राकेश कुमार आर्य
गौवध निषेध पर संविधान सभा में बड़ी रोचक बहस हुई थी। पूर्वी पंजाब के जनरल पंडित ठाकुरदास भार्गव, सेठ गोविंददास, प्रो. छिब्बनलाल सक्सेना, डा. रघुवीर (सी.पी. बेरार : जनरल) मि. आर.बी. धुलिकर, मि. जैड, एच. लारी (यूनाईटेड प्रोविन्स मुस्लिम सदस्य) तथा असम से मुस्लिम सदस्य रहे सैय्यद मुहम्मद सैदुल्ला सहित कई विद्वान सदस्यों ने गौमाता के वध निषेध पर अपने विचार रखे थे, और यह अच्छी बात थी कि उस समय संविधान सभा में उपस्थित रहे सदस्यों ( मुस्लिम सदस्यों सहित) ने गौवध निषेध के पक्ष में ही अपने विचार व्यक्त किये थे।
इन लोगों के सदप्रयास और सदविचारों के चलते भारतीय संविधान की धारा 48 में प्राविधान किया गया कि राज्य विशेष कर गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल के परिरक्षण तथा सुधार के लिए उनके वध पर प्रतिबंध लगाने के लिए कदम उठाएगा। दुर्भाग्य रहा कि इस देश का कि संविधान का यह अनुच्छेद केवल ‘शोपीस’ बनकर रह गया। क्योंकि देश का जो पहला प्रधानमंत्री बना था वह स्वयं मांसाहारी था। इसलिए वह नही चाहता था कि देश में गोहत्या निषेध जैसी स्थिति उत्पन्न हो। यद्यपि 1938 में अखिल भारतीय कांग्रेस ने पंडित नेहरू के नेतृत्व में ही एक नेशनल प्लानिंग कमेटी बनाई थी जिसकी 30-35 छोटी उपसमितियां थीं।
1946 में इन समितियों ने अपनी अलग-अलग रिपोर्टें दीं। जिनके अवलोकन से स्पष्ट हुआ कि संपूर्ण भारत में गोवध पूरी तरह से बंद होना चाहिए। संविधान सभा और इन समितियों के इस निष्कर्ष के उपरांत भी 1954 में भारत सरकार के पशुपालन विभाग ने फिर एक समिति बनायी जिसका नाम रखा गया कि वह गोवध बंद करने के लिए उपाय सुझाए। लेकिन इस समिति ने अपने ‘आका’ को प्रसन्न करने के लिए गोवध निषेध पर अपने उपाय न सुझाकर ‘गोवध कैसे जारी रखा जा सकता है’ इस पर अपने विचार और सुझाव प्रस्तुत किये। समिति ने कहा कि हमारे यहां सौ में से चालीस गायों बैलों को खिलाने के लिए पौष्टिक आहार है, बाकी 60 गाय-बैलों को तो हम आहार ही नही दे पाएंगे। इसलिए सौ में से 60 कमजोर गाय-बैलों को तो हमें मारना ही पड़ेगा।
इसके पश्चात 1938 की पंडित नेहरू की अध्यक्षता वाली कमेटी और उसकी 30-35 उपसमितियों की रिपोर्ट तथा संविधान सभा के विद्वान सदस्यों के राष्ट्रवादी विचारों की उपेक्षा करते हुए इसी 1954 की समिति की आख्या को भारत में गोवध जारी रखने का कारण घोषित किया गया। आज तक जितनी गऊएं या बैल काटे जाते हैं उन सबको वृद्घ और अनुपयोगी दिखाया जाता है, इसमें सरकारी डा.
