस्लिम समुदाय ने अपराधों पर अपने मज़हबी कानून “शरिया” के स्थान पर “भारतीय दंड संहिता” को ही अपनाना उचित समझा है। क्योंकि शरिया में अपराधों की सजा का प्रावधान अत्यधिक भयानक व कष्टकारी है। फिर भी “समान नागरिक संहिता” का विरोध करना इनका जिहादी जनून है।
जबकि “समान नागरिक संहिता” में सभी धर्म, सम्प्रदाय व जाति के देशवासियों के लिए एक समान व्यवस्था होने से परस्पर वैमनस्य अवश्य कम होगा। परंतु विडम्बना यह है कि एक समान कानून की माँग को साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर हिन्दू कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपने के रूप में प्रस्तुत किये जाने का कुप्रचार किया जाता रहा है।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सन् 1947 में हुए धर्माधारित विभाजन के 73 वर्ष बाद भी देश में अल्पसंख्यकवाद को प्रोत्साहित करने की परंपरा यथावत बनी हुई है। इस कारण मौलिक व संवैधानिक अधिकारों के होते हुए भी पर्सनल लॉ की कुछ मान्यताएं कई बार विषम परिस्थितियाँ खड़ी कर देती है, तभी तो उच्चतम न्यायालय “समान नागरिक संहिता” बनाने के लिए सरकार से बार-बार आग्रह कर रहा है। “राष्ट्र सर्वोपरि” की मान्यता मानने वाले भी यह चाहते हैं कि एक समान व्यवस्था से राष्ट्र स्वस्थ व समृद्ध होगा और भविष्य में अनेक संभावित समस्याओं से बचा जा सकेगा। साथ ही भविष्य में असंतुलित जनसंख्या अनुपात के संकट से भी बचेंगे और राष्ट्र का पंथनिरपेक्ष स्वरूप व लोकतांन्त्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित रहेगी।
आज देश में स्वस्थ राष्ट्रवाद की पताका लहरा रही है। ऐसे में देश की संप्रभुता, एकता व अखंडता को सुदृढ़ व अटूट रखने के लिए “समान नागरिक संहिता” द्वारा सबका विश्वास पाना भी सरल है। कुछ वर्षों से यह विषय अत्यधिक चर्चा में है परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मक वातावरण नहीं बन पा रहा जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अभी शासन असमंजस में है। जबकि यह मानना अतिश्योक्ति नहीं कि एक समान कानून की व्यवस्था से मुख्य धारा की राजनीति व राष्ट्रनीति सशक्त होगी। नि:सन्देह “समान नागरिक संहिता” का प्रावधान मोदी जी के मन्त्र “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” पाने का सूत्र बनेगा।
विनोद कुमार सर्वोदय