और संबंधित अधिकारियों की सांठ गांठ होती है जो लाइसेंस धारी कातिलों को इन पशुओं को मारने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। इस प्रकार बड़ी ही सावधानी से तथा चुपके से राष्ट्र की आत्मा की तथा संविधान के अनुच्छेद 48 की हत्या कर दी जाती है। जब भी कोई गाय इस देश में कहीं कटती है, या रोजाना कत्लगाहों में जब-जब मारी जाती है तब-तब वह रोती हुई संविधान सभा के लोगों को तथा 1938 की समिति के सदस्यों को तो शुभाशीष देती है, पर इस देश की आत्मा की हत्या करने वालों को तथा इस हत्या को देखने वालों को धिक्कारती हुई इस संसार से चली जाती है।
प्रत्येक भारतीय 420 गायों का हत्यारा
कोलम्बस ने जब 1492 में अमेरिका की खोज की थी तो वह वहां 40 गायें और दो सांड लेकर गया, जो कि 1940 तक बढ़कर लगभग साठे सात करोड़ हो गयीं, अर्थात 1492 की 40 गायों के मुकाबले 18 लाख 7 सौ 75 गुणा वृद्घि हुई। जबकि भारत में अकबर (1556 से 1605ई.) के काल में 28 करोड़ गायों के होने का आंकड़ा उपलब्ध है। 1492 से 1940 तक कुल 548 वर्ष हुए जिनमें अमेरिका में 40 से बढ़कर साढ़े सात करोड़ गायें हुईं। अब अकबर के काल को 2011 की जनगणना के समय भी लगभग 450 वर्ष ही हो गये थे, तो उसके काल की कुल गायों की संख्या अर्थात 28 करोड़ का 18 लाख 7 सौ 75 गुणा 5 खरब 25 अरब गायों का हो जाना संभावित था। अब सवा अरब का भाग 5 खरब 25 अरब में देने पर 420 आता है। इसका अभिप्राय हुआ कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति के पास आज 420 गायें होतीं (यदि उनका वध निरंतर न होता रहता तो)। अमेरिका ने बढ़ाया और हमने 450 वर्षों में घटाया। यदि हम आज 420 गायों के मालिक नही हैं तो समझो कि हमने 420 गायों का वध (भ्रूण हत्या) करने का अपराध अपने ऊपर ले लिया है। इतने बड़े अपराध को लेकर ही भारत में प्रत्येक बच्चा जन्मता है।
विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को 75 गायें भारत दे सकता था
अब भारत की कुल 5 खरब 25 अरब गायों की संख्या को भारत की कुल आबादी की भांति ही विश्व की कुल जनसंख्या से अर्थात 7 से भाग दिया जाए तो भजनफल 75 आता है, इसका अभिप्राय है कि आज भारत विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को 75 गायें देने की स्थिति में होता।
विश्व की अर्थव्यवस्था तब गाय आधारित होती
यदि ऐसी स्थिति बन जाती तो सारे विश्व की अर्थव्यवस्था तब गाय आधारित होती। सारे विश्व में ही कोल्ड ड्रिंक्स की बड़ी बड़ी कंपनियां कहीं ना होतीं। दूध दही-लस्सी, मक्खन से पौष्टिक आहार तैयार होता और विश्व में कहीं पर भी कैंसर सहित सैकड़ों प्राणलेवा बीमारियों का कहीं अता पता ही नही होता। भारत में कृषि की स्थिति उन्नत होती, क्योंकि गायों के गोबर से उत्तम खाद खेतोंंं को मिल रही होती। जिससे स्वस्थ फसल और स्वस्थ अन्न हमारे घरों में आ रहा होता। आज की तरह रासानियक खादों से तैयार हो रही प्राणलेवा हरी सब्जियों की समस्या ही कहीं दिखाई नही देती और ना ही हम दूषित अन्नौषधियां का सेवन करने के लिए अभिशप्त होते। सारे भारत में हरियाली होती और हम अपने यज्ञ विज्ञान के आधार पर अपने राजस्थान जैसे प्रांतों में भी हरितक्रांति करने में सफल हो जाते। साथ ही भारत में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रूपये के अवमूल्यन का वर्तमान शर्मनाक दौर भी हमें देखने को नही मिलता।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कई वर्ष पूर्व वैज्ञानिकों ने एक चेतावनी दी थी कि यदि यहां रासायनिक खादों का प्रयोग इसी प्रकार जारी रहा तो सन 2050 तक इस क्षेत्र की ऊर्वराभूमि पूर्णतया अनुर्वर हो जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से कृषि उपज निरंतर गिर रही है और कृषि योग्य भूमि निरंतर अनुपजाऊ (बंजर) होती जा रही है। यदि गोवध जारी रखने की 1954ई. की समिति की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में फेंककर उससे पूर्व की (1938ई.) समिति की रिपोर्ट पर ध्यान दिया जाता तो आज यह स्थिति नही आती।
पाप बोध से उबर नही पाए
11 अगस्त सन 2003 को अटल सरकार ने देश की आत्मा की पुकार को समझते हुए संसद में पूर्ण गोहत्या निषेध हेतु एक बिल पेश किया। तत्कालीन कृषि मंत्री राजनाथ सिंह ने उक्त विधेयक को पेश ही किया था कि गोहत्या जारी रखने के समर्थक दलों ने (कम्युनिस्ट सबसे आगे थे) इस बिल का जोरदार विरोध आरंभ कर दिया। शोरगुल इतना अधिक रहा था कि भाजपा के कई समर्थक दल भी उसी में शामिल हो गये थे और एक अच्छी पहल की भ्रूण हत्या करने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा। इस प्रकार आशा की एक किरण जगते-2 रह गयी। पापी अपने पापबोध से उबर नही पाए और उसी में डूबकर मर गये।
पर्यावरण सन्तुलन गाय से ही संभव है
वेद ने एक अद्भुत शब्द ‘सहचर्य’ की खोज की। वास्तव में इस शब्द में ही प्राकृतिक और पर्यावरणीय संतुलन का रहस्य छिपा है। भारत ने आदिकाल से पर्यावरण संतुलन के लिए सहचर्य का प्रयोग किया है। इसलिए भारत ने जीवन को एक प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्घा न मानकर साथ साथ चलने और साथ-साथ रहने का आनन्दोत्सव माना और इसी प्रकार जीने का प्रयास किया। पश्चिमी जगत ने अपनी मिथ्या धारणाएं संसार को दीं तथा संसार को नरकगाह या कत्लगाह में परिवर्तित कर दिया। फलस्वरूप सारे संसार में आज उपद्रव, उन्माद, और उग्रवाद का ताण्डव नृत्य हो रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के खगोल भौतिकी के रीडर डा. मदनमोहन बजाज और उनके साथी डा. इब्राहीम एवं डा. विजयराज सिंह ने रूस के पुशीना नगर में सितंबर 1994 में संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन में ‘आइंसटीन पेन वेव्स’ के सिद्घांत के आधार पर अपने बहुचर्चित शोधपत्र में सिद्घ किया कि धरती माता अपनी संतानों का निर्ममता पूर्वक संहार होते देखकर रोती है, क्रंदन करती है, चीखती है, दहाड़ती है, वही भूकंप बन जाती है।
हमने सहचर्य को तिलांजलि दी तो धरती माता ने हमें दंड देना प्रारंभ कर दिया है। दण्ड की यह प्रक्र्रिया गति पकड़ती जा रही है। प्रत्येक वर्ष बाढ़ों, भूकंपों व ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं का क्रम निरंतर बढ़ रहा है। प्रकृति ने ‘दण्ड’ हाथ में ले लिया है और मानव अपने अस्तित्व के लिए स्थान खोजता फिर रहा है।
अच्छा हो कि अब भी गौमाता की शरण में आ जाएं, क्योंकि आपत्ति में मां ही सहायक होती है, और मां ही काम आती है। मां अवश्य शरण देगी क्योंकि वह करूणामयी होती है। संविधान के रक्षको! निहित स्वार्थों में संविधान के भक्षक मत बनो, संविधान की मूल भावनाओं को समझो और गौमाता को यथाशीघ्र राष्ट्रीय पशु घोषित करो। समय की यही पुकार है